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यह हमने कैसा समाज रच डाला

socailesue
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बीस मार्च की रात उत्तर प्रदेश की जनपद फैजाबाद के गांव नरायनपुर में मानवीय संवेदनाओं के झकझोर देने वाली एक हृदय विदारक घटना घटी। जिसके तहत गंाव की सत्तर साल की वृद्धा अयोध्यादेई ने आत्मदाह कर जान दे दी। बताया गया है कि अयोध्यादेई के पांच बेटे हैं जिनमें से एक मंदबुद्धि है पर चार का अपना-अपना कारोबार है,लेकिन चारो में बूढ़ी मॉ को भोजन देने पर विवाद चल रहा था। भोजन देने को लेकर चारो बेटों ने तय किया था कि वह एक-एक माह माँ को भोजन देंगे। लेकिन पिछले तीन दिनों से अयोध्यादेई तथा उसके मंदबुद्धि बेटे को किसी ने भोजन नहीं दिया। आखिर तीन दिन बाद भूख से तड़पने के बाद अयोध्यादेई ने बीस मार्च की रात आत्मदाह कर लिया। जरा सोचिए जिस क्षण अयोध्यादेई ने आत्मदाह किया होगा उस समय उसकी मनोदशा क्या रही होगी। उसकी आँखों के सामने से जिन्दगी का इतना लम्बा सफर सिनेमा की रील की तरह घूम गया होगा। उसने सोचा होगा कि मैंने बेटों से क्या-क्या उम्मीदें लगा रखी थीं। लेकिन उन्होंने मुझे इस तरह से नाउम्मीद कर दिया। उसके मन में यह भी ख्याल आया होगा कि शायद मेरी परवरिश में कोई कमी रह गई होगी। जिसका बेटों ने यह सिला दिया। यह घटना तो सिर्फ उदाहरण भर है पता नहीं देश में रोज ही न जाने अध्योध्यादेई जैसी कितनी अभागी माँए अपने बेटों द्वारा भूखी रखी जाती होंगीं। खैर,जो भी हो यहां सवाल यह है कि यह हमने कैसा समाज रच डाला। जहां परिवार में बुजुर्गों को हासिये पर धकेल दिया गया है । नई पीढ़ी के लिए परिवार सिर्फ पत्नी और बच्चों तक ही सीमित रह गया है। इस समाज में रहने वालों की मानवीय संवेदनाएं शून्य होती सी नजर आ रही हैं। रिश्ते-नातों का कोई मोल नहीं रह गया। यह सही है कि परिवार चलाने के लिए पैसे की जरूरत होती है लेकिन यह कहॉ तक उचित है कि पैसे के फेर में पड़कर रिश्ते-नातों की बलि चढ़ा दी जाए। यह माना कि पैसे से भौतिक सुविधाएं खरीदी जा सकती हैं। लेकिन व्यवहार,आत्मनीयता तथा मानसिक शान्ति कदापि नहीं खरीदी जा सकती है। इसलिए हमें यह समझना ही होगा कि पैसा कमाना परिवार का सर्वोपरि कार्य नहीं है परिवार का सांस्कृतिक और भावनात्मक विकास तथा उसका दायित्व बोध एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है। पैसा परिवार चलाने का साधन हो सकता है लकिन साध्य नहीं। मैं यह नहीं कहता कि आप धन कमाना बंद कर दें। आप खूब धन कमाएं लेकिन उस भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को भी सहेज कर रखिये जिनका मान सारी दुनिया करती है। इसलिए हमें बुजुर्गों का आदर सम्मान करना सीखना होगा। सिर्फ सम्मान ही नहीं उनकी खुशी के लिए अपनी खुशियों का गला घोंटना होगा। जब ऐसे आदर्श हम अपने बच्चों के सामने प्रस्तुत करेंगे तो वह भी हमारी राह चलेंगे। वह समाज से दूर नहीं भागेंगे। बच्चों को ज्ञान -विज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की शिक्षा देने की भी जरूरत है। उन्हें मनुष्यता के गुणों से परिपूर्ण कर सामाजिक बनाने की आवश्यकता है। जब हमारे बच्चे मनुष्यता के गुणों से परिपूर्ण होंगे तो सच मान लो फिर को अयोध्यादेई भूख से नहीं तड़पेगी और न ही आत्मदाह करने की कोशिश करेगी।

लेखक
संजीव कुमार गंगवार
शिक्षक / पत्रकार

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