Menu
blogid : 19245 postid : 772326

कांपते ओंठ और बेबस मजदूर….

aahuti
aahuti
  • 8 Posts
  • 19 Comments

saurabh dohare v
कांपते ओंठ और बेबस मजदूर
इनका हाल देखकर मन दर्वित हो उठता है भरी दोपहरी, मैले कपडे और पसीने से भीगे हुए इनके बदन, कितने बेबस, कितने लाचार हैं पेट की आग बुझाने को पानी के घूँट भरते हुए, रोटी की जुगाड़ में दर ब दर भटक रहे है लेकिन सरकार को क्या पड़ी है जो इनकी ओर ध्यान दे !
देशभर में करोड़ों मजदूर ऐसे हैं जिन्होंने कभी ‘सुख की छाँव नहीं देखी, कभी एसी कार व ट्रेन में यात्रा नहीं की बस दूर से ही हवाई जहाज को उड़ते देखा है सुख नामक शब्द इनके शब्दकोश में ही नहीं है तो इन्हें इसका अर्थ कैसे मालूम होगा इनकी हर सुबह अमावस की काली रात है। पीढ़ी दर पीढ़ी मजदूरी करना ही इनका दुर्भाग्य है जो बच्चे जन्म लेते ही ईंट ढोने की खटखट से आनंदित होते हैं और रोते-रोते चुप हो जाते, फिर सो जाते। जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा होता वो अपने पढने की उम्र में बाल मजदूरी करते हैं तो फिर कैसे उनका भविष्य संवर सकता है! वो कहते हैं कि….
“सब कुछ बदला, सत्ता बदली, आई गई सरकार
इन मजदूरों का हाल न बदला और बदल गई सरकार
रोटी छीन के, लाखों के पैकेज के अन्दर हाँथ बना मशीन
क्यों न इन नेताओं की कब्र खोदकर, चलो बनाएं एक नई एक सरकार”
सरकारी कानून कहता है कि बच्चों से मजदूरी कराना जुर्म है। मजदूर दिवस पर होने वाली बैठकों में भी प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री जोरदार भाषण में बाल मजदूरों से काम न लेने की बात कहते हैं। लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाते हैं सच्चाई यही है कि हर दस घर में एक बाल मजदूर काम करता मिल ही जाएगा। फिर वो बच्चे बड़े होकर और क्या बनेंगे जिन्होंने शिक्षा ग्रहण ही नही की!
अब आते हैं हम मुख्य मुद्दे पर जैसे कि मजदूर दिवस की शुरुआत 1886 में शिकागो में उस समय शुरू हुई थी, जब मजदूर मांग कर रहे थे कि काम की अवधि आठ घंटे हो और सप्ताह में एक दिन की छुट्टी हो। इस हड़ताल के दौरान एक अज्ञात व्यक्ति ने बम फोड़ दिया और बाद में पुलिस फायरिंग में कुछ मजदूरों की मौत हो गई, साथ ही कुछ पुलिस अफसर भी मारे गए। इसके बाद 1889 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में जब फ्रेंच क्रांति को याद करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया कि इसको अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाए, उसी वक्त से दुनिया के 80 देशों में मई दिवस को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाने लगा।
हम सबको एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि वे भूखे होते हैं, पर गुनाहों से दूर रहकर अपना और अपने बच्चों का पेट पालते हैं प्यासे होते हैं, पर अपना लहू जलाकर दो समय की जुगाड़ करते हैं वे किसी का लहू नहीं पीते, वे नंगे बदन होते हैं, पर अपना तन ढंकने के लिए किसी दूसरे को नंगा नहीं करते, सबसे आश्चर्यजनक बात कि उनके सिर पर छत नहीं है, पर दूसरों के लिए वे छत बनाते हैं, उनके हालात चाहे जैसे भी हों, लेकिन कड़ी मेहनत करके दो पैसे कमाते हैं पर कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाते हैं जी तोड़ मेहनत करके अपना और अपने परिवार का पेट पाला है धन्य हैं ये लोग, जिन्होंने अगर एक पैसा भी कमाया, तो अपनी मेहनत से कमाया, अगर कई दिन भूखे भी रहे, तो भी कभी अपने ईमान का सौदा नहीं किया ! देखा जाये तो बिहार-उत्तर प्रदेश के मजदूरों को देखकर लगता है कि वे किसी रोग से ग्रसित हैं? वजह साफ है कि मेहनत के बदले इतनी मजदूरी भी नहीं मिलती कि उनका पेट भर सके। झुग्गी-झोपडि़यों में या फिर फुटपाथ पर सोना और दिनभर मजदूरी करना ही उनकी नियति बन गई है गाल पिचके हुए, सूनी आँखें और उन आंखों में कोई सपना नहीं क्योंकि इनकी आंखों से पानी के बदले रोज टपकते हैं बेबसी के आंसूं जिसे हम बेबसी का ‘खून’ भी कह सकते हैं! अगर आज के परिद्रश्य में यदि हम मजदूर दिवस की महत्ता का आंकलन करें तो हम पाएंगे कि इस दिवस की महत्ता पहले से भी कहीं ज्यादा हो गई है लेकिन सिर्फ दिखावे के लिए ये सत्य है कि वैश्विक पटल पर एक बार फिर पूंजीवाद का बोलबाला सिर चढ़कर बोल रहा है। क्योंकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने सदैव गरीब मजदूरों का शोषण किया है, उनके अधिकारों पर कुठाराघात किया है और उन्हें जिन्दगी के उस पेचीदा मोड़ पर पहुंचाया है, जहां वह या तो आत्महत्या करने के लिए विवश होता है, या फिर उसे अपनी नियति को कोसते हुए भूखा-नंगा रहना पड़ता है। वो कहते हैं कि …
“चर्चा हो रही है चरों ओर कि मजदूर दिवस है
इनके सर टोकरी है कि मजदूर दिवस है
पेट में नहीं निवाला कि मजदूर दिवस है
इन लाचारों को कहाँ खबर है कि मजदूर दिवस है”
गौरतलब हो कि ये दिवस’ समाज के उस वर्ग के नाम किया गया है, जिसके कंधों पर सही मायनों में विश्व की उन्नति का दारोमदार है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति एवं राष्ट्रीय हितों की पूर्ति का प्रमुख भार इसी वर्ग के कंधों पर होता है। यह मजदूर वर्ग ही है, जो अपनी हाड़-तोड़ मेहनत के बलबूते पर राष्ट्र के प्रगति चाल को तेजी से घुमाता है, लेकिन कर्म को ही पूजा समझने वाला श्रमिक वर्ग श्रम कल्याण सुविधाओं के लिए आज भी तरस रहा है आज के इस कम्प्यूटर युग में मजदूर को मजदूरी के लाले पडे है। कुछ समय पहले तक बडी-बडी मिले थी, कल कारखाने थे, कल कारखानो एंव औधोगिक इकाईयो में मशीनो का शोर मचा रहता था मजदूर इन मशीनो के शोर में इमानदारी से कार्य करते हुए अपने परिवार का पेट पाल रहा था लेकिन ये सारी मिले कल कारखाने मजदूरो की सूनी आँखों और बुझे चूल्हे की तरह वीरान पडे है इन्हें जगाने वाला कोई नहीं है देखा जाये तो सरकारी, अर्ध सरकारी या इसी तरह के अन्य संस्थानों में कार्य के दौरान दुर्घटनाग्रस्त हुए मजदूरों या उनके आश्रितों को देर सवेर कुछ न कुछ मुआवजा तो मिल ही जाता है, लेकिन इन दिहाड़ी मजदूरों की हालत बेहद दयनीय है क्योंकि इन्हें काम मुश्किल से मिलता है अगर काम के दौरान मजदूर दुर्घटनाग्रस्त हो जाएं तो इन्हें मुआवजा भी नहीं मिल पाता। देश में कितने ही ऐसे परिवार हैं, जिनके कमाऊ सदस्य दुर्घटनाग्रस्त होकर विकलांग हो गए हैं या फिर मौत का शिकार हो चुके हैं, लेकिन उनके आश्रितों को मुआवजे के रूप में एक पैसा तक नसीब नहीं हुआ!
देश का शायद ही ऐसा कोई हिस्सा हो, जहां मजदूरों का खुलेआम शोषण न होता हो। आज भी स्वतंत्र भारत में बंधुआ मजदूरों की बहुत बड़ी तादाद है। कोई एैसे मजदूरों से पूंछ्कर देखे कि उनके लिए देश की आजादी के क्या मायने हैं? जिन्हें अपनी मर्जी से अपना जीवन जीने का ही अधिकार न हो, जो दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी अपने परिवार का पेट भरने में सक्षम न हो पाते हों, उनके लिए क्या आजादी और क्या गुलामी? सबसे बदत्तर स्थिति तो बाल एवं महिला श्रमिकों की है। बच्चों व महिला श्रमिकों का आर्थिक रूप से शोषण होता ही है, उनका शारीरिक रूप से भी जमकर शोषण किया जाता है लेकिन अपना और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए चुपचाप सब कुछ सहते रहना इन बेचारों की जैसे नियति ही बन गई है।
आज भी असंगठित क्षेत्र का मजदूर बारह से सोलह घंटे काम करता है होटलों, प्राइवेट प्रतिष्ठानों, घरों, ईंट भट्टों, दुकानों आदि में इनका भरपूर शोषण हो रहा है सारे देश में लोग मजदूर दिवस मनाते हैं सरकार इस दिन के लिए सवैतनिक अवकाश का निर्देश देती है लेकिन धरातल पर सच्चाई यही है कि मजदूरों को कोई राहत नहीं है मजदूर आज भी मजदूर ही है उसे आज भी सुबह उठकर सबसे पहले अपने बच्चों के खाने के लिए शाम की रोटी की फिक्र होती है !
शिक्षित और जागरूक न होने के कारण इस तबके की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। जब तक मजदूर भला चंगा होता है तो वह जैसे-तैसे मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पाल लेता है, लेकिन कोई दुर्घटना होने पर या बीमार होने पर वो काम करने योग्य नहीं रहता तो उस पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है मुझे ऐसा लगता है कि सरकार को चाहिए कि वह दिहाड़ी मजदूरों को साल के निश्चित दिन रोजगार मुहैया कराए और उनका मुफ्त बीमा करे। साथ ही उनके इलाज का सारा खर्च भी वहन करे। जब तक देश का मजदूर खुशहाल नहीं होगा तब तक देश की खुशहाली की कल्पना करना भी बेमानी है और साथ ही देश मे बढ़ते बाल मजदूरों को रोकने की दिशा मे सरकार और गैर सरकारी क्षेत्रो को सार्थक कारगर ठोस प्रयास करने चाहिए तभी हमारा मजदूर दिवस मनाना सार्थक होगा !
सौरभ दोहरे
विशेष संवाददाता
इण्डियन हेल्पलाइन राष्ट्रीय हिंदी मासिक पत्रिका

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh