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पिछले लेख ” मैं कविता का राष्ट्पति हूं !” में महा प्राण निराला जीवन -सृजन के बारे में कुछ बातें की थीं। उसी की कडी में कुछ और चर्चित प्रसंग। प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू चीन की यात्रा से लौटे थे। गृहनगर इलाहाबाद में उनकी एक जन सभा थी। स्वागत में गले में पड रही मालाओं के मध्य उनकी नजर सामने की पंक्ति में बैठे कविवर निराला पर पडी। वह मिट्टी-तेल से सने नंगे बदन आराम से बैठे थे। जोर आजमाइश के बाद अखाडे से सीधे सभा स्थल आ गए थे। नेहरू ने बोलना शुरू किया- मैं चीन गया था। वहां मैंने एक महान चीनी राजा की कहानी सुनी। राजा के दो बेटे थे। एक कुछ कम अक्ल और दूसरा बेहद बुद्धिमान। वयस्क हुए तो राजा ने दोनों को बुला कर कम अक्ल वाले से कहा कि तुम राजपाट संभालो। क्यों कि तुम केवल यही कर सकते हो। बुद्धिमान-विद्वान लडके के बारे में राजा ने कहा कि यह एक बडे महान कार्य के लिए पैदा हुआ है। यह कवि बनेगा। यह कह कर नेहरू ने अपने गले से मालायें उतार मंच से नीचे जाकर निराला के पैरों पर सम्मान स्वरूप रख दीं।
पूर्व लेख में कह चुका हूं कि हिंदी साहित्य जगत में इतने कथा-किस्से व प्रसंग प्रचलित नहीं हैं जितने निराला के। भले ही समकालीन साहित्यिक मठाधीषों और संपादकों में उनकी सहज स्वीकार्यता न रही हो, पर निराला अपनी ब्यक्तित्व विराटता के चलते किंवदंती थे। एक प्रसंग मेरे जिले फतेहपुर का बताया जाता है। जाडे के दिन थे। कवि सम्मेलन में निराला जी भी इलाहाबाद से आए थे। अपनी बारी आने पर उन्होंने हिंदी के बजाय अंग्रेजी में पाठ शुरू किया। हिंदी में बोलने का नाम ही ले रहे थे। श्रोताओं के प्रबल आग्रह पर संचालक और आयोजकों ने हिम्मत कर उनसे हिंदी में कुछ सुनाने का आग्रह किया। निराला तो ठहरे निराला। उन्होंने यह कह कर इंकार कर दिया कि आप लोगों के लिए जैसी अंग्रेजी है वैसी ही मेरी हिंदी कवितायें। उन्होंने हिंदी में एक भी रचना नहीं पढी तो नहीं पढी। इलाहाबाद जाने को रेलवे स्टेशन पहुंचे तो पारिश्रमिक में मिले सारे रुपए एक वृद्धा भिखारिन को दे दिये। सम्मान में मिले शाल को ठंड से सिकुडते एक कुली को ओढा दिया। स्वयं खाली हाथ और कम कपडों में जडाते हुए चले गए।
मेरे पडोसी गांव बेसडी के एक प्रधानाध्यापक शुक्ला जी ने युवावस्था में निराला जी से हुई अपनी
मुठभेड का एक संस्मरण मुझे काफी पहले बताया था- काव्य-प्रेमी शुक्ला जी तमाम युवकों की तरह निराला की रचनाओं के दीवाने थे। वह निराला से मिलने की अभिलाषा से फतेहपुर से इलाहाबाद गए।
खोजते-पूछते पहुंचे तो निराला जी दारागंज में हलवाई की दूकान में रबडी-जलेबी चापते मिले। बताते हैं कि उनके लिए आधा किलो रबडी और इतनी ही जलेबी खा लेना सामान्य बात थी। शुक्ला जी ने पैर छू कर परिचय दिया। प्रयोजन पूछा तो कहा कि कविताओं का शौक है। कुछ मार्गदर्शन चाहता हूं। निराला जी ने उन्हें ऊपर से नीचे तक घूर कर देखा। तेजोमय सुडौल देहयष्टि के स्वामी के दृष्टिपात से शुक्ला जी सहम गए। हालांकि वह भी गांव के अखाडे जाते और मजबूत कद काठी के युवा थे। निराला उनका कसरती शरीर देख कर खुश हुए। पूछा दंड बैठक लगाते हो। हां में जवाब सुन निराला प्रसनन हुए। उन्हों ने तुरंत उनके लिए भी आधा किलो रबडी और जलेबी का आर्डर दिया। जैसे तैसे शुक्ला जी ने निपटाया तो निराला बोले आओ पंजे लडाते हैं। और वहीं जोर आजमाइश शुरू हो गयी। निराला ने शाबाशी दी। कहा बहुत अच्छा। देश को ऐसे मजबूत लोगों की जरूरत है, कविताई की नहीं। जाओ अच्छे बनो, बलवान बनो। शुक्ला जी गए तो थे कविता के गुर सीखने, लेकिन इस बारे में निराला ने एक बार बात ही नहीं की।
एकाकी और प्रकृत्या विद्रोही निराला का छायावाद की अधिष्ठात्री महा देवी वर्मा से बहुत आत्मीय संबंध था। निराला यदि किसी से अनुशासित थे तो वह महादेवी जी ही थीं। दोनों बहन-भाई की डोर में डोर में बंधे थे। अनुभूति के स्तर पर दोनों में आश्चर्यजनक साम्यता थी। एक अगर कहता – दुख ही जीवन की कथा रही। तो, दूसरी ओर से बोल फूटते – मैं नीर भरी दुख की बदली। कहते हैं सुदर्शन-सुकुमार कविवर पं. सुमित्रा नंदन पंत एक बार निराला के असामान्य व्यवहार से बहुत परेशान थे। उन्होंने निराला के मिलने वाले कुछ लोगों से शिकायत की कि निराला उनके मकान के पास छुप कर सुबह शाम उन्हें ताका-घूरा करते हैं। इससे उन्हें डर लगता है। लोगों ने उन्हें समस्या महादेवी जी से बताने की सलाह दी।उनका कहना था कि एक मात्र महादेवी जी की ही बात निराला जी शर्तिया मानते है। अन्य किसी की उनसे कहने हिम्मत नहीं है। महादेवी जी ने निराला से कहा , तुम पंत को क्यों देखते हो। डर के मारे उसे नींद नहीं आती। निराला ने कहा वह मुझे सुंदर लगता है। महादेवी जी के मना कर देने पर पंत जी को राहत मिल गयी।
1976-77 में इलाहाबाद में हिंदी साहित्य के एक कार्यक्रम में साहित्यकारों का समागम था। इला चंद्र जोशी, पं. हजारी प्रसाद जोशी, विष्णु कांत शास्त्री, अज्ञेय जी, अमृत लाल नागर, सुमित्रा नंदन पंत प्रभृति विभूतियां की उपस्थिति में महादेवीजी का वक्तव्य चल रहा था। मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में बीए का छात्र था। यद्यपि मेरे बिषय संस्कृत, अंग्रेजी और फिलासफी थे, लेकिन हिंदी साहित्यानुरागी होने के नाते सब के दर्शन लोभ में मैं भी श्रोता था। महादेवी जी निर्दिष्ट बिषय पर बोल रही थीं। बोलते बोलते अचानक उन्हें निराला-स्मृतियों नें खींच लिया।उनका गला भर गया। उन्हों ने कहा – आज मुझे वह कलाई याद आ रही है। मैं राखी बांधती थी। उसके बाद मुझे वैसी कलाई नहीं दिखी। वह रोने लगीं वक्तव्य अधूरा छोड माइक से हट गयीं।
नेहरू ने दिलवाई पेंशन: श्री डीएस राव की कृति ‘फाइव डिकेड्स’ में एक प्रसंग आता है। 12 मार्च,1954 में संसद के सेन्ट्ल हाल में साहित्य अकादमी का औपचारिक उद्घाटन हुआ। अगले दिन प्रधान मंत्री नेहरू ने अकादमी के सचिव कृष्णा कृपलानी को एक पत्र लिखा। यह महाकवि निराला के बारे में था। नेहरू ने लिखा कि पं. सूर्य कांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने साहित्य में बडा काम किया है और अब प्रकृतस्थ होने पर बहुत अच्छा लिखते हैं। उनकी पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हैं, पढी जाती हैं और पाठ्यक्रमों में शामिल हैं। लेकिन घनघोर विपन्नता में उन्हों ने एक एक गीत के लिए मात्र 20, 30 या पचास रुपए में अपनी सभी किताबें विभिन्न्ा प्रकाशकों को बेच दी हैं। प्राय: पूरा कापी राइट बिक चुका है। प्रकाशक उन किताब से मालामाल हो गए और अब भी मोटी कमाई कर रहे हैं। जब कि निराला को एक पैसा नहीं मिलता और वे अक्सर भूखे पेट रहते हैं। यह प्रकाशकों द्वारा लेखक के शोषण का निर्लज्ज नमूना है।
पत्र में नेहरू ने साहित्य अकादमी से कापी राइट कानून के संशोधन पर काम करने की अपेक्षा की ताकि भारतीय लेखको को भविष्य में बेहतर संरक्षण मिल सके। उन्हों ने लिखा , साथ ही इस बीच निराला को कुछ आर्थिक मदद भी जरूरी है। यह मदद उन्हें सीधे देना उचित नहीं होगा क्यों कि निराला तुरंत दूसरे को दे देते हैं।
वस्तुत: वह हर चीज , अपनी आखिरी कमीज तक बांट देते हैं। फिलहाल इलाहाबाद में महादेवी वर्मा और एक साहित्यिक संस्था के लोग निराला की देखभाल करने की कोशिश करते हैं और उन्हें कुछ पैसे भी देते हैं। मेरा सुझाव है कि निराला की सहायता को अकादमी सौ रुपए महीने का भत्ता बांध दे और यह धन राशि उनकी तरफ से इस्तेमाल को महादेवी वर्मा को दी जाया करे।
दो दिन बाद अकादमी के सचिव ने नेहरू को जवाब लिखा – मैंने अपने विभागीय मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद से बात की है। वह निराला जी को सौ रुपए मासिक सहायता मंजूर करने और इसे महा देवी जी को भुगतान करने को सहर्ष राजी हो गए हैं।
यह घटना नेहरू और मौलाना आजाद के बडप्पन को भी दर्शाती है। हिंदी के एक साहित्यकार की हालत पर प्रधान मंत्री का चिंतित होना और मंत्री का तीसरे दिन ही मंजूरी दे देना । इससे मौजूदा शासकों को संवेदनशीलता की सीख लेनी चाहिए।
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