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योगशास्त्र एवं आध्यात्म – २९. सुख-दुःख : कैवल्य – भीतर की यात्रा

Dharm & religion; Vigyan & Adhyatm; Astrology; Social research
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योगशास्त्र एवं आध्यात्म – २९. सुख-दुःख : कैवल्य – भीतर की यात्रा
(YOGSHSTR & AADHYATM – Sukh-Dukh : Kavaly – The travel of inside)

तो फिर सुख दुःख में बदल जाता है, बदलता है | तो याद रखो – एक तपश्चर्या का सूत्र है कि जब सुख दुःख में बदल जाता है तो दुःख भी सुख में बदल सकता है | हालाँकि यह एक कठिन तपश्चर्या है | फिर भी, जरा ध्यान दे |

अगर आप दुःख में रहने के लिए तैयार हो जाये तो आपका दुःख सुख में बदल जायेगा | बस आपको तैयार होना है | अगर आप दुःख में भी यही कह सके – अब मै इसी में रहने को तैयार हूँ | यही तपश्चर्या है कि दुःख आया, मै तैयार हूँ उसे स्वीकार करने के लिए, उसे बदलना नहीं चाहता | आप देखेंगे कि सब बदल गया | आपने जिसे दुःख के रूप में अपनाया था, वह सुख हो गया | क्योंकि अस्वीकार से ही वह दुःख है | जब स्वीकार हो गया तो दुःख हो ही नहीं सकता | सुख का कारण अपेक्षाओ की पूर्ति है और पूर्ति में बाधा ही दुःख है | जब किसी भी चीझ को हम मन से स्वीकार कर लेते है तो सुख होता है और अगर अस्वीकार करते है तो दुःख होता है | तो मन ही सुख एवं दुःख का कारण है | ये सापेक्षिक एवं संदर्भित है | बच्चा पैदा हुआ तो बच्चे का होना होना सुख, अगर बच्चा नालायक हुआ तो बच्चे का होना दुःख | बच्चा पैदा हुआ तो सुख, अपंग पैदा हुआ तो दुःख | तो इसे समझ ले की हमारी मनःस्थिति ही सुख-दुःख का वास्तविक कारण है |

ये बड़ी गहरी बाते है | हो सकता है समझ न पाए | एक सरल उदाहरण देता हूँ, लेकिन इस उदाहरण का उससे कोई सम्बन्ध नहीं, दोनों अलग हैं | फिर भी एक हल्का धक्का |

जो चीझ पूर्णतः स्वीकार हो तो उसका स्वरुप बदल जाता है | एक लड़की जब प्रेमिका होती है तो बहुत प्रिये लगती है क्योंकि वहां भी पूर्ण स्वीकार नहीं है | मन दे दिया – ठीक, और कुछ दे दिया – ठीक , किन्तु तन, इस पर प्रतिबंध लगा दिया हमारी संस्कृति ने | तन नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह अभी प्रेमिका ही है | तो आप देखेंगे कई प्रेमी ने जान दिए है, कई प्रेमिका ने जान दिए है उसके लिए, जो उन दोनों के बीच है | लेकिन जब संस्कृति द्वारा तन देने का भी सर्टिफिकेट मिल गया – विवाह, तो फिर – कोई पति नहीं देगा जान अपनी पत्नी के लिए | स्वरुप बदल गया बीच का क्योंकि दोनों के बीच सब कुछ पूर्ण स्वीकार हो गया | कुछ बचा ही नहीं |….ध्यान देंगे, ये उदाहरण पूर्णतः सही नहीं है | अतः आप इससे वही बात लेंगे जो आपके ऊपर कथित समझ पर धक्के लगा सके |

तो सुख की अपेक्षा न करे, दुःख से भयभीत न हो | इसे समझ ले आप | सुख की अपेक्षा हमें शरीर के
बाहर ले जाती है क्योंकि सुख मांगेगे तो बाहर संघर्ष करना पड़ेगा | भटकना पड़ेगा मकानों में, धनो में, दुसरो में और अगर दुःख को अंगीकार कर ले तो समझिये यात्रा भीतर की शुरू हो गयी और यह अंतर्यात्रा ही शरीर से आपकी आत्मा को छुटकारा दिला सकती है और यह जो मुक्ति दिला सकती है, उसी का नाम है कैवल्य | कैवल्य पहले है और निर्वाण बाद में | ये दोनों योग की परम उपलब्धिया है | इसके बाद है परम मुक्ति यानि मोक्ष |अब आप समझ ले – सुख दुःख के लिए जो क्रियाये करता है वह कर्ता है | लेकिन जो दोनों का भेद नहीं करता, दोनों अवस्थाओ में समान रहता है | मिले तो भी ठीक, न मिले तो भी ठीक, तो वह अकर्ता है | और जब व्यक्ति अकर्ता हो जाता है तो परमात्मा हो जाता है कर्ता | यही गीता का परम सन्देश है कि सब कुछ परमात्मा को अर्पण कर दो | इसे ठीक से समझ ले |

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