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कश्मीर त्रासदी के जिम्मेदार हम

India 21st Century
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पिछले बर्ष उत्तराखण्ड के त्रासदी का दर्द अभी हम भुल भी नही पाये थे कि कश्मीर मे जल प्रलय ने एक बार फिर हमारे बैज्ञानिकों, सरकारों और समाज को सोचने पर विवश कर दिया कि आखिर इस प्रकार की आपदाओं से कैसे बचा जाय ? और कौन है इसका जिम्मेादार ? जिस प्रकार हम लगातार विकास के लिये प्रकृति का दोहन कर रहे है, प्रकृति से छेड़छाड़ कर रहे है, जबाब मे प्रकृति भी हमें लगातार सचेत कर रही एवं चेतावनी दे रही है । अब हमें गंभीरता से विचार करना होगा कि प्रर्यावरण और प्रकृति की अनदेखी कर हम कैसा विकास चाहतें है ? जलवायु परिवर्तन भारत ही नही समूचे विश्व के लिये लगातार चिन्ता का कारण बनता जा रहा है लेकिन हम आधुनिकता के नाम पर उतने ही गैर जिम्मेदार होते जा रहे है, इसलिये मानवता के अस्तित्वे के इस पर गंभीर चिन्तन की आवश्‍यकता है ।

कश्‍मीर के विभिन्न हिस्सों में भीषण वर्षा और बाढ़ से मची भयानक तबाही ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है । लाखों लोग बेघर हो गये है, कितने बच्चे अनाथ और बेसहारा हो गये है, सेना, वायु सेना, एनडीआरएफ की टीमें लगातार राहत-बचाव के काम में लगी हुई हैं । अब तक आपदा में करीब 200 लोगों से अधिक की मौत हो चुकी है । जबकि 65 हजार से ज्यादा लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाया गया है । लेकिन बावजूद इसके कितनी जन-धन की छति हुयी है इसका अंदाजा लगाना कठिन है ।
यह प्राकृतिक आपदा नहीं है, बल्कि अंधाधुंध विकास के नाम पर प्रकृति के साथ किए गए अत्याचार का प्रतिकार है । आसमान से गिरती बारिश की बूंदें ऊपर से नीचे पहुंचने तक कहर बरपाने लगी हैं। शासन व्यवस्था ने प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन का मापदंड ही बदल दिया है । कश्मीेर और हिमालय के सुदूर क्षेत्रों में तीर्थाटन के स्थान पर पर्यटन और इको-टूरिज्म विकसित हुआ है । यह भी विकास और विनाश की सरकारी अवधारणाओं के सापेक्ष ही है । तपस्या और मौज-मस्ती के बीच जमीन-असमान का फर्क होता है । क्या ऐसी स्थिति में कश्मीर में त्रासदी को प्राकृतिक आपदा कहा जा सकता है? क्या सरकारी तंत्र में सेवारत विशेषज्ञ वनस्पतिविहीन होने का परिणाम नहीं जानते थे? विकास के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों को साफ किया गया, विस्फोटकों का बेतहाशा इस्तेमाल कर पहाड़ काटे गए, लंबी सुरंगें बनाई गई हैं । प्रकृति की सुंदर वादियों में चौड़ी सड़क निर्माण करने के लिए बारूद का इस्तेमाल किया गया । अभी हाल मे ही मोदी सरकार ने औद्योगिकरण को बढ़ावा देने के लिये प्रर्यावरण के कानुनों और नियमों मे ढ़ील दी है और इसके लिये आनलाईन प्रणाली भी विकसीत की है । इसी सरकार के कार्यकाल मे ही सैकड़ों परियोजनाओं को बिना पर्यावरणीय अध्ययन के मंजुरी दे दिया गया । वहीं सरकार एक और खतरनाक कदम उठाने जा रही है कि इस प्रकार की परियोजनाओं और पर्यावरणीय पहलुओं पर विचार करने और रोकथाम लगाने वाली संस्था नेशनल ग्रीन ट्रिव्यूपनल का अधिकार कम करके उसे एक परामर्शदात्री संस्था के रूप परिवर्तित करने पर विचार कर रही है ।
आज जो कुछ भी हो रहा है वह पूरी तरह मानव निर्मित आपदा ही है । समय रहते न चेतने पर इसके और भी भयंकर परिणाम होंगे । इसे प्रकृति का कहर कहकर सरकारें भी पल्ला झाड़ती रही हैं । यह स्वार्थ, लालच और भ्रष्टाचार के बोये बीज की उपज है । इसे समाज और सरकार को सहजता से स्वीकार कर भविष्य में उन दोषों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए । समाज और सरकार के लिए यह चेतने और जागने का वक्त है । प्रकृति और उसकी धाराओं के साथ छेड़छाड़ बंद कर सृजन के अविरल और निर्मल मार्ग को अपनाना ही उपयुक्त निदान है ।

लेखक :

सत्य प्रकाश
सामाजिक काय्रकर्ता, मो 9198431217

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