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नेताजी – जिन्दा या मुर्दा १९. प्रश्न ८. १९६१ में पश्चिम बंगाल के जिला कूच बिहार के शौल्मारी आश्रम के स्वामी शारदानंद नेताजी नहीं तो कौन थे ?

Dharm & religion; Vigyan & Adhyatm; Astrology; Social research
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सन १९६० में पश्चिम बंगाल के जिला कूच बिहार में एक आश्रम की स्थापना हुई – शौल्मारी आश्रम | इस आश्रम के स्वामी थे- स्वामी शारदानंद |

29 सितम्बर 1961 को एक शिक्षक श्री राधेश्याम जायसवाल पत्र लिखकर नेहरूजी को सूचित करते हैं कि सिलहट के पास शौलमारी आश्रम के साधू की गतिविधियाँ सन्देहास्पद हैं। वे चैन-स्मोकर हैं, आयातित सिगरेट पीते हैं; रूसी, चीनी, जर्मन इत्यादि भाषाओं के जानकार हैं; और उनके आश्रम के आस-पास ऐसी अफवाह है कि वे नेताजी हैं। श्री जायसवाल को सन्देह था कि आश्रम में कोई विदेशी षड्यंत्र चल रहा है। (चैन-स्मोकर अर्थात लगातार सिगरेट पीने वाले। नेताजी भी ऐसे सिगरेट का शौक रखते थे, यह उनके एक छायाचित्र से पता चलता है।)

आश्रम के साधू हैं- स्वामी शारदानन्द। (नेताजी के लालन-पालन में माँ के अलावे जिन महिला का हाथ रहा है, उनका नाम ‘शारदा’ था।) साल-डेढ़ साल पहले कूच बिहार जिले (पश्चिम बंगाल) के फालाकाटा में उन्होंने शौलमारी आश्रम की स्थापना की है। गुप्तचर विभाग वाले आश्रम की गतिविधियों की जाँच करते हैं और अपनी रिपोर्ट में कहते हैं कि वहाँ कुछ गलत नहीं है। दिल्ली के ‘वीर अर्जुन’ दैनिक में खबर छपती है। इन स्वामी जी के बारे में पुरे भारत भर में हल्ला मचता है कि उक्त स्वामी जी नेताजी ही हैं |नेताजी के भक्त और आजाद हिन्द फौज वाले आश्रम पहुँचने लगते हैं। फौजी जब बाहर आते हैं, तब उनके होंठ सिले होते हैं। सिर्फ एक मेजर सत्यप्रकाश गुप्ता १९६१ में आश्रम जाते हैं और कोलकाता में (फरवरी’ 62 में) प्रेस कॉन्फ्रेन्स कर घोषणा करते हैं कि शारदानन्द नेताजी हैं। (१९३९ में त्रिपुरी अधिवेशन के समय जबकि कांग्रेसी पिठू नेतागण नेताजी के बीमारी को एक राजनितिक स्टंट बता रहे थे, मेजर सत्यप्रकाश गुप्ता दिनरात नेताजी की सेवा में लगे थे | ये आजाद हिंद फौज में होमफ्रंट के इंचार्ज थे | ) मेजर ने वक्तव्य दिया – There is no mistake in identifying my master and there is no doubt that Shoulmari sadhuji is Netaji . Existance of the Sun and the man may be questioned but my meeting with Netajee is beyond all doubts. ( Netaji is coming, Page 15, Samiran ghosh)

इस बीच श्री उत्तम चन्द मल्होत्रा को भी 30-31 जुलाई 1962 को शारदानन्द से मिलने की अनुमति मिलती है और मिलने के बाद वे दावा करते हैं कि उन्होंने पहचान लिया है- आश्रम के सन्यासी ‘शारदानन्द’ और कोई नहीं, बल्कि नेताजी हैं! उत्तम चन्द मल्होत्रा वे व्यक्ति हैं, जिनके साथ एक ही कमरे में नेताजी ने 46 दिन बिताये थे- काबुल में, जब वे (नेताजी) “जियाउद्दीन” का भेष धारण कर यूरोप जाने का प्रयास कर रहे थे और दूसरी तरफ ब्रिटिश जासूस उनकी जान के पीछे पड़े थे।

27 मई 1964 के दिन स्वामी शारदानन्द नेहरूजी की अन्तिम यात्रा में शामिल होने दिल्ली आते हैं। नेहरूजी के पार्थिव शरीर के पास खड़े मुद्रा में उनकी तस्वीर मुम्बई से प्रकाशित होने वाले दमदार साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ में छप जाती है। (क्या आपको नहीं लगता कि बंगाल का एक साधारण सन्यासी भला नेहरूजी का अन्तिम दर्शन क्यों करना चाहेगा? जरूर वह सन्यासी कुछ असाधारण है।) तस्वीर छपने के बाद से स्वामी शारदानन्द को आठ महीनों के लिए ‘अज्ञात’ होना पड़ता है। (क्या गुप्तचर विभाग के निर्देश से?) इसके बाद भी लगभग आठ वर्षों तक वे देशाटन पर ही रहते हैं और प्रकाश में नहीं आते।
जनमानस उस तस्वीर को भूलने लगता है।

1972 में उन्हें सरकार देहरादून और मसूरी के बीच राजपुरा में एक कोठी (नं-194) और जमीन (कहते हैं कि 100 एकड़) मुहैया कराती है। उनकी उम्र 76 वर्ष हो चली है, भटकने की उम्र अब नहीं रही। सरकार (देखा जाय तो गुप्तचर विभाग; गुप्तचर विभाग का एक अधिकारी उनके साथ ही है।) भी महसूस करती है कि अब वे ज्यादा नहीं जीयेंगे। अब वे सफेद दाढ़ी रखने लगे हैं। (क्या यह भी गुप्तचर विभाग का निर्देश है?) उन्हें कोठी श्रीमती नयनतारा सहगल की कोठी के पास दिया जाता है। नयनतारा सहगल बेटी हैं श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित की। स्वामी जी को कोठी दिलाने में जरूर उन्होंने ही मदद की है। आप सोचेंगे क्यों? क्योंकि नेताजी की बेटी अनिता बोस जब 18 वर्ष की उम्र में पहली बार भारत आयी थी (1960 में), तब दिल्ली में 5 दिनों के लिए श्रीमती नयनतारा सहगल ने ही उन्हें अपने घर में रखा था अर्थात् नेताजी के साथ उनका एक तरह से पारिवारिक रिश्ता पहले से ही है। यहाँ स्वामी जी शान्ति से अपना जीवन गुजारते हैं। लोगों से उनकी बात-चीत नहीं के बराबर है। उनके पास कोई सामान नहीं है। फर्नीचर के नाम पर सिर्फ एक कुर्सी है।

श्री अजमेर सिंह रन्धावा के एक संस्मरण का जिक्र करना यहाँ प्रासंगिक होगा। स्वामी जी को जब कहीं जाना होता था, तब श्री रन्धावा की कार बुलाई जाती थी। स्वामी जी का एक परिचारक एक बाल्टी पानी में कटे हुए नीम्बू डालकर लाता था और उस पानी से कार की अन्दर बाहर सफाई करता था। तब रन्धावा जी हँसा करते थे- कि यह क्या टोटका है। स्वामी जी की मृत्यु के बाद जब उन्हें उनकी पहचान बतायी गयी, तब उनका ध्यान गया कि ऐसा इसलिए किया जाता था, ताकि बाद में कोई स्वामी जी का “फिंगर प्रिण्ट” न ले सके! (फिंगर प्रिण्ट लेने से पहले जो पाउडर छिड़का जाता है, उसके साथ नीम्बू का अम्ल प्रतिक्रिया करता है और उँगलियों की छाप को उभरने नहीं देता।)

(श्री रन्धावा आज 60 वर्ष के हैं और जिज्ञासुओं के प्रश्न का उत्तर देने के लिए सहर्ष तैयार हैं। वे स्वामी शारदानन्द के अन्तिम-संस्कार के प्रत्यक्षदर्शी हैं। उनका फोन नम्बर है: 9811857449।)

कहा जाता है कि स्वामी शारदानन्द ने 110 दिनों की समाधि ली थी। 93वें दिन उनके गर्दन के पीछे रक्त की एक बूँद शरीर से बाहर आती है और इस प्रकार, 13 अप्रैल 1977 को वे देह त्यागते हैं। उनके सचिव के माध्यम से सूचना दिल्ली सरकार को मिलती है और दिल्ली से लखनऊ को आदेश मिलता है कि उस सन्त का अन्तिम संस्कार पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ किया जाय!

क्या आपने किसी और साधू-सन्त के बारे में ऐसा सुना है कि पुलिस-प्रशासन ने उनका अन्तिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया हो? मगर स्वामी शारदानन्द के साथ ऐसा होता है। पूरे 10 दिनों तक उनके पार्थिव शरीर को जनता के दर्शनों के लिए रखा जाता है। उसके बाद तिरंगे में लपेट कर तीन ट्रक पुलिस वालों के संरक्षण में उनके शव को ऋषिकेष ले जाया जाता है। 21 बन्दूकों की सलामी और ‘शोक शस्त्र’ के साथ उनकी चिता को अग्नि दी जाती है। छायाकारी का अधिकार सिर्फ पुलिस के छायाकार श्री एस. जोगी को था। अतः कहा जा सकता है कि एक सन्यासी के राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार के सबूत अब भी सरकारी दराजों में मौजूद हैं।

स्वामी शारदानन्द के अस्थिभस्म को गंगाजी में प्रवाहित करते हुए उनके सचिव डॉ. रमनी रंजन दास ने “नेताजी” कहकर उन्हें अन्तिम श्रद्धाँजली दी। पीछे खड़े पुलिस अधिकारी इन्दरपाल सिंह चौंक पड़े, “अब तक तो आप यही कहते आ रहे थे कि ये साधू नेताजी नहीं हैं!” डॉ. दास शुरू से ही (1959-60 से, या हो सकता है 1955 से, जब से नेताजी ने सोवियत संघ से भारत में प्रवेश किया था) स्वामी शारदानन्द के सचिव थे। हो सकता है कि वे ही भारतीय गुप्तचर सेवा के अधिकारी रहे हों।

मैं तो अपनी ओर से भारतीय गुप्तचर सेवा को सलामी दूँगा। आज जबकि कोई भी सरकारी विभाग कायदे से काम नहीं करता, ऐसे में भारतीय गुप्तचर सेवा सरकार के आदेश पर अपने ही देशवासियों को धोखे में रखने में शत-प्रतिशत सफल रही।
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१९६१ में पश्चिम बंगाल के जिला कूच बिहार के शौल्मारी आश्रम के स्वामी शारदानंद नेताजी नहीं तो कौन थे ?
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cont…Er. D.K. Shrivastava (Astrologer Dhiraj kumar) 9431000486, २0.8.2010

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