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मुश्किल

Maa
Maa
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आज ही वो दिन था जब मेरे माँ बाबू जी की पच्चीसवीं सालगिरह थी….और मैं सब से छिप -छिपाकर माँ बाबू जी के पच्चीसवीं सालगिरह को यादगार बनाने में लगी हुई थी….अपनी पॉकेट मनी बचाते हुए…अपने भाई से बचते हुए…कई मुश्किलों को पार करते हुए पहुंच गई अपने पड़ोस के एक सजावट की दुकान में जहाँ आस-पास हर तरह की चीज़े मिल जाती थी जैसे मिठाइयां,कपड़े,सब्जियां….ऐसे ही छोटे -मोटे सारे सामन, अच्छे और किफायती दाम में मिल जाते…
मुझे नहीं पता था की आज मेरा पंगा एक नए मुशीबत से होने वाला है…ऐसे ही मैं बचपन से ही अपने घर में “बबाली” के नाम से प्रसिद्ध थी….और होऊं भी क्यों ना अपने साथ हमेशा नई नई मुशीबत जो ले आती थी…बचपन से ही आते जाते पंगे होते रहते थे..जैसे स्कूल में झगड़ा वो भी लड़को से .,,अपने शिक्षक को परेशान करने में आगे,,,दूसरों का लंच छुपा देना…ये सब तो स्कूल की बाते हुई…जैसे जैसे बड़ी हुई…मेरी शिकायतें और भी बढती गई….
कॉलेज के वक़्त कुछ खास शैतानी नहीं की मैंने,,मैं जो बड़ी हो गई थी…लेकिन ना जाने क्यों लोगो को मुझसे बहुत प्रोबलम थी क्योंकि मेरे फ्रेंड लड़के हुआ करते थे..
अक्सर लोग सोचते थे ये लड़की बिगड़ी हुई…लेकिन कोई बोलता नहीं था क्योंकि मैं बचपन से ही पढाई में अब्बल थी…जिसके कारण हमारे शिक्षक को भी इसमें ऐतराज़ होते हुए भी कोई ऐतराज नहीं थी….
धीरे-धीरे समय के साथ मुझे समझौता करना पड़ा..कब तक ऐसे मन- मौजी वाले काम करती…धीरे धीरे सारे फ्रेंड्स भी बिछड़ गये…अब सिर्फ बची थी मेरी बेस्ट फ्रेंड मेरी बचपन की दोस्त “अंजलि” कभी भी कोई भी मुशीबत आये पहुंच जाती थी मैं उसके पास…बिना कुछ कहे मुझे वो समझ जाती थी सिर्फ एक वही थी जिससे मेरे किसी काम से ऐतराज नहीं था…अगर होता भी तो वो मुझे काम करने से रोकती नहीं बस उस काम करने के तारीखे के रुख को बदल देती…उससे पता था मैं गलत कभी कर ही नहीं सकती,,और ना ही किसी को अपनी वजह से दुखी…
मुशीबत से मुझे याद आया वो मुशीबत जो मेरे माँ बाबू जी के सालगिरह पर आई थी….मैं बस सारे सामन जल्दी से जल्दी खरीदने में लगी हुई थी की अचानक से मेरी नजर पड़ी एक बाजू वाले दुकान में खड़े लड़के पर ….जो मुझे करीब ५-१० मिनट से टकटकी लगा कर देख रहा था….अब आप सोच रहे होंगे मुझे कैसे पता क्योंकि उसे नजरअंदाज करते हुए मुझे ३ से ४ बार हो गए थे ….
बस होना क्या था…मैं पहुँच गई उसके पास…..अचानक से मुझे पास में देख घबड़ा सा गया वो…अब देखो,और “जब मन भर जाये तो बता देना” बस इतना ही बोल था, मैंने की उसने कहना शुरू कर दिया अरे नहीं नहीं मैं तो बस,,,मैं तो बस…इतने में मैंने कहा-इससे आगे भी आप बोलेंगे कुछ..वैसे भी मैं लेट हो रही हुँ,,
मैं तो बस ये बोल रहा था की आपकी शक्ल जानी पहचनी लगती है…वही याद कर रहा था कहाँ देखा है…आपको या आपकी जैसी कोई लड़की….
वो अपनी बेतुकी बाते शुरू करते हुए आगे बढ़ता उससे पहले ही मैंने कहा आप जैसे सूट-बूट पहने लोगों पर ऐसी फिजूल बाते करना शोभा नहीं पाती..आजमाएगा अपनी चाल किसी और पर…कोई मुझे फालतू घुरे मुझे पसंद नहीं…बस यही कहते हुए मैं वहां से पलट कर ४ से ५ कदम बढ़ी थी की….राजू काका जो उस जगह के चौकीदार थे उन्होंने कहा-अरे सोना बिटिया यहाँ कैसे…कोई बात हो गई क्या???? मैं तो बस कट कर वहां से भागना चाहती थी…की कही मेरी चोरी पकड़ी न जाये…और मेरे घर वाले खुश होने से ज्यादा मुझसे नाराज न हो जाये…
राजू काका मुझे बहुत अच्छे से जानते थे क्योंकि अक्सर वो हमारे घर आया करते थे…अपनी चौकीदारी के पैसे का हिस्सा मांगने…वैसे तो हमारे कॉलोनी में ३ से ४ चौकीदार थे लेकिन राजू काका उनमे से सबसे बुजुर्ग और होसियार मंद इंसान थे….कभी कभी बाबू जी के न रहने पर घर के सामान जैसे रासन,सब्जियां,,ले आते थे..तो बाबू जी हमेशा उन्हें महीने का रुपये दे दिया करते थे…और मैं जो उनकी लाडली थी, उन्हें अक्सर चाय जो पिलाया करती थी जब भी वो हमारे घर आते थे….
घर वालो को खुश करने के चक्कर में मैं बस उस दिन उन्हें नमस्ते बोल कर वहाँ से जाने लगी…तो उन्होंने रोकते हुए कहा- क्या हुआ तुझे, नाराज है क्या, मैंने भी बस मुस्कुराते हुए उन्हें कह दिया नहीं तो काका..तोड़े घर में काम पड़े हुए हैं इसलिए मुझे जल्दी जाना है..आप आज शाम में आ जाना हमारे घर..बाबू जी को आपसे कुछ जरुरी काम है…
तभी काका ने हस्ते हुए कहा–देख तो सही, हमारे शहर के ये नए स्टेशन मास्टर है..रेलवे में नौकरी करते है….तुझे भी इनसे काम पड़ सकती है….सुना है तू भी तो पढाई करके इंजीनियर बनेगी…बोल रहे थे तेरे बाबू जी मुझसे…बिटिया की भी कहीं अच्छी जगह नौकरी लग जाये तो बस उसकी भी शादी कर दूंगा…
बस काका की इन सब बातो को सुन कर मैंने हाँ-हाँ तो कर दिया. लेकिन मुझे डर सा लग रहा था की कहीं घर पर बाबू जी न आ गए हो वरना मैं तो गई..
हिम्मत करते हुए मैं घर पहुंच गई बालकनी के खिडक़ी से झांकते हुए बालकनी में पड़े चेयर को देखा बाबू जी नहीं थे…बस फट से मैं अपने कमरे में पहुंची…
मेरे आते ही माँ शुरू हो गई कहाँ रहती है ये लड़की, कोई खबर नहीं रहता इसका,,इधर -उधर में ही इसका मन लगा रहता है…रुक आज बाबू जी को बताती हुँ..तेरी सारी शैतानी की खबर लेंगे तब तुझे पता चलेगा…..
माँ तो माँ होती हैं…बाबू जी,मेरे पहुंचने के आधे घंटे बाद आये.फिर मैंने माँ का रसोइये में हाथ बटाया …और सब खाना खा ही रहे थे की माँ ने बाबू जी से मेरी शिकायत करनी शुरू ही की थी कि बाबू जी ने कहाँ- अरे बच्चे है, शैतानी तो करेंगे ही….बस होना क्या था माँ भी चुप…और मैं मन ही मन खुश हो गई…शायद माँ को आहट हो गई थी की ये लड़की कुछ तो छुपा रही है..इसलिए उन्होंने आज बाबू जी को कुछ नहीं बोला..
बाबू जी भी हमेशा की तरह लंच करके चले गए अपने ऑफिस के आधे समय को पूरा करने….और मैं लग गई अपने माँ – बाबू जी की सालगिरह को यादगार बनाने में…मेरा भाई छोटा था पर मैंने उसे भी चॉक्लेट देकर अपनी तरफ कर लिया था..शाम होते- होते मैने पूरी तैयारियाँ कर ली थी और मैंने अपने भाई की मदद से आस -पास के सभी पड़ोसियों को निमंत्रण दे दिया था….अब सारे पड़ोसियों के आने का समय भी हो ही रहा था…उससे पहले मैंने माँ को मंदिर जाने के बहाने अच्छे से तैयार किया…आज बाबू जी भी ऑफिस से थोड़े जल्दी आ गए थे….लग रहा था जैसे वो भी हमे कोई सरप्राइज देने वाले थे…माँ ने बाबू जी को भी मंदिर जाने के बहाने तैयार होने को बोल दिया इस तरह से हम सब एक दम से तैयार हो गए…और मैंने सरप्राइज के सारी तैयारियाँ अपने कमरे में की थी जो की गेस्ट रूम के पास में ही थी…शर्मा अंकल और ऑन्टी के आने के साथ धीरे-धीरे सब आने लगे….आते ही सबने माँ-बाबू जी को बधाइयां देनी शुरू कर दी…
माँ- बाबू जी बधाइयां लेने के साथ साथ मुझे पलट कर देखने लगे…और मैंने बस मुस्कुरा दिया..माँ ने गले लगाया और बाबू जी ने मुझे मिठाइयां,,समोसे सौंपते हुए कहा -“सोना -बिटिया जा सबके लिया चाय-पानी का बन्दोवस कर दे..और किसी चीज़ की भी जरूरत हो मुझे बताना मैं राजू काका को बोल दूंगा”…,,सबके साथ हमने राजू काका की भी खातिरदारी की,सबका सेवा सत्कार करते हुए करीब शाम के ७ बज गए…सब माँ बाबू जी को बधाइयां देते हुए अपने घर को प्रस्थान कर गए..उसके बाद हमने मंदिर के भी दर्शन किये…मंदिर के दर्शन करते हुए उस दिन सबकुछ बहुत ही अच्छे से गुज़र गया…और माँ-बाबू जी ने मुझे और मेरे भाई को खुशी -ख़ुशी धन्यवाद भी कहा….बस तोड़ी सी मुझे उस दिन फ़िक्र हो रही थी…क्योंकि पच्चीसवीं सालगिरह आने से पहले बाबू जी माँ को एक गले का हार देने वाले थे जिसका उन्होंने आधे पैसे दे रखे थे और बस सालगिरह वाले दिन नहीं ला पाए क्योंकि उन्हें उम्मीद थी की तनख्वाह मिल जाएगी, तब लेते आऊंगा और वो इस बार समय से नहीं मिली..बाबू जी मेरे, एक टेक्सटाइल की निजी कंपनी में काम करते थे..
और ये सब बाते मैंने सुन ली थी जब माँ, पिता जी बोल रही थी की कोई बात नहीं..अभी बहुत सारे घर के काम बचे है,जैसे बच्चे अभी पढ़ रहे हैं, अभी सोना की भी शादी करनी हैं..बस अच्छे से उसकी नौकरी लग जाये, और ये घर भी तो अपने नाम करानी है ..बस आप मेरे साथ है..मुझे गहने की जरुरत नहीं…
उस वक़्त मैंने भी मन ही मन ठान लिया,नौकरी तो लेकर ही रहूंगी मैं…चाहे कुछ भी हो जाये..माँ और बाबू जी कि सारी परेशानी भी दूर करुँगी…
हर रोज की तरह एक नया सबेरा हुआ..हर लोग अपने काम में हमेशा की तरह व्यस्त…उस वक़्त मेरी परीक्षा की तैयारी करने की छुट्टी मिली थी..उसी बीच मैं माँ के साथ घर की देख रख,,कभी छोटे भाई को पढ़ाना, पिता जी का ख्याल रखना ,कभी बाजार से घर के घटे-बढ़े सामान ले आना और इसी दौरान उस स्टेशन मास्टर से भी बाजार में कभी कभी मुलाकात भी हो जाती थी..बस एक चीज़ थी जो अक्सर वो आस पास के बच्चों और नौजवानों को – कहा करता था, नौकरी मिलना बहुत मुश्किल होता है…बहुत मेहनत करनी पड़ती है,,हर वक़्त आये गए मुसाफिर जो उसे सलाम करते और हाल चाल लेते उन्हें मुफ्त का प्रवचन सुनाता फिरता था और उस वक़्त मैं उसे ओर उसकी बातो को नजरअंदाज करते हुए घर की ओर चली आती..जिधर देखो उस स्टेशन मास्टर की ही चर्चा होती रहती थी,,ऐसा लगता था जैसे सब को रेलवे में ही नौकरी करनी है और यही सबका नौकरी लगवाएगा…और खास करके नवजवान लड़को के माँ- बाबू जी उन्हें प्रोतसाहित करते जा उस स्टेशन मास्टर से मिल आ..उससे सिख कैसे उसे इतनी छोटी उम्र में नौकरी मिली.,इतनी बुरी हालत में नौकरी लेना बहुत बड़ी बात है…इन्ही सब काम में मैं खुद को व्यस्त रखती..और उस स्टेशन मास्टर की तारीफ सुनकर ऊब जाती..आखिर मेरे माँ-बाबू जी भी सरकारी नौकरी करवाना चाहते थे..वो भी रेलवे में…
मैंने बस अपनी अंतिम सेमेस्टर की परीक्षा में अच्छे अंक लेन की होड़ में लग गई…साथ ही साथ जहाँ जहाँ सरकरी नौकरी के फॉर्म, कही प्राइवेट नौकरी की जानकारी मिलती बस लग जाती जानकारी लेने में…पारिवारिक स्तिथि को सुधारने के लिए नौकरी की जानकारी और उसे जल्दी मिलने के लिए न जाने मैंने कितने लोगो से बातें की….लेकिन आजकल के दौर में कौन किसी का साथ देता हैं..सब खुद से परेशान और सबकुछ होते हुई भी अपनी लाचारी व्यक्त करने लगते हैं…
मैं बस एक दिन यु ही अपने कमरे में अकेले बैठी थी…माँ को शयद उस दिन अहसास हो गया की मैं किसी बात को लेकर तो परेशान हुँ…बस उन्होंने सोचा पढाई को लेकर परेशान है..इसलिए उन्होंने समझते हुए कहा ठीक हो जायेगा,सब समय के साथ..परेशान न हो मैं हुँ ना..कोई और बात है तो मुझे बता..
मैं नहीं चाहती थी की माँ बाबू जी परिवार की जिम्मेदारी सँभालते, घर के खर्चे, किराए इस तरह की कई सारी समस्या के साथ मुझे लेकर परेशान हो जाये..
ये सब सोचते हुए मैंने माँ को कहा- माँ बस परीक्षा की चिंता हो रही थी..कुछ ऐसी बात नहीं है…आप परेशान न हो बस सब जल्दी ही ठीक हो जायेगा…यह कहते हुए मैंने बातो को टाल दिया…अचानक से मुझे उस दिन वो लड़का याद आया जो मुझे खरीदारी के वक़्त घुर रहा था..शयद याद ह मुझे की राजू काका के कहने की मुताबिक वो यहाँ का स्टेशन मास्टर है….बस इतना की सोचा था मैंने की बिना सोचे समझे पागलो की तरह पहुंच गई राजू काका के पास..पहुंचते ही मैंने उनसे पूछा काका – कहाँ मिलेगा वो स्टेशन मास्टर..
काका ने कहा बिटिया उसका घर कहा है ये तो पता नहीं लेकिन अक्सर उसे उस स्टेशन वाले चाय के दुकान के पास देखा है.. पर लेकिन सोना तू इतनी परेशान क्यों है…काका की इस बात को मैंने नजरअंदाज करते हुए कहा- अरे नहीं नहीं काका वो बस ट्रैन रिजर्वेशन की जानकारी लेनी है…
बिना विलम्ब किये पहुंच गई मैं उस चाये वाले दुकान के पास…देखा तो वहाँ बस दुकान का मालिक और २- ४ लोग चाय की चुस्कियां ले रहे थे.. लेकिन सिर्फ वही नहीं था जिसे मेरी नजर ढूंढ रही थी…थोड़े देर इंतज़ार करने के बाद जब मैंने देखा की दुकान के आस- पास के लोग चले गए फ़ौरन मैंने उस दुकान के मालिक जो एक बुजुर्ग काका थे उनसे उस स्टेशन मास्टर के बारे में पूछ ही डाला…काका यह एक नौजवान लड़का आता है..थोड़ा बन ठन कर…वो अक्सर यह चाय पिने आता है…दुकान वाले ने कहा बिटिया लेकिन यहाँ तो बहुत सारे लोग आते है…तू किसकी बात कर रही है….मैं बहुत उदास हो गई जब काका ने कहा बहुत सारे लोग,,उस वक़्त मैं बस यही सोच रही थी इससे अच्छा तो कॉलेज था कभी भी किसी से बात कर लो और यहाँ तो एक से मिलने के लिए वो भी किसी जरुरी मकशद से हजार मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है ..मैं छोटे शहर में रहने के कारण वहाँ के आस-पास के माहौल की वजह से उस स्टेशन मास्टर के बारे में पूछने में हिचकिचा रही थी..आखिर मैं एक लड़की थी…कोई भी यही सोचेगा ये लड़की, जो अकेली है ..उस नये स्टेशन मास्टर के बारे में….
मैंने बदनामी को नजरअंदाज करते हुई दुकान वाले से पूछा स्टेशन मास्टर कहाँ मिलेगा काका…उनकी शंका को दूर करते हुई मुझे मेरी तलाश की दूसरी सीढ़ी मिल गई…मैंने आज सोचा न था की जिसे मैं नजरअंदाज करती थी,,,जो लड़का मुझे एक रत्ती नहीं सुहाता था उससे आज खुद मिलने जा रही हुँ,,.और वो भी सिर्फ ये पूछने की उसे ये नौकरी कैसे मिली..,,वैसे ही जैसे सब उससे पूछते है और वो सब को मुश्कुरा कर मुफ्त का प्रवचन सुनाता है..जिससे मैं एक नंबर का फेकू समझती हुँ उससे मिलने जा रही हुँ आज वो भी इतनी गर्मी में …हजारो तरह के सवालों के साथ मैं बस उसे ढूंढ रही थी..
न जाने कैसा विश्वास था…जो मुझे उस जाने पहचाने से अजनबी की ओर खींच रहा था…उस वक़्त मुझे नौकरी से ज्यादा एक ऐसे इंसान की जरुरत थी जो मुझे समझे..और मुझे एक नई दिशा दिखाए….मुझे नहीं पता था की मैं सही कर रही हुँ की गलत,,बस मुझे शायद उस वक़्त उसकी जरूरत थी….और शायद इस बार उससे मिलकर मैं यही कहने वाली थी की हम एक जाने पहचने अजनबी है और हाँ- मैं तो बस ये बोल रही हुँ की शायद मैंने आपको उसी बाजार में देखा है जहाँ आपको मेरी शक्ल उस वक़्त जानी पहचनी लग रही थी …जब आप याद कर रहे थे की मुझे कहाँ देखा है…मैं या मेरी जैसी कोई लड़की….
यही सब सोचते हुए वापिस आकर मैं उसी चाय वाले दुकान के पास आ गई…थक के चूर हो चुकी थी मैं…और निराशा के साथ घर जाने के बारे में सोच ही रही थी…मान ही मान खुद को कोष रही थी की आखिर बेवजह क्यों आ गई इतनी गर्मी में,,माँ भी सोच रही होंगी कहाँ गई मैं…इस बार तो कोई बहाना भी नहीं बनाया घर पर…मुझे तो बस यही लग रहा था की मैं सही हुँ….लेकिन अब नहीं…परेशान होकर..अपने करियर के बारे में सोचते हुए आँखे बंद कर वही कुर्शी पर बैठ गई..तभी लगा किसी ने आवाज लगाई “मैडम” पानी…मुझे लगा उस दूकान वाले ने कहा- मैंने भी बस बिना देखे कहा जी काका,,धन्यवाद..
पानी के पैसे देकर बस जाने के लिए उठी ही थी मैं, की किसी के फिर से कहने की आवाज आई –सुना है काका कोई मुझे ढूंढ था…शायद बहुत परेशान हुआ होगा वो मैं जो अपने ऑफिस में नहीं था…बस मैंने देखा तो वही लड़का जो राजू काका के समझ से वहां का स्टेशन मास्टर था…मेरे सामने खड़ा था…और मेरी ओर देखते हुए कहा–
शायद मैंने आपको कही देखा है…वो आगे कुछ बोलता उससे पहले ही मैंने कहा- शायद मैंने आपको उसी बाजार में देखा है जहाँ आपको मेरी शक्ल उस वक़्त जानी पहचनी लग रही थी और शायद अब भी …जब आप याद कर रहे थे की मुझे कहाँ देखा है…मैं या मेरी जैसी कोई लड़की…
********यही ज़िन्दगी के अनमोल से पल है***********
***********कभी कभी अपने पराये और**************
***********पराये अपने से लगने लगते हैं*************

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