Menu
blogid : 12745 postid : 1342771

क्या चुनाव पानीपत का युद्ध है!

संजीव शुक्ल ‘अतुल’
संजीव शुक्ल ‘अतुल’
  • 26 Posts
  • 6 Comments

लोकतांत्रिक चुनाव को पानीपत के युद्ध से जोड़ना बताता है कि चुनावी हार का भय मन में बहुत गहरे से पैठ गया है। गुलाम हो जाने का भय दिखाकर स्वयं के लिये सत्ता सुरक्षित करने का उपक्रम नितांत अवसरवादिता है, जो असुरक्षा के भाव बोध से जन्मा है। अगर यह असुरक्षा का भावबोध नहीं है, तब तो ऐसी आक्रामक भाषा सर्वथा निंदनीय है। हालांकि ऐसी शब्दावली भले ही पूर्व में किसी दल के नेतृत्व ने प्रयोग न की हो, पर भाव रूप में यह प्रवृत्ति विद्यमान रही है। अधिकांश दलों में अधिकांश अवसरों पर ऐसी प्रवृत्ति वर्तमान रही है और यह कोई नई चीज नहीं पर नग्न रूप में ऐसा कह ले जाना बड़े कलेजे का काम है। भाषा की अपनी गरिमा होती है। अगर आप अपने ही दल के शीर्षस्थ नेताओं से वाणी-संयम की कला सीख लें तो ऐसी स्थितियां उत्पन्न न हों। क्या कोई इस तरह की भाषा-शैली की उम्मीद सुषमा स्वराज या जोशी जी से कर सकता है, कतई नहीं।

 

उनका भाषा स्तर ऐसा हो ही नही सकता। अटल जी तो तब भी ऐसी भाषा नही बोले जब अपार जनसमर्थन के बावजूद वो संसद में एक वोट से पराजित हो गए थे,जबकि विरोध में वोट डालने वाले वह माननीय सदस्य महोदय तकनीकी स्तर पर ही ऐसा करने के लिए अधिकृत हुए थे, विशुद्ध नैतिक स्तर पर नहीं। यह भाषा का संस्कार था …..राजनीतिक मर्यादा का पालन था .. राजधर्म का निर्वहन था। पर जब कोई स्वयं को स्वयम्भू से कमतर न माने तो वह क्यों किसी से सीखे।

‘गुलाम हो जाने का डर’ ……आखिर यह लोकतंत्र है या राजतंत्र। ये लोकतांत्रिक व्यवहार बताता है कि हम एक विशाल लोकतंत्र होने के बावजूद लोकतंत्र को सच्चे अर्थों में अभी तक जी न पाए। खेद है कि हमने लोकतंत्र को सत्ता-परिवर्तन का ज़रिया ही समझा, व्यवस्था-परिवर्तन का नहीं। यह राजनीतिक सन्निपात की अवस्था है।

 

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply