Menu
blogid : 300 postid : 164

कैसे कहें, मेरा यूपी महान है?

DIL KI BAAT
DIL KI BAAT
  • 29 Posts
  • 1765 Comments
अभी होली पर उन्‍नाव जिले के बरबटपुर बंदाखेडा गांव जाना हुआ। यह उन्‍नाव से 20-22 किमी पर है। चकलवंशी से आने वाले दूसरे रास्‍ते पर यहां से इतना ही गंगा घाट और उसके पार महानगर कानपुर है। वही जीवनदायिनी-मोक्षदायिनी देवनदी, जो भगीरथ प्रयास पर आई थीं, जिसमें डुबकी लगा कर लोग धन्‍य मानते थे। अब तो कानपुर में गंगा जल नहाने क्‍या छूने लायक भी नहीं है। नाले की शक्‍ल में ठहरा-बहता इसका काला-प्रदूषित पानी अब सुदूर गांवों में गंगाजली का अंग कम ही बनता है।

एक कार्य से इंटरनेट की जरूरत पड़ी। पता चला, इसके लिए उन्‍नाव या कानपुर जाना होगा। आसपास 10-15 किलोमीटर तक कोई कैफे वगैरह नहीं है। गांवों में कम्‍प्‍यूटर किसी के यहां नहीं है। कारण, बिजली ही नहीं आती। बरबटपुर बंदाखेडा दो ढाई हजार की आबादी वाला अपेक्षाकृत बडा गांव है। उन्‍नाव, कानपुर और कानपुर-हरदोई राजमार्ग को जोडने वाली तीन पक्‍की सडकें यहां से होकर निकलती हैं। गांव में विद्युतीकरण तो काफी पहले हो गया था। चार छह घंटे रोटेशन के अनुसार बिजली आती भी थी, लेकिन तीन साढे तीन साल पहले ट्रां
सफार्मर फुंक गया। तब से जो गई तो अब तक वह नहीं आई।

खाली खंभे खडे़ हैं। तार धीरे धीरे लोग काट ले गए। कुछ चलता-पुर्जा लोगों ने बैटरी या सौर उपकरण से टीवी चलाने का जुगाड़ कर रखा है। शाम को सीरियल देखते हैं। सूरज डूबते ही घुप अंधेरा होने लगता है और लोग घरों में घुस जाते हैं। मिट्टी के तेल के दीये, ढिबरी और लालटेन की रोशनी में खाना-पीना होता है।  गोबर के कंडे और लकडि़यों से ही चूल्‍हे चढ़ते हैं। कुछ खाते-पीते लोगों ने ब्‍लैक वाले गैस चूल्‍हे और सिलिंडर का इंतजाम कर रखा है।

आदत के मुताबिक सुबह मार्निंग वाक पर निकलने का मन हुआ। गांव की साफ-सोंधी हवा खाने को मन ललचा रहा था, लेकिन, यह क्‍या? इसका अंदाजा ही नहीं था। जगह जगह कूड़े का ढेर। घरों से गंदा पानी निकलने को व्‍यवस्‍था नहीं। गलियों में कभी खडंजे लगे थे, जिनकी ईंटें थी जगह-जगह गायब । नालियों का निशान नहीं। मकानों का सिलसिला खत्‍म होते ही रोड पर दोनों ओर पसरी शौच की गंदगी। चलना दूभर था। पता चला, यहां गांवों में अधिकांश आबादी खुले में ही शौच को जाने की आदी है। चंद लोगों ने घरेलू शौचालय बना रखे हैं। वे भी फ्लश वाले नहीं हैं, क्‍योंकि टंकी-नल के पानी की सुविधा ही नहीं है। महिलाएं भी रोड पर ही निवृत्त होती हैं। किसी विपरीत लिंगी और वाहन के गुजरने पर खडी होती और बैठती रहती हैं। बच्‍चे-बच्चियां ये परवाह नहीं करते। पुरुष थोड़ा नीचे खेतों में जाते हैं। खिन्‍नमना लौटना पड़ा ।

याद आई अनीता नैरे की। कुछ दिनों पहले बैतूल (मप्र) जिले की इस आदिवासी युवती ने शादी होने के बाद घर में शौचालय न होने से पति के साथ रहने से इन्कार कर दिया था और बिगड‍ कर मायके चली गई थी। ससुराल वालों को शौचालय बनवाना पडा था। सुलभ और सरकार ने इस बात के लिए नैरे को सम्‍मानित किया है। राजधानी लखनऊ से लगे जिले उन्‍नाव और कानपुर के पास बसे इन गांवों में कोई अनीता नैरे क्‍यों नहीं निकली। यहां बाभन-ठाकुर, लाला- बनिया और यादव-लोधों के घरों की महिलाएं वह सोच-साहस नहीं दिखा पाई जो उस आदिवासिनी ने दिखाया।

पिछले हफ्ते भारत के महा पंजीयक ने 2011 की जनगणना के पहले चक्र के जो अंतिम आंकडे़ जारी किए थे, वे बडे चौकाने-हिलाने वाले थे। स्‍वास्‍थ्‍य, शिक्षा, पेयजल, साफ-सफाई, विद्युतीकरण, सूचना प्रौद्योगिकी, दूरसंचार और जीवन स्‍तर वगैरह के मामलों में ग्रामीण भारत की तस्‍वीर बड़ा भयावह और सोचनीय है। उन आंकडों में यह भी था कि गांवों में आधे से अधिक लोगों के घरों में शौचालय नहीं है, पर मोबाइल हैं। दो-तिहाई लोग खुले में शौच करते हैं। यहां तो और बुरा हाल है। मोबाइल प्रायः हाथ में दिख जाएगा। 10-12 साल की लड़कियां भी मोबाइल लेकर इतराती दिखेंगी। कुछ के पास डबल। यही लोगों के मनोरंजन का साधन भी बनता जा रहा है। एक अधेड़ अनपढ सी महिला अपने मोबाइल पर चट से नौटंकी के गाने सुनते-सुनाते और मगन होती दिखी।

दरअसल, गांवों में कोई बहुत सकारात्‍मक बदलाव नहीं आया है। भारत सरकार ने ग्रामीण इलाकों के लोगों का जीवन स्‍तर सुधारने के लिए कई कार्यक्रम और योजनाएं बनाई -चलाई हैं। कुछ प्रदेश सरकार की भी हैं। बरबटपुर बंदाखेडा समेत आसपास के कई गांवों में चिकित्‍सा और शिक्षा तक की सुविधाओं का बुरा हाल है। इलाज के लिए लोग उन्‍नाव या कानपुर जाते हैं। हाई स्‍कूल-इंटर के लिए बच्‍चों को 10-11 किमी दूर शफीपुर कस्‍बे जाना पडता है। गांव में एक प्राइमरी और एक जूनियर हाईस्‍कूल है, जो 20-25 साल पहले स्‍थापित हुए थे। उसके बाद उनका उच्‍चीकरण नहीं हुआ। अंतर ये आया है कि पहले इन स्‍कूलों में पढने -पढाने वालों की अच्‍छी उपस्थिति होती थी, अब दोनों बातें नहीं रहीं।

इस गांव में जगह-जगह इंडिया मार्का हैंड पंप लगे हैं, जिनमें आधे से अधिक खराब हैं। कुएं अब नहीं खोदे जाते और पुराने पट रहे हैं। जागरुकता और रोजगार के अवसरों की कमी है। गरीबी, पिछड़ापन पिंड नहीं छोड रहा। नरेगा-मनरेगा जैसी योजनाओं ने मेहनत-मजूरी करने वालों को कुछ राहत तो दी है, लेकिन खेती -किसानी के लिए मजदूरों की समस्‍या हो गई है। बैलों का स्‍थान ट्रैक्टर ले रहे हैं। पशुधन घट गया है। समाई वाले एकाध गाय, भैंस दरवाजे पर बांधे रहते हैं। चरागाह खत्‍म हो गए हैं। लहलहाते बाग-बगीचे तेजी से खत्‍म होते जा रहे हैं।

और पहले जैसा आपसी भाईचारा भी यहां से गायब हो गया है। पहले तो किसी की लौकी, किसी का मट्ठा के विनिमय से ही गरीबों का काम चल जाता था। अब घर-घर राजनीति,  झूठ और ईर्ष्‍या-द्वेष की कुप्रवृत्ति घुस गई है। दारू, बीड़ी और ताश में लोग ज्‍यादा समय गुजारते हैं। जो गांव से निकल जाते हैं, वे शहरों में ही बसना चाहते हैं। लौट कर नहीं आना चाहते। अब तो होली पर भी नहीं। होली का उत्‍साह , उमंग और हुल्‍लड़ छीज गया है। दहन पर लगने वाली गगनचुंबी होलिकाओं की जगह थोडी सी लकडी-उपलों ने ले ली है। सब कुछ रस्‍मी। फाग और आल्‍हा भी बंद हो गया है। कहते हैं, गांवों में भारत की आत्‍मा बसती है। इन गांवों की  क्‍या कहा जाए ??

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh