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पुरे दस घंटे सोया मै | मेरी तो जरा भी इच्छा न थी उठने की | मेरी तो यही इच्छा थी–इसी चीर निंद्रा में खो जाऊ | शायद समझ गए वो योगी, बोले- कुछ पढ़ना-लिखना नहीं है क्या ? कुछ करना-वरना नहीं है क्या ? जा, लौट जा | अध्ययन पूर्ण कर और फिर तेरे घरवाले भी तेरे लिए चिंतित होंगे |
मै कहता हूँ – क्या पढ़ना, क्या लिखना | आखिर इसका अंतिम मूल्य क्या है ? और क्या घर ? कहाँ घर ? ये सारी टूटने वाली है | फिर इनकी क्यों चिंता ? शायद निराकार ने आकार को थोडा समझा, साकार हो गया | मैंने देखा एक दिव्यमाया | विल्कुल सौम्य, शांत ओर निर्विकार | मैंने पुकारा—आशु$$$$$$ आशु$$$$$, मुझे मुक्त कर दो, मुक्त कर दो मुझे, और नहीं सह सकता मै | अब ये दुःख सहन नहीं होता | देखो$$$$$$$$$$….लेकिन क्या शरीर के बंधन से मुक्त होना सरल है ? अति कठिन है | क्योंकि हम पञ्च दिवालो के भीतर बंधे हैं | हमारी आत्मा उन पञ्च शरीरो के भीतर कैद है और इस कारागार में कोई दूसरा नहीं, वल्कि हम स्वयं अपने को बंधन में डालते है | इसलिए शरीर के बंधन से मुक्त होना सरल नहीं, अति कठिन है |
अगर वास्तव में बंधन मुक्त होना चाहते हो तो पहले अपने दुःख से मुक्त हो जाओ | क्योंकि ये सुख-दुःख की संभावनाए ही सारे बंधन का कारण है | इसलिए पहले समझ लो – सुख क्या है ? दुःख क्या है ? ऊपर से दोनों एक दूसरे से विपरीत दिखलाई देता है, लेकिन ऐसा नहीं है | दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं | समझ गए न | जिसे हम सुख कहते है वही कल दुःख हो जाता है और जिसे हम दुःख कहते हैं वही कल सुख हो जाता है | कल की बात तो दूर, क्षण भर में एक दूसरे में बदल जाता है | हम जिस चीझ को जितना बड़ा सुख समझते है, वह उतना ही बड़ा दुःख में बदलता है | इसे निश्चित समझे |
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