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सर्वोच्च न्यायालय ने यदि यह फैसला दिया है कि जो लोग गम्भीर अपराधों के आरोप में फंसे हैं या जो किसी अदालत से अपराधी साबित हो चुके हैं अथवा सलाखों के पीछे हैं,वे चुनाव में खड़े नहीं हो सकते तो आज के सन्दर्भों में कुछ भी गलत नहीं है। क्योंकि आज के राजनीतिज्ञों ने इस कदर कानून का मजाक अपना ईमान बना लिया है कि निचली अदालतों से अपराधी घोषित होने के बाद भी वे उच्च अदालतों में अपील दायर करके कहते रहते हैं कि वे दोषी तब तक नहीं हो सकते जब तक सर्वोच्च न्यायालय उन्हें अपराधी घोषित न कर दे। राजनीति के अपराधी करण पर अंकुश लगाने की दिशा में सर्वोच्च न्यायालय के इस ऐतिहासिक फैसले से राजनीतिक दलों की घबराहट बढ़ गई है। सो वे एक जुट हो गये। दरअसल उनकी यह एकजुटता लोकतन्त्र को बचाने की नहीं,बल्कि स्वयं को बचाने के लिए है। नेताओं ने यह तर्क देते हुए किसी संसद सर्वोच्च है,सर्र्वाेच्च न्यायालय के फैसले के प्रति असहमति जतायी। यह सही है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संसद की सर्वोच्चता तो रहती ही है। लेकिन यह मतलब नहीं है कि न्याय पालिका का कोई महत्व नहीं है। संसद की सर्वोच्चता के प्रति किसी की असहमति नहीं हो सकती लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि संसद में बैठने वाले लोग कैसे हैं? क्या भारत के लोगों की अपेक्षा कभी भी यह रही कि संसद में अपराधी और भ्रष्टïाचारी बैठें? बस यहीं पर न्यायपालिका की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि हमारे संसदीय लोकतन्त्र में देश में कानून के शासन का साम्राज्य देखना न्यायपालिका की पहली जिम्मेदारी है। वह कानून तो नहीं बना सकती लेकिन जो कानून हैं उनका अनुपालन पूरी पवित्रता से होने की गारन्टी लेती है। शायद यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को भी अवैध करार दे सकता है, क्योंकि कभी-कभी भारतीय संविधान के मूल प्रारूप और ढंाचे के विपरीत होते हैं। खैर, जो भी हो यदि संसद में बैठने वालों का चरित्र तथा नीयत आदि ठीक रहती तो फिर सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा कोई फैसला देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि संसद और विधानमंडलों में दागी और आपराधिक छवि के लोगों की भरमार है। कुछ गम्भीर अपराधों के आरोपी हैं तो वही दोषी भी करार दिये गये हैं। ऐसे में सर्वाेच्च न्यायालय ने इनको सदस्यता से अयोग्य घोषित करने अथवा इनके चुनाव लडऩे पर प्रतिबंध का जो फैसला सुनाया है,वह पूरी तरह से न्यायसंगत और स्वस्थ लोकतन्त्र के हित में है। राजनीतिक दल सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से क्यों असहमत हैं यह बात किसी से छिपी नहीं है। सभी दल बाहुबलियों और धनवलियों के सहारे चुनाव जीतने के आदी हो चुके हैं। इसलिए वे कानून में संसोधन करने को एक जुट हो गये हैं। इसी तरह केन्द्र सरकार सूचना के अधिकार कानून में भी संसोधन करने जा रही है। ताकि राजनीतिक दल इसके दायरे से बाहर हो जाएं। कितने आश्चर्य की बात है कि जिस सरकार ने भ्रष्टïाचार पर अंकुश लगाने और पारिदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए सूचना का अधिकार कानून दिया है,वह राजनीतिक दलों के भ्रष्टï आचरण पर पर्दा डालने के लिए इस महत्वपूर्ण कानून में संसोधन करने को उतावले नजर आ रही है। यहां यह समझना कठिन है कि जिस कानून को जनता के लिए वरदान बताया जाता है, वह राजनीतिक दलों के लिए अभिशाप कैसे बन गया। खैर,जो हो सो हो कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि राजनीतिक दल राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने को राजी नहीं हैं। इसके लिए उन्हें चाहे जो बहाना तलाशना पड़े। अब देखना यह है कि जनता राजनीतिक दलों को किस तरह से चुनाव में सबक सिखाती है।
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