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जब हमारा देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ, उस समय सरकारी कर्मचारियों को सेवानिवृति के समय शेष जीवन के निर्वहन के लिए कुछ धन एक मुश्त दे दिया जाता था, जिसे ग्रेचुटी के नाम से जाना जाता था. ताकि वह अपने शेष जीवन के लिए खानपान की व्यवस्था कर सके. परन्तु वह राशी पर्याप्त नहीं होती थी, अक्सर उसके ब्याज से जीवन निर्वाह कर पाना संभव नहीं था. समय के साथ साथ बढती महंगाई के समक्ष तो वह राशि बिलकुल सूक्ष्म राशि के समान हो जाती थी. अतः बिना बच्चों के सहारे जीवन निर्वाह संभव नहीं होता था.जबकि यह कटु सत्य है सभी बुजुर्गों की संतान इस योग्य नहीं हो पति की वह अपने माता पिता का भरण पोषण भी अपनी आजीविका से कर सकें. दूसरी बात यह बात अक्सर देखने में आई थी कुछ स्वार्थी और संवेदन हीन संतान, सेवा निवृत बुजुर्ग से ग्रेचुटी में मिला धन अपने कब्जे में कर लिया करते थे और बुजुर्ग को उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं को भी पूरा करने से वंचित कर दिया करते थे.अतः बुजुर्ग दम्पति का बुढ़ापा कष्ट मय और बेसहारा होकर व्यतीत होता था.
उपरोक्त सभी विसंगतियों को देखते हुए स्वतन्त्रता के पश्चात् स्वदेशी सरकार ने अपने कर्मियों को आजीवन पेंशन देने का प्रावधान किया. ताकि स्वतन्त्र देश के सरकारी कर्मचारी सेवानिव्रत होकर एक सम्मान जनक जीवन निर्वाह कर सके. सरकार की इसी योजना के अंतर्गत सरकार से सेवानिवृत हुए सभी कर्मचारियों को पेंशन दी जाती है. जिसे वेतन आयोग द्वारा समय समय पर संशोधित किया जाता रहा है और कर्मचारी द्वारा सेवानिवृति के पूर्व लिए जा रहे वेतन के अनुपात में पेंशन की रकम निर्धारित की जाती है. परन्तु पेंशन की कोई अधिकतम सीमा अभी तक निर्धारित नहीं की गयी. परिणाम स्वरूप आज सेवा निवृत कर्मचारियों को पेंशन बीस हजार से लेकर साठ हज़ार या उससे भी अधिक दी जाती है, जो वर्तमान में प्रचलित जीवन मूल्यों के अनुसार जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक धन से कहीं अधिक है. जो एक सेवानिवृत कर्मचारी को बिना किसी कार्य के बदले उपलब्ध करायी जाती है और यह पेंशन जनता से बसूले गए टेक्स से दी जाती है,जो जनता की गाढ़ी कमाई से प्राप्त होती है.क्योंकि अधिकतर सरकारी विभाग प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़े होते हैं,जिन विभागों का कार्य जनसेवा ही है.जो विभाग उत्पादन कार्य से जुड़े हैं वे भी अधिकतर घाटे में चलते हैं, और समय समय पर सरकार से प्राप्त धन से उनके खर्चे पूरे होते हैं.अतः ये विभाग भी आत्मनिर्भर नहीं हैं. अतः सभी सरकारी कर्मचारियों की पेशन भी सरकार को टैक्स से प्राप्त राजस्व पर निर्भर होती है,
यदि कर्मचारियों को उसे मात्र भरण पोषण के लिए दी जाने वाली न्यूनतम राशि हो, तब तक तो न्याय संगत लगता है, यानि सरकारी खजाने से कर्मचारियों को भरणपोषण (न्यूनतम आवश्यकताओं ) के लिए धन राशी उपलब्ध करायी जाय. परन्तु जब उनकी सभी आवश्यकताओं और विलासिताओं की आपूर्ती के लिए, देश की गरीब जनता की गाढ़ी कमाई से प्राप्त टेक्स से उपलब्ध करायी जाय तो वह जनता के साथ अन्याय है. जिस आम जनता के लिए मात्र बीस हजार प्रति माह की कमाई के लिए काफी समय, भारी परिश्रम, भारी जोखिम और भारी धनराशी की आवश्यकता होती है, तब कहीं वह प्रति माह इतनी राशी अपने घर के लिए ले जाने लायक हो पाता है.उससे अधिक कमाई के लिए तो उसे उच्च श्रेणी का विद्वान् होना चाहिए अथवा करोडो की धन राशी से चालू किये गए कारोबार का मालिक होना चाहिए.आज के प्रचलित मूल्यों के अनुसार बीस हजार रूपए प्रति माह दो व्यक्तियों के भरण पोषण के लिए पर्याप्त है. यहाँ पर यह भी बताना अनुचित नहीं होगा की यह मान लेना की प्रत्येक बुजुर्ग के पास सेवानिवृति के पश्चात् संतान का कोई सहयोग नहीं मिलेगा,यह सोच बनाना भी सर्वदा उचित नहीं है.कुछ संतान स्वार्थी या संवेदन हीन हो सकती है परन्तु यह सर्वदा सत्य नहीं है, पेंशन की व्यवस्था का उद्देश्य है, की उसे सेवा निवृति के पश्चात् कम से कम भरण पोषण की व्यवस्था सरकार से प्राप्त हो जाय ताकि प्रतिकूल परिस्थितियों में उसे जलालत के दिन न देखने पड़ें.परन्तु नेताओं के स्वार्थ ने पेंशन व्यवस्था को जनता पर बोझ बनाकर रख दिया है और विकास के कार्य के लिए बसूले जाने वाले टेक्स का उपयोग सरकारी कर्मियों की तमाम सुविधाओं के लिए खर्च किया जा रहा है,जिससे देश का विकास अवरुद्ध होता है और कार्यशील जनता के साथ मजाक भी है, समाज के साथ अन्याय भी है. जिसमे कुछ न करने वाले व्यक्ति को मेहनतकश जनता के धन से सर्व सुविधायें जुटाई जाती है.और यदि परिवार में निकम्मी संतान है तो उसे मुफ्त में सब कुछ मिल जाने के कारण वह परिश्रम करने से परहेज करता है और अपने भविष्य को बर्बाद कर लेता है.समाज को अकर्मण्य व्यक्तियों की फौज प्राप्त होती है आम जनता को ईमानदारी और परिश्रम से कमाने की प्ररणा नहीं मिलती.
यह लेख शायद सरकारी कर्मियों और पेंशन भोगियों को कड़वाहट पैदा करे परन्तु यह एक कटु सत्य तथ्य है, जिसे किसी भी न्याय प्रिय, विवेक शील और संवेदन शील व्यक्ति को स्वीकार करना चाहिए.मेरा मकसद किसी के हितों को नुकसान पहुँचाना नहीं है. परन्तु पूरे देश और समाज के सन्दर्भ में विचार किया जाय तो अवश्य ही उपरोक्त तथ्य सार्थक लगेंगे.
जो बुजुर्ग सरकार से अच्छी खासी पेंशन ले रहे हैं उनका व्यव्हार संतान के प्रति आपत्ति जनक होता जाता है कभी कभी तो परिवार में उनकी तानाशाही चलने लगती है.जो संतान पर्याप्त सफलता नहीं पा सके तो वे उनकी उचित अनुचित व्यव्हार को सहने को मजबूर हो सकते हैं, परन्तु जो संतान सामर्थ्यवान होते है उनसे ऐसे बुजुर्गों से सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं, और संतान न चाहते हुए भी अपनी दुनिया अलग बसाने को मजबूर होते हैं.परिणाम स्वरूप परिवारों का बिखराव होता है,परिवार का तारतम्य टूटता है और एक संवेदन शील सुसंस्कृत संतान को बदनामी सहनी पड़ती है.
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