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जीवन में कई बार ऐसे अवसर आते है जब व्यक्ति काफी खिन्न ,दुखी और परेशान महसूस करता है। खासकर जब उसकी आलोचना निंदा होती है। तो वह और भी ज्यादा परेशान दुःखी हो जाता है। हर व्यक्ति वह चाहे अच्छा हो या बुरा उसे अपनी कमिया नहीं दिखाई देती है। व्यक्ति कभी भी अपने स्वभाव को नहीं बल्कि इन सारी बातो में परिस्तिथियों को ही जिम्मेदार ठहराता है। व्यक्ति का अहंकार इतना प्रबल होता है कि वह उसके आगे न सिर्फ अपनी त्रुटियों /कमियों को स्वीकार करता है और न ही दूसरो को ऐसा करने देता है। यदि इसमें कोई दोष देखता है और बताता है तो यह उसके लिए असहनीय होता है। और भ इसका बिरोध करता है। जबकि निंदा-आलोचना प्रसंशा का ही दूसरा रूप है क्योकि जो जितना प्रसंषित और चर्चित होता है उसी की उतनी ही निंदा-आलोचना भी होती है। इसलिए यदि निंदा -आलोचना को रचनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो जीवन में उत्कर्ष की संभावना बड़ जाती है। क्योकि जो कमिया स्वं नहीं दिखती उसे दूसरा व्यक्ति अनुभव कर बता सकता है। जिसको समय रहते सुधारा जा सकता है। इसीलिए कहा गया हे ” निंदक नियरे राखिये , आँगन कुटी छवाय !” वही कभी कभी निंदा-आलोचना दुराग्रह वश भी की जाती है। इस सबसे घबड़ाने की जरुरत नहीं है और न ही रुष्ट होने ,प्रतिकार लेने की बल्कि इसे सहज भाव से लेने की जरुरत है। ऐसा करने से अपने दुर्गुणों /कमियों को दूर करने मौका मिलता है जिसका उपयोग उत्कर्ष एवं आत्म-परिष्कार के लिए किया जा सकता है। ऐसा दृष्टिकोण विकसित किया जाना चाहिए जिसके प्रकाश में दोष दुर्गुण ढूढे जा सके साथ ही वह सहनशीलता विकसित की जानी चाहिए जो निंदा-आलोचना को सह सके।
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