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भारत में सहकारिता आंदोलन की जड़ें इसके आध्यात्मिक संस्कारों से जुड़ीं हैं,गीता ‘व्यष्टि’ कर्म की अपेक्षा ‘समिष्टि’कर्म को महत्व देती है,साहचर्य की भावना को वेदिक दर्शन सर्वश्रेष्ठ बताता है…जब आधुनिक संविधान को अपनाया गया तब भी व्यक्तियों के समूह बनें और वो अपनी एक गणतांत्रिक व्यवस्था बना कर अपने आर्थिक और सामाजिक जीवन को सुदृढ़ बना सकें ,इसका विशेष ध्यान रखा गया…सहकारिता को एक आंदोलन के रूप में स्वीकार किया गया….गांधी के दर्शन के मूल में भी सहकारिता है…अपनी पहली पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में वो एक ऐसे आत्मनिर्भर भारतीय समाज की कल्पना करते हैं जहां हाशिये पर बैठे लोग भी,एक दूसरे का हाथ पकड़ एक दूसरे को सहारा दे सकें ,आत्मनिर्भर समूह की रचना कर सकें.
रिजर्व बैंक में में बैठे अमेरिका रिटर्न अर्थशास्त्री शायद भारत की समाजवादी संरचना से अनजान हैं….तभी सहकारी समितियों के मार्फ़त गठित सहकारी बैंको को मौत का फरमान सुना दिया है…नोटबंदि की आड़ में सहकारी आंदोलन का खात्मा ….जिन बैंकों से ग्रामीण जनता अपना काम चलाती है अगर वो जमा और निकासी नहीं कर पाएंगे तो जायेंगें कहाँ?रिजर्व बैंक के लिए विदेशी कंपनियों द्वारा संचालित बैंक तो स्वीकार हैं लेकिन शत प्रतिशत भारतीय बैंक नहीं…गड़बड़िया हैं तो उनका इलाज भी है ,गलतियां तो सबसे ज्यादा स्टेट बैंक ने कीं और सजा सहकारी बैंकों को?अगर उनको केरेंसि नही जारी होगी या नाम मात्र की होगी तो जाहिर है असंतोष होगा ग्रामीण जनता के आक्रोश को सहने की ताकत राज्य में भी नही है,बल्कि कालेधन के खिलाफ नायक बने मोदी जी भी रातों-रात ‘खलनायक’ बन जायेंगें…खासकर तब जब आवाजें भाजपा से उठेंगी,गुजरात से उठेंगी…अमूल से उठेंगीं.
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