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पेरिस जलवायु सम्मलेन और भारत की भूमिका

India 21st Century
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने साथ मिलकर पेरिस में अन्तरराष्ट्रीय सौर गठबन्धन का शुभारम्भ किया और विकसित व विकासशील देशों को साथ लाने वाली इस पहल के लिये भारत की ओर से तीन करोड़ डालर की सहायता का वादा किया। मोदी ने कहा कि भारत कम कार्बन छोड़ने की हर कोशिश कर रहा है, विकसित देशों को बड़ी जिम्मेदारी लेनी होगी। पेरिस के जलवायु सम्मेलन में कई देशों ने ज्यादा कार्बन छोड़ने वाले देशों पर टैक्स लगाने की माँग की। जलवायु सम्मेलन में सौ देशों ने मिलकर सोलर अलायंस बनाया व सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये 180 करोड़ रुपए की राशि देने का भी एलान किया। साथ ही 2030 तक 35 फीसदी कार्बन उत्सर्जन कटौती की बात कही। कार्बन उत्सर्जन भारत के लिये बड़ी समस्या है।

देश में ग्लेशियर पानी का बड़ा स्रोत है। इन्हें बचाने के लिये न केवल हिमालय, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के प्रयास करने होंगे। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस मुद्दे को गम्भीरता से लिये जाने पर बल देना होगा। क्योंकि इस लापरवाही से समुद्र का जलस्तर बढ़ने से समुद्र तटीय क्षेत्रों के और कुछ द्वीपों के समुद्र में डूब जाने का भी खतरा पैदा होने वाला है। ग्लेशियर यदि 2050 तक खत्म हो गए, जैसा कि अन्देशा पैदा हो गया है, तो सदानीरा नदियाँ बरसाती बन कर रह जाएँगी। कार्बन उत्सर्जन के मुद्दे पर विश्व उत्तरी विकसित देशों और दक्षिणी विकासशील देशों के दो खेमों में बँट गया है।

विकसित देश चाहते हैं कि अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को नियंत्रित किये बिना विकासशील देशों में वनीकरण द्वारा कार्बन का स्तर कम करने के लिये आर्थिक मदद देकर अपनी ज़िम्मेदारी से छुटकारा पा लिया जाये। अमेरिका तो इस मामले में बिल्कुल अड़ियल रुख अपना लेता है। उसकी कोशिश रहती है कि तेज गति से बढ़ रही भारत और चीन की अर्थव्यवस्था को ताजा नुकसान का दोषी ठहराने पर जोर दिया जाये। विकासशील देशों का तर्क है कि हमारे यहाँ आपके मुकाबले ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन, जिसे कार्बन पदचिह्न भी कहा जाता है, बहुत कम है।

अत: अभी हमें कार्बन पदचिह्न बनाने की छूट दी जानी चाहिए, ताकि हम मानव विकास सूचकांक में बहुत जरूरी विकास की स्थिति में पहुँच सकें। इस तर्क में भी बल है, लेकिन अन्त में तो पृथ्वी की धारण क्षमता का सवाल महत्त्वपूर्ण है। जलवायु परिवर्तन का सामना करने के दो ही तरीके हैं। पहला है निम्नीकरण यानी जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लगातार कम करते जाना और एक सीमा से आगे न बढ़ने देना।

इसके तहत हमें बिजली उत्पादन के क्षेत्र में और तमाम ऊर्जा ज़रूरतों की आपूर्ति के स्वच्छ तरीकों को अपनाना पड़ेगा। इसके लिये सौर व पवन ऊर्जा जैसे विकल्पों की ओर कदम बढ़ाए जा सकते हैं। प्राकृतिक तेल और कोयले से ऊर्जा को हतोत्साहित करना पड़ेगा। बड़े बाँधों से मीथेन गैस निकलती है। अत: जल विद्युत उत्पादन की हाइड्रोकाइनेटिक और वोरेटेक्स जैसी बेहतर तकनीकों को अपनाना पड़ेगा।

खेतीबाड़ी के कार्य में रसायनों की बढ़ती घुसपैठ से पर्यावरणीय तंत्र पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। ऐसे में जैविक खेती के प्रोत्साहन के लिये भी प्रयास करने होंगे। जैविक कृषि से मिट्टी में जैविक पदार्थ जितना ज्यादा बढ़ता है, उतना ही कार्बन तत्त्व मिट्टी में समाता जाता है। इससे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन की मात्रा कम होती जाती है। रासायनिक कृषि इससे उल्टी भूमिका निभाती है। जैविक-वैज्ञानिक कृषि ने रासायनिक कृषि को पछाड़ने की क्षमता सिद्ध कर दी है। वायुमंडल में जलाया जाने वाला कचरा व गोबर को सड़ाने की पारम्परिक विधियों से कचरा जलाने से कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमंडल में जाती है और गोबर की मीथेन गैस भी वायुमंडल में जाकर ग्रीन हाउस गैसों का स्तर बढ़ाती है।

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