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भारत में जल संकट की पड़ताल

India 21st Century
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आज भारत के लगभग 10 राज्‍यों में पानी की भारी कमी हो गयी है, महाराष्‍ट के लातूर और बीड़ में तो स्थिति भयावह हो चुकी है । कई शहरों में पानी को लेकर धारा 144 लागु कर दी गई है । अन्‍य राज्‍यों कर हालत भी बहुत अच्‍छी नही है, रेगीस्‍तानी इलाके तो हमेशा से ही पानी की समस्‍या से जुझते रहें हैं लेकिन अब मैदानी भागों में भी पानी की समस्‍या विकट रूप ले रही है । उत्‍त्‍र प्रदेश के बुन्‍देलखण्‍ड में हालात बहुत ही खराब हो चुके है, राज्‍य और केन्‍द्र सरकार योजना बना रही है कि कैसे इस संकट से निजात मिले लेकिन यह समस्‍या समाज की उदासीनता के कारण पैदा हुआ है इसलिये इसका हल भी समाज को ही निकालना पड़ेगा, सरकार केवल एक माध्‍यम हो सकती है । 24 अप्रैल, 2016 को बुन्‍देलखण्‍ड के ही महोबा में समाज के कुछ जागरूक लोग इस समस्‍या के निस्‍तारण के लिये पहल करने के बारे में बैठक कर रहें है, इस बैठक में जल पुरूष राजेन्‍द्र सिंह भी भाग ले रहें है, मुझे भी इस बैठक में आमंत्रित किया गया है । इसके पीछे कारण क्‍या है आईये इस पर विचार करें ।

देश के अधिकांश राज्‍यों में पानी का संरक्षण करने की कोई योजना दिखाई नही दे रही है, न तो समाज, न ही सरकार की तरफ से कोई पहल दिखाई देती है । उत्‍तर प्रदेश सरकार ने पानी के संरक्षण को लेकर कई योजना चला रही है लेकिन यह सभी योजनाये केवल कागजों तक ही सीमित होकर रह जाती हैं । भारत सरकार के मनरेगा में भी जल संरक्षण को लेकर अनेक प्रावधान हैं लेकिन प्रत्‍येक पंचायत तो इसके जरिये भ्रष्‍टाचार का अड्डा बन चुका है । अगर इन येाजनाओं और कानुनों का सही से पालन हो रहा होता तो शायद यह स्थिति देखने को नही मिलती । कुछ समय पहले इंडिया टुडे में उत्‍तर प्रदेश के तालाब, पाखरों को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसका सर्वेक्षण पानी कार्यकर्ता अनुपम मिश्र ने की थी, उसमें कहा गया था कि उत्‍तर प्रदेश के लगभग आधे से अधिक तालाब, पोखरे या जलाशय या तो समाप्‍त हो चुके है या समाप्‍त होने के कागार पर है । इन जलस्रातों पर भूमाफियाओं का कब्‍जा हो चुका है । सरकार मूक दर्शक बनकर इन पूरी कहानी में शामिल है । मैने उत्‍तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में गॉवों का सर्वे किया जिसमें पाया कि लगभग 70 प्रतिशत जलस्रोत मर चुके है और बाकि बचे जलस्रोत गॉव और शहरों के कुड़ेदान बन चुके है । ऐसी दशा में इस प्रकार का दृश्‍य होना लाजमी है, यह कोई प्राकृतिक आपदा या संकट नही है यह मावन द्वारा जनित समस्‍या है जिसे पूरे समाज को चाहे अनचाहे भोगना होगा ।

युवा बर्ग को इन समस्‍याओं से कोई सरोकार नही है, उन्‍हे नौकरी की तलाश है और वे शहरों की चकाचौंध की जिन्‍दगी में मस्‍त हैं । कुछ गिने चुने पानी के कार्यकर्ता या सामाजिक संगठन आवाज उठातें है, चिन्‍ता जाहिर करतें है लेकिन उनकी आवाज कोई सुनने वाला नही है । यह बात समझ में नही आती आखिर हमारा समाज या सरकारें चाहती क्‍या है ।

मै एक कहानी उत्‍तर प्रदेश के ग्रामीण कृषि क्षेत्रों की बता रहा हॅु जिसे सोचकर शरीर कॉप जाता है । कहानी है किसानों की और पानी के बर्बादी की । गॉवों में किसान जमीन को छेदकर बोर करतें है और शुद्ध पेयजल के स्‍तर से पानी को निकाल कर अपने खेतों की सिंचाई कर रहें है, एक तो पेयजल वैसे ही कम मात्रा में उपलब्‍ध है उपर से कृषि से लेकर पशुओं के नहलाने, घरेलु कामकाज आदि सभी कार्यो में जमीन के निचे सं‍रक्षित पेयजल का इस्‍तेमाल किया जा रहा है । इस समस्‍या को लेकर कोई कभी आवाज नही उठाता है कि सिंचाई के लिये पेयजल का इतने व्‍यापक पैमाने पर इस्‍तेमाल हो रहा है । हम संरक्षित ग्राउण्‍ड वाटर को भी निकाल कर गन्‍दा कर रहे है और मेरे अपने के अनुभव के आधार पर विगत 10 बर्षो में पेयजल के स्‍तर में लगभग 30 मीटर गिरावट हुई है, अगर यही हाल रहा तो अगले 10 या 20 बर्षो में पेयजल की कीमत डीजल से भी अधिक हो जायेगी और जीवन का अन्‍त करीब होगा ।

एक बातचीत में मदन मोहन मालवीय प्रौद्यागिकी विश्‍वविद्यालय गोरखपुर के सिविल इंजिनीयरिंग विभाग के प्रो गोविन्‍द पाण्‍डेय ने बताया कि उनके निर्देशन में कुछ एमटेक के छात्रों ने गोरखपुर के आसपास क्षेत्रों में जल की गुणवत्‍ता का अध्‍ययन किया जिसमें पाया गया कि उपरी सतह के जन में वायरस सक्रिय है जबकि भूमिगत जल में वायरस नही है लेकिन आर्सेनिक और फलोराईड की मात्रा मानक से बहुत ज्‍यादा है । उन्‍होने बताया कि यह दोनो रासायनिक पदार्थ आरओं से भी फिल्‍टर नही होते है और हमारे शरीर को नुकसान पहॅुचा रहें है । समस्‍या के इस बात की है अगर हम उपरी सतह का पानी पीतें है तो वायरस का खतरा है एवं नीचले सतह का पीतें है तो इन रासायनिक पदार्थो का खतरा है, आखिर इसका समाधान क्‍या है ।

कुछ इसी प्रकार का हाल पेड़ों का है हम प्रतिदिन जंगलों और बागीचों को काट कर व्‍यवसायिक प्रयोग कर रहें है । मै उत्‍त्‍र प्रदेश के गोरखपुर जनपद का रहने वाला हॅु मैने अपने क्षेत्र के लगभग 50 गॉवों का सर्वे किया और स्‍थानीय लोगों से बात की तो यह परीणाम सामने आया कि विगत दस या बीस बर्षो के अन्‍तराल में ग्रामीण क्षेत्र में लगभग 90 प्रतिशत बागीचों और पेड़ो की कटाई की गयी है । लोग प्राकृतिक संसाधनों को लेकर उदासीन हो गये है, व्‍यक्तिगत स्‍वार्थ में प्राकृतिक संसाधनों का व्‍यापक स्‍तर पर दोहन किया जा रहा है । भारत सरकार का वन मंत्रालय भी प्रत्‍येक बर्ष करोड़ो रूपये खर्च करके वृक्षारोपण करवाता है लेकिन जागरूकता और जबाबदेही के अभाव में कुछ ही पेड़ बच पाते है बाकि या तो सूख जाते हैं या लोग नष्‍ट कर देते है । गोरखपुर जनपद में तीन-चार वन रेंज है लेकिन आये दिन खबर छपती है कि वन माफिया जंगल के पेड़ों को काट रहे है और जंगल में आग लग गई जिससे काफी नुकसान हुआ । जनता को इन समस्‍याओं से कोई लेना देना नही है । आखिर कब तक हम उदासीन बने रहेगें, कबतक सरकार या समाज इन समस्‍याओं के प्रति गंभीर होगा ?

लेखक-

सत्‍य प्रकाश,

सामाजिक कार्यकर्ता

मो; 9198431217

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