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मेरे बचपन की एक कहानी

India 21st Century
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बचपन की अवधारणा जीवन-शैलियों में परिवर्तन और वयस्क अपेक्षाओं के परिवर्तनों के अनुसार विकसित होती और आकार बदलती प्रतीत होती है। कुछ लोगों का मानना है कि बच्चों को कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिए और उन्हें काम करने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; जीवन ख़ुशहाल और परेशानियों से मुक्त रहना चाहिए. आम तौर पर बचपन ख़ुशी, आश्चर्य, चिंता और लचीलेपन का मिश्रण है। आम तौर पर यह संसार में वयस्कों के हस्तक्षेप के बिना, अभिभावकों से अलग रहकर खेलने, सीखने, मेल-मिलाप, खोज करने का समय है। यह वयस्क जिम्मेवारियों से अलग रहते हुए उत्तरदायित्वों के बारे में सीखने का समय है।

शैशवावस्था के बाद प्रारंभिक बचपन आता है और बच्चे के लड़खड़ाते हुए चलने के साथ शुरू होता है, जब बच्चा बोलना और स्वतंत्र रूप से क़दम बढाने लगता है। जहां शैशवावस्था तीन साल की उम्र में समाप्त होती है जब बच्चा बुनियादी ज़रूरतों के लिए अपने माता-पिता पर कम निर्भर रहने लगता है, प्रारंभिक बचपन सात से आठ साल की उम्र तक चलता है। नन्हे बच्चों की शिक्षा के लिए राष्ट्रीय संगठन के अनुसार, प्रारंभिक बचपन की अवधि जन्म से आठ की उम्र तक होती है। मध्य बचपन लगभग सात या आठ की उम्र से शुरु होता है, जो अनुमानतः प्राथमिक स्कूल की उम्र है और लगभग यौवन काल पर समाप्त होता है, जो किशोरावस्था की शुरुआत है। किशोरावस्था, या बचपन की अंतिम अवस्था, यौवन की दशा से शुरू होती है। किशोरावस्था का अंत और वयस्कता की शुरूआत में देशवार तथा क्रियावार भिन्नता है और एक ही देश-राज्य या संस्कृति के भीतर अलग-अलग उम्र होती है जिसके व्यक्ति को इतना परिपक्व माना जाता है कि समाज द्वारा किन्हीं कार्यों को सौपा जा सके ।
हम बचपन में अपने दोस्‍तों के साथ खेलना पसंद करते थे लेकिन परिवार के लोग खेलने के बजाय हमें पढ़ने पर ज्‍यादा जोर देते थे, हम अपने बचपन में गॉवों में टेलीविजन खुब देखते थे और रात को चोरी से घर से निकल जाते थे बाद में जब पिता जी को पता चलता था तो खुब डॉट पड़ती थी । बचपन में बच्‍चे परिपक्‍व नही होते उन्‍हे सही मार्गदर्शन और प्रेरणा की आवश्‍यकता होती जो शायद हमें अपने बचपन में नही मिली । बच्‍चों को सही मार्गदर्शन और प्रेरणा देने की जिम्‍मेदारी सर्वप्रथम माता पिता फिर समाज और सरकार की होती है कि उसे अच्‍छी शिक्षा और संस्‍कार मिले जिससे वो भविष्‍य में देश और समाज के लिये कार्य कर सके ।
मै अब सोचता हुॅ कि मेरा बचपन वही बचपन फिर से वापस आ जाय, वहीं आनन्‍द, दोस्‍तों के साथ घुमना, खेलना, बात बात में आपस में झगड़ा करना । बचपन मनुष्‍य के जीवन का एक पवित्र पल है जिसमें वह स्‍वार्थमुक्‍त, कपटमुक्‍त होता है लेकिन धिरे धिरे उसके जीवन के साथ उसके गुण और दोष भी बदल जातें हैं । बचपन का मेरा जिद करने, जिद को पाने के लिये संघर्ष करना एक अलग ही आनन्‍द का प्रतिक होता है, मेला घुमने के दौरान खिलौने के लिये जिद करना, नये चिजों के बारें में जानने की लालसा बचपन को और रोचक बना देती है ।

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