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तीन वर्ष पूर्व तमिलनाडु के एक जिले के जिलाधिकारी आनन्द कुमार ने जब अपनी बेटी का दाखिला सरकारी स्कूल में कराया था। तब देश में एक हलचल सी मच गई थी। विद्यालय की शिक्षिका ने जिलाधिकारी से कहा था कि आप अपनी बेटी का दाखिला इस सरकारी स्कूल में क्यों करा रहे हैं ? तब उन्होंने गर्व से कहा था कि मैं भी ऐसे ही सरकारी स्कूल का छात्र रहा हूॅ। जिलाधिकारी के इस फैसले का देश के आम आदमी ने काफी स्वागत किया था। लोगांे ने कहा था कि काश! पूरे देश के अधिकारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिल कराते। ताकि सरकारी स्कूल अपना खोया गौरव हासिल कर पाते। लेकिन यह हो न सका। इधर,अभी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि सभी राजनेताओं,अफसरों तथा सरकारी कर्मचारियों को अपने बच्चांे को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य होना चाहिए। न्यायालय के इस आदेश का आम जनता द्वारा सराहना की गई। कुछ राजनीति दलों के नेताओं ने भी इसका स्वागत किया। लेकिन सार्वजनिक मंचों से समय-समय पर प्राथमिक शिक्षा की दशा को सुधारने की वकालत करने वाले तमाम राजनेताओं,अफसरों,एवं सरकारी कर्मचारियों को न्यायालय का यह फैसला रास नहीं आया। समझ नहीं आता कि एक ओर तो यह लोग शिक्षा के स्तर में लगातार आ रही गिरावट को रोकने एवं प्राथमिक विद्यालयांे में अधिक से अधिक छात्रों का नामांकन कराने के लिए शिक्षकों को डांटते-फटकारते रहे हैं। वहीं दूसरी ओर जब उत्तरदायित्व निभाने की खुद की बारी आती है तो अपने कदम पीछे खींच लेते हैं। इस तरह यह कहना गलत न होगा कि ऐसे लोगांे की कारस्तानी के चलते पूरे देश में समान शिक्षा प्रणाली लागू न हो सकी। जिसकी लोग लम्बे समय से मांग करते चले आ रहे हैं।इसके अलावा देश में निजी स्कूलों की बाढ़ सी आ गई। खैर,जो भी हो अब देखना यह है कि कितने अधिकारी,राजनेता तथा सरकारी कर्मचारी तमिलनाडु के जिलाधिकारी की तरह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिल कराकर आदर्श प्रस्तुत करते हैं। सच मान लो यदि राजनेताओं ,अफसरों एवं कर्मचारियों ने न्यायालय के फैसले पर अमन करना शुरू कर दिया तो सरकारी स्कूलांे की दशा में क्रान्तिकारी बदलाव दिखाई देना शुरू हो जायेगा। साथ ही दोहरी शिक्षानीति स्वतःसमाप्त हो जायेगी। शिक्षक लगन के साथ शिक्षण कार्य करेंगे। क्योंकि उन्हें हमेशा भय बना रहेगा कि कब कौन अधिकारी या नेता स्कूल में निरीक्षण करने के लिए आ धमकेगा। साथ ही राजनेता व अधिकारी सरकारी स्कूलांे के प्रति सहानभूति रखेंगे। क्योंकि उनके बच्चे भी इनमें पढ़ रहे होंगे। सो वह स्कूलों के लिए पब्लिक स्कूलों की तरह आवश्यक संसाधनों को जुटाने का प्रयास करेंगे। तब सरकारी स्कूलों की ओर बच्चों को आकर्षित करने के लिए मुफ्त ड्रेस तथा मिड-डे-मील आदि बांटने की जरूरत भी नहीं रह जायेगी। अभिभावक खुद व खुद अपने बच्चों को सरकारी स्कूलांे में दाखिल कराने को उत्सुक रहेंगे। यह देखना कितना सुखद होगा जब सरकारी स्कूलों में कृष्ण-सुदामा साथ-साथ पढ़ते दिखाई देंगे।
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