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बचपन में मैंने एक बार अपनी माँ से भिखारियों के बारे में शंका की थी | उसने जो उत्तर दिया वह अभी तक मुझे याद है | मैंने उससे कहा…”यह भिखारी तो हट्टा-कट्टा दीखता है | इसको भिक्षा देने से तो व्यसन और आलस्य ही बढ़ेंगे | वह बोली – जो भिखारी आया था, वह परमेश्वर ही था, ऐसा मानकर पात्रपात्रता का विचार कर | भगवान क्या अपात्र है ? पात्रपात्रता का बिचार करने का तुझे और मुझे क्या अधिकार है ? अधिक विचार करने की मुझे जरुरत ही मालूम नहीं होती | यह एक किताब को जीवन का जबाब था | इस उत्तर का प्रत्युत्तर अभी तक मुझे नहीं सूझा है |
दुसरो को भोजन कराते समय मै उसकी पात्रपात्रता का विचार करता हूँ, परन्तु अपने पेट में रोटी डालते समय मुझे यह ख्याल तक नहीं आता कि मुझे भी इसका कोई अधिकार है या नहीं ?
मूल यह कि जो भी कर, भगवान को अर्पण कर | यही गीता है |
लेकिन इसको समझना होगा | क्या दिया, किसको दिया, कितना दिया, यह मुद्दा नहीं है | किस भावना से दिया, यह मुद्दा है |
cont…..Er. Dhiraj kumar shrivastava, 9431000486, 9.7.10
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