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भटकाव की राह पर भारतीय युवा

India 21st Century
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JNU के नारे, अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर भारत पर दिये गए बयान और डॉक्टर नारंग की निर्मम हत्या इत्यादि सब घटनाओं मे एक बात समान है और वह यह कि इन सभी घटनाओं मे देश का युवा वर्ग शामिल है । हमारा देश जिसमें भारत के युवाओं की संख्या बहुत अधिक है, यहाँ तक कि आज इसे सबसे युवा देश कहा जाता है, कदाचित अपने युवाओं की शक्ति को सकारात्मक कार्यों मे लगाने मे असफल रहा है । संयुक्त राष्ट्र के 2014 के आंकड़ों के अनुसार 15 से 24 वर्ष के 37 करोड़ युवा हैं । आइये इस युवा वर्ग पर दोष मढ़ने से पहले आज के युवा को समझने का प्रयास करते हैं ।
आज का युवा अपने आज की सोच के अनुसार चार वर्गों में बाँट गया है । इसमे पहला तबका उस युवा वर्ग का है जो अत्याधिक सम्पन्न वर्ग का है । इस युवा वर्ग ने जीवन में संघर्ष नहीं देखा है और यह युवा शहरों की छका चौंध में रह रहा है । इसके पास किसी संसाधन की कमी नहीं है । इसलिए इस वर्ग को देश से देश में होने वाली घटनाओं से कुछ फर्क नहीं पड़ता । एक सम्पन्न परिवार का युवा जिसकी आगे की पीढ़ी भी अपने को सुरक्षित महसूस करती है ।

दूसरा तबका उस युवा का है जो उच्च मध्यम वर्ग का है जो आज अपनी शिक्षा के बल पर उड़ना चाहता है । उसे परिवार से यही सीखने को मिल रहा है कि चार किताबें पढ़ कर अपने career को बनाओ, यह युवा अपनी सारी ऊर्जा केवल अपने स्वार्थ या उज्जवल भविष्य के लिए लगा देता है । यदि कभी भूले भटके उसका विचार देश या समाज की तरफ जाने लगता है तो घर परिवार और समाज उसे सब भूल कर अपने भविष्य के बारे में सोचने पर मजबूर कर देता है । यह वर्ग भी अपने आप को देश और समाज से अलग ही अनुभव या यूं कहें की अपने आपको को समाज से श्रेष्ठ समझने लगता है और सामाजिक विषमता का होना उसके अहम को पुष्ट करता है । यही समाज देश के उच्च अधिकारीगणों का वर्ग बनता है । इसी लिए सरकारी योजनाएँ बनाते हुए यह धरातल पर नहीं उतर पाता है, इसी कारण अधिकांश सरकारी नीतियाँ समाज की विषमता को बढ़ाने का ही काम करती हैं ।

उसके बाद वह युवा वर्ग है जो भारत के मध्यम वर्ग का है जिसका आज उद्देश्य केवल कमा कर रोज़ी रोटी से अधिक नहीं है । उसके जीवन की कमियाँ उसे नए नए ख्वाब देती है, साथ ही दूसरे सम्पन्न परिवारों को देख कर कभी उत्साह और कभी हताशा का भाव उसके मन में आता है। सम्पन्न बनने के लिए वह पढ़ना चाहता हैं । जिन लोगों मे काबिलियत है वह तो अच्छे विश्वविद्यालय मे चले जाते है बाकी को निजी कॉलेज मे मोटे पैसे खर्च कर के पढ़ना पड़ता है । घर परिवार अपनी क्षमता से अधिक धन खर्च करके बच्चों को पढ़ाते हैं । उनका और उनके परिवार के युवाओं को पढ़ते हुए लगता है की अब आगे का जीवन सुरक्षित होगा और सफल होगा । अब जब यह युवक पढ़ कर बाहर की दुनिया मे कदम रखने की तयारी मेहोता है तो सभी सपने टूटने लगते है क्योंकि सच अलग ही दिखता है । आप कल्पना करें की भारत जैसे देश की आवश्यकता 1 लाख इंजीनियर की है परन्तु इस देश मे प्रति वर्ष 15 लाख इंजीनियर बनते हैं । अब बाकी के 14 लाख इंजीनियर जो लगभग 10-14 लाख खर्च करके नौकरी के बाज़ार में आते हैं तो स्पष्ट होता है कि वह ठगे गए हैं । देश का लगभग 1.4 लाख से 2 लाख करोड़ रुपये व्यर्थ में मात्र कुछ निजी संस्थानो को मिल जाता है और उससे भी महत्वपूर्ण है कि वह युवा अपने आपको निकम्मा और नकारा समझने लगता हैं । ऐसी ही स्थिति हर प्रकार के अध्ययन क्षेत्र मे है। इस युवा वर्ग की हताशा देश का दुर्भाग्य है क्योंकि न तो इस वर्ग मे हम उत्साह भर सके न ही समाज के प्रति संवेदनशीलता । एक प्रकार से यह वर्ग विद्रोही हो जाता है समाज के प्रति, परिवार के प्रति और अंत में राष्ट्र के प्रति ।

और अंतिम वर्ग है जो समाज का आज का आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग है जिसके पास आज मूलभूत साधनों का भी अभाव है। यह वर्ग या तो अपनी पढ़ाई के दौर में पहुंचता ही नहीं है या फिर आज की पढ़ाई के अनुसार कुछ विशेष क्षमता नहीं रखता । उनमे शायद कुछ विशेष क्षमताएं हों परंतु हमारे तथाकथित अध्ययन के स्तर पर उनका आंकलन न होने के कारण वह समाज के अंतिम छोर पर खड़ा है । यह वर्ग यदि आज के अध्ययन के स्तर पर कुछ आगे बढ़ पाता है तो या तो उसे विशेष बौद्धिक सम्पदा प्राप्त है या समाज के दूसरे वर्ग से अनुदान के कारण । समस्त सरकारी नीतियाँ उस तक पहुँचती ही नहीं हैं । अब इस समाज का जो हिस्सा शहरीकरण के कारण शहरों मे बस्ता है वह न तो अपने ग्रामीण संस्कार संभाल पता है और न ही शहर में शहरीकरण को । इसमें भी एक प्रकार की कुंठा जन्म लेती है ।

यह जो अंतिम दो वर्ग हैं उनकी संख्या आज 70% से अधिक है । इनका भविष्य इनकी नज़रों में असुरक्षित है । तमाम कोशिशों के बाद भी इक्का दुक्का को ही तथाकथित सफलता मिल पाती है । इस वर्ग को जब भी कोई राजनैतिक दल या सामाजिक संस्था अपने साथ खड़ा नज़र आता है यह उनका हिमायती बन जाता है । कोई इन्हे समाज के नाम पर, कोई इन्हे जाती के नाम पर, कोई धर्म के नाम पर इन्हे बाँट लेता है । यह भी सच है की अधिकांश इस प्रकार के असामाजिक कामों से बचना चाहते है पर उनके पास कोई चारा नहीं हैं । है सब हमारे ही विश्व के युवा । मात्र इन्हे दोष देने से काम नहीं चलेगा । कहीं न कहीं बुद्धिजीवी वर्ग को अपनी ज़िम्मेवारी मान कर इसके निराकरण के विषय में सोचना पड़ेगा । याद रखें की गंगा को दी गयी प्रत्येक गाली गंगोत्री तक जाएगी । इसलिए हमें भी इन युवाओं के लिए सोचना पड़ेगा । हम क्या कर सकते हैं ? सरकार क्या कर सकती है ?

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