Parchhai
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कुछ मोती हैं इन आंंखों में,
जो बहते है सब रातों में
न थकते है न रुकते हैं,
दिल के दर्द से उठते हैं
कीमत कोई इनकी न जाने,
जिस पर बीते वही पहचाने
बिखर गया है जीवन सारा
जैसे अमावस का अंंधियारा
कब तक यूंं ही बैठे रहेंगे,
जुल्म दुनिया के सहते रहेंगे!
अब तो उठ कर चलना होगा,
खुद पर विश्वास करना होगा!
नासूर जो जख्म बन गया,
उन जख्मोंं को भरना होगा!
जिन कांंटों ने मुझे रुलाया,
उन्हें कुचल कर चलना होगा!
फिर ये अंधेरा छंट जाएगा,
सवेरा एक नया आएगा!
मोती ये सिमट जाएंगे,
खुशियों में ये बस आएगें!
ये सोच कर हंसी आएगी,
आंंखों में न नमी आएगी,
कुछ मोती थे इन आंंखों में,
जो बहते थे सब रातों में!
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं, इससे संस्थान का कोई लेना-देना नहीं है।
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