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नाम को नाम ही रहने दो, कोई नाम न दो

संजीव शुक्ल ‘अतुल’
संजीव शुक्ल ‘अतुल’
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इधर मैं एक अजीब सी कशमकश में था, एक भीषण अंतर्द्वंद्व से जूझ रहा था।दरअसल मैं एक अकबर इलाहाबादी का शेर पोस्ट करना चाह रहा था सोच रहा था कर ही दूँ नहीं तो कोई और कर देगा तो क्या फायदा !! पर असली दुविधा तो यहीं पर थी। मेरे सामने धर्मसंकट और संवैधानिक संकट दोनों आ खड़े हुए। हालांकि दुविधा उनके लिखे हुए शेर को लेकर के नहीं है, शेर तो अच्छा ही है, कुछ सोच करके ही लिखा होगा। मामला दरअसल उनके नाम का है। नाम की अपार महिमा है ! जगत में जितने भी उंगली पर गिनाए जा सकने वाले अच्छे काम हुए उनके पीछे नाम की ही प्रेरकशक्ति है। अगर नाम कमाने की इच्छा मर जाये तो आप यकीन मानिए कि अच्छे काम करना बहुत ही कठिन हो जायेगा। एक प्रकार से असंभव। धोखाधड़ी से अच्छे काम हो जाय तो अलग बात है। यह उतना ही कठिन है, जैसे चुनाव लड़ने पर उतारू उम्मीदवार से चुनाव में बैठ जाने के लिए कहना,जैसे चुनावों में उम्मीदवारों के द्वारा जनसेवा के उन्माद में किये गये वायदों को जीतने के बाद उनके द्वारा पूरा कर पाना; जैसे जनता में अफवाह की तरह फैली कबीर की वह जनप्रिय उक्ति “जस की तस धर दीन्ही चुनरिया” को साबित करके दिखा देना।

हालांकि, कबीरदास जी की बात अलग है। महात्माओं में उनका एक स्तर था, वह बहुत बिगड़ैल स्वभाव के थे। लोग बताते हैं कि वह हर चीज को प्रेस्टिज इश्यू बना लेते थे। ‘मसि कागद छुयो नहि कलम गह्यो नहि हाथ की घोषणा करने वाले के लिए क्या असंभव!! पर हम लोगों के लिए असंभव। जिस सत्ता की चादर को बिछाया जाय,ओढ़ा जाय और न जाने क्या-क्या किया जाय, उसे वैसे ही कैसे रखा जा सकता है। ख़ैर बात नाम को लेकर के थी। यहां मुख्य समस्या इलाहाबादी के नाम से से है। अब चूंकि इलाहाबाद का नाम इलाहाबाद से बदलकर प्रयागराज हो गया है इसलिए अकबर इलाहाबादी कहने से एक प्रकार से संवैधानिक संकट से आ जाता है और यदि इलाबाद की जगह प्रयागराजी कहता हूं तो बाप- दादा के दिये गए नाम को बदलने का पाप लगता है। यह बहुत बड़ा धर्मसंकट है।

यद्यपि परिवर्तन प्रगति का सूचक है और इस नाते नाम मे बदलाव को मैं कई बार स्वीकार कर लेता हूं। पर व्यक्तिगत स्तर पर हर चीज को ले आना हम भारतीयों के स्वभाव में नहीं जैसे हम लोग ईमानदारी, नैतिक आदर्शों औऱ सद्कर्मों को व्यक्तिगत स्तर पर नहीं लेते। ये सब श्रीराम शर्मा जी के प्रेरक वाक्यों की तरह दीवारों पर ही ज्यादा अच्छे लगते हैं या फिर श्लोकों की तरह किसी धार्मिक अनुष्ठान,पर्व के अवसर पर उच्चारित किये जाने जैसे। चुनाव चूंकि लोकतांत्रिक पर्व है इसलिए यहां भी इन सदवाक्यों के उच्चारित किये जाने की अघोषित अनुमति रहती है। वैसे भी अभी तक चूंकि व्यक्तिगत स्तर पर नाम बदले जाने की अधिसूचना जारी नहीं हुई है इसलिए यथास्थिति कायम रखते हुए उनके असली नाम से ही उनका यह शेर दे रहा हूं, आंनद लीजिए……….

💐”आपस में अदावत कुछ भी नहीं, लेकिन इक अखाड़ा कायम है।
जब इससे फ़लक का दिल बहले, हम लोग तमाशा क्यों न करें।”💐
(अकबर इलाहाबादी)

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