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जीवन में नैतिकता का आंचल तो शायद हमने वहीं छोड़ दिया था, जहां पर हमें ‘अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ के आश्वासन की अनुगूंज सुनाई पड़ी ।
बात पुरानी है मगर सुनकर कष्ट उतना ही होता है, जैसे किसी ने अभी-अभी हमारे परिवार के पितृ-पुरुष का अनादर कर दिया हो। काकोरी कांड के ऐतिहासिक महानायक श्री रामकृष्ण खत्री की अन्त्येष्टि में किसी भी वरिष्ठ राजनेता ने वहां जाने की कर्तव्य-परायणता नहीं दिखाई थी और अब तो औपचारिकता की भी विवशता नहीं रहीं। कितनी कृतघ्न हो चली है भारतीय राजनीति। जिन लोगों ने स्वतन्त्रता की खातिर राष्ट्र-यज्ञ में अपना सब कुछ होम कर दिया, उन क्रांतिकारियों को आज सम्मान तो दूर पाठ्यक्रमों में आतंकवादी कहा जाता है।
एक बार राष्ट्र-पुत्र श्री खत्री जी राष्ट्रीय-पर्व पर राज्यपाल के आमंत्रण पर [जहां तक मेरी जानकारी है] राजभवन गए थे, पर विचित्र एवं दुखद स्थिति वहां पर तब आ गई, जब राजभवन के द्वार पर ही एक वरिष्ठ अधिकारी ने इन्हें अंदर जाने से रोक दिया ।
इस लज्जास्पद व्यवहार से न जाने कितने देशभक्तों के हृदय व्यथित हुए होंगे, अनुमान कर लेना कठिन नहीं। कौन जाने स्वाभिमानी खत्री जी उस समय इन्हीं पंक्तियों को दुहरा बैठे हों…
”वक्त गुलशन पे पड़ा, तो लहू हमने दिया,
बहार आई तो कहते हैं कि तेरा काम नहीं।।”
स्वतंत्रता के बाद यदि बटुकेश्वर दत्त जैसे बड़े क्रांतिकारी को अपनी आजीविका चलाने के लिये एक सिगरेट कम्पनी में एजेंट बनकर दर-दर भटकना पड़े और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की मां और बहन को भुखमरी की स्थिति में अपना जीवन गुजारना पड़े, तो सोच लीजिये हम नैतिकता और जिम्मेदारी के किस पावदान पर खड़े हैं।
इतना सब होते हुए भी हास्यास्पद स्थिति तब आती है, जब कभी-कभी सशस्त्र क्रांति के संवाहकों को सफलता और विफलता के मापदंडों से तोला जाता है। उन्हें शायद यह सूक्ति नहीं मालूम कि प्रयास की पूर्णता आत्मोसर्ग में है सफलता में नहीं।
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