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दो गज जमीं भी न मिली कूए यार में !

DIL KI BAAT
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कहते हैं क्रांतिकारी संत कबीर ने करीब पांच सौ वर्ष पूर्व जब शरीर छोडा था तो उनकी अंत्‍य क्रिया को लेकर हिंदू-मुसलमान अड गए थे। दोनों उन्‍हें अपने धर्म का होने का दावा कर रहे थे। मध्‍य मार्ग निकाला गया और दोनों की रह गयी। संत कबीर नगर जिले के मगहर में कबीर स्‍मारक के रूप में अगल बगल बनीं मजार और मंदिर की इमारत आज भी इसकी गवाह हैं।
लेकिन गनपत उर्फ गफूर के साथ ऐसा नहीं हुआ। एक हफ्ते पूर्व उसका निधन हुआ तो कोई पास नहीं फटका। कब्रिस्‍तान में दो गज जमीन नहीं मिली और हिंदुओं ने अपने धर्म का माना ही नहीं। शव 24 घंटे पडा रहा । निराश-परेशान बीवी-बेटे ने किसी तरह उनका शव अपने खेत में दफना कर नम आंखों से अलविदा कहा।
गनपत देवरिया जिले के बरवामीर छापर के निवासी थे। उनका दोष यह था कि वह गफूर से गनपत बन गए थे और कबीर की तरह सर्वधर्म समभाव का जीवन जीते थे।
करीब 10 साल पहले वह गांव के एक शिव मंदिर के पुजारी से प्रभावित होकर हिंदुओं की तरह पूजा पाठ करने लगे थे। वह अधिकांश समय मंदिर में गुजारते । गफूर के बजाय लोग अब उन्‍हें गनपत कहने लगे थे। बडे दबाव पडे , हुक्‍का पानी बंद हो गया और बिरादरी से बहिष्‍कृत कर दिये गए लेकिन अडिग रहे।
मंदिर के पुजारी का निधन हो जाने पर उनकी मुश्किलें बढ गयीं तो बगल के बैजनाथपुर गांव के एक मंदिर में पुजारी बन कर जीवन बसर करने लगे। सदव्‍यवहार और एखलाक से उनकी धाक जम गयी । लोग उनका सम्‍मान करने लगे। एक माह पहले कैंसर का पता चलने पर मजबूरी में वह बीवी- बच्‍चों के पास वापस अपने घर लौट आए। बीते सोमवार को गुजर गए।
पत्‍नी शायरा खातून और बेटा अली शेर कुदाल-फावडे के साथ कब्रिस्‍तान पहुंचे तो तो मुसलमानों ने यह कर रोक दिया कि मृतक उनके मजहब का नहीं रह गया था। हिंदू इस वजह से कन्‍नी काट गए कि उनके अनुसार गनपत विधिवत हिंदू नहीं थे। आधे अधूरे थे। 24 घंटे बाद थक हार कर पत्‍नी-बेटे ने मिल कर किसी तरह उन्‍हें अपने खेत में दफनाया। इस घटना की आस पास चर्चा तो खूब हुई लेकिन धर्म की जंजीरों में जकडे लोग शव को कांधा देने जाने की ताकत नहीं जुटा पाए।
कबीर के मगहर के समीपवर्ती जिले में और तथागत बुद्ध व भगवान महावीर की कर्म स्‍थली रह चुकी देवभूमि देवरिया जिले की यह हृदय विदारक घटना धर्म-मजहब को लेकर कई सवाल छोड जाती है। अक्‍सर हम सुनते हैं कि इंसानियत ही धर्म है। लेकिन क्‍या धर्म की दीवारें इंसानियत से ऊंची नहीं हैं? क्‍या आज भी हम वास्‍तविक अर्थों में धर्म के मर्म को समझ और धारण कर पाये हैं ? गनपत उर्फ गफूर अगर बडी गद्दी वगैरह छोड गए होते जिससे बाद में धर्म-भक्ति के नाम पर चढावा आदि आने की गुंजाइश होती तो क्‍या हिंदू-मुसलमान दोनों उनके साथ कबीर जैसा रवैया अपनाते ?
आप कहेंगे मैं फिर धर्म का राग अलापने लगा। पिछले ब्‍लाग में कुछ लोगों ने आंखे दिखाते हुए सवाल भी उछाले थे कि धर्म पर ही मैं क्‍यों लिखता हूं। तमाम बिषय हैं उन पर क्‍यों नहीं लिखता ?
मेरा मानना है कि जिजीविषा- जीने की इच्‍छा की तरह लोक व्‍यवहार में धर्म भी रचा बसा है। जीवन को कदम दर कदम प्रभावित करने वाला सर्वाधिक शक्तिशाली तत्‍व धर्म ही है। जन्‍म से मृत्‍यु तक सब धर्म में बंधे हैं । जो धर्म को न मानने का दावा करते हैं वे भी। उसी तरह जैसे बौद्ध-जैनादि अवैदिक कही जाने वाली धर्म धारायें भी वैदिक या सनातनी धर्म-धरा से ही नि:स्रत होने से वैदिक ही हैं।
रोमां रोलां ने कहा था कि धर्म जुगाली की तरह चला आ रहा व्‍यवहार नहीं है। धर्म का पेशा और धर्म चेतना ये दो पृथक चीजें हैं। मैं भी मानता हूं कि धर्म एक अनुभूति है। यह मात्र कतिपय परंपरागत और रस्‍मी क्रियायें और उनसे जुडी जड आस्‍था नहीं, प्रत्‍युत चेतना का विकास और प्रकाश -दर्शन है। धर्म चेतना जाग्रत होने पर ही हमारी विचार और उससे भी अधिक महत्‍वपूर्ण भाव शुद्धि होती है। हमारा आचरण-व्‍यवहार समग्रता में बदलता जातिवाद-भ्रष्‍टाचार आदि अन्‍यान्‍य बुराइयां दूर होती या घटती हैं। इसके ही सहारे हम जीवन को स्‍वयं के जीने योग्‍य बना सकते हैं। जीवन धर्म है और स्‍वयं का जीना तभी संभव-सार्थक है, जब दूसरे भी जिएं। ये दोनों बातें सम भाव के भित्ति-आधार से ही संभव हैं। धर्म चेतना यहीं सह अस्तित्‍व -सद्भाव की अनिवार्य आवश्‍यकता बताती है।
तभी वैदिक ऋषि गाता है कि हम साथ साथ रहें , मिल बांट कर खायें-पियें, साथ साथ तेजस्‍वी हों और किसी से विद्वेष न करें।
निवेदन: अंर्तयात्रा में कुछ और गहरे जाने की आवश्‍यकता के चलते फिलहाल ब्‍लाग लेखन से विरत रहने को सोचा है। कहने -सुनने को बहुत कुछ है , लेकिन फिर कभी। यदाकदा तो पहले भी इस मंच पर झांका था,लेकिन नियमित लेखन की दृष्टि से आप के मध्‍य नवप्रवेशी ही था। करीब ढाई महीने की अवधि में बहुत कुछ मिला- भरपूर स्‍नेह-समर्थन और व्‍यंग-भर्त्‍सना। जिसके पास जो था बिना किसी हस्‍त लाघव के मुझे दिया। कुछ लोगों से नये रिश्‍ते बने। राशिद भाई ने मेरी एक पोस्‍ट के समर्थन में अपना एक ब्‍लाग लिखा। पिछली पोस्‍ट पर तो जर्बदस्‍त हाय तोबा मची। उसके अंर्तभाव को समझे बिना ही मेरे कुछ भाई अपने ज्ञान-भंडार से बम-पटाखे लेकर आक्रामक हो गए। मैं एतदर्थ सब का आभारी – ऋणी हूं। ईश्‍वरानुकंपा से ही ऐसा होता है। यहां कबीर जी का दोहा प्रासंगिक लगता है-

आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक
कहैं कबीर न उलटियो, रही एक की एक

सीख देने की शैली में की गयी प्रतिक्रियाओं का यही सोच कर प्रत्‍युत्‍तर नहीं दिया ।
मेरे लेखन के कथ्‍य-लाइन पर कुछ ब्‍लागर भाई-बहनों की असहमति तीखी आपत्तियों में अभिव्‍यक्‍त होती रही है। खास कर पैगम्‍बर मोहम्‍मद को वैदिक ऋषियों के सदृश्‍य श्रद्धास्‍पद और इस्‍लाम व वैदिक विचारधारा को तत्‍वत: एक होने की बात कहने पर कुछ तीव्र विरोध के स्‍वर उठे। लेकिन समर्थन-सराहना में कई गुना अधिक आवाजें आने से मेरी इस मान्‍यता को बल मिला कि भारत के अधिकांश लोग धर्म की मूल धारणा -भाईचारा और प्रेम-सौहार्द के ही पक्षधर हैं।
शब्‍दों या तथ्‍यों के माध्‍यम से कोई विवाद -हंगामा खडा करना मेरा लेखन-मकसद नहीं था। चर्चा-प्रचार में रहना या किसी को आहत करना भी नहीं। मैं जिस मंजिल का राही हूं उसमें इन बातों का कोई महत्‍व-मूल्‍य भी नहीं है। बल्कि वे एक प्रकार से बोझ-बाधक ही हैं। फिर भी संभव है अनायास कुछ शब्‍द-सीमोल्‍लंघन कर गया हूं। कुछ अतिरेक-अनर्गल हो गया हो । ”क्षमिहैं सज्‍जन मोरि ढिठाई ” की भावाजुंलि से आशान्‍वानित हूं कि ‘बुद्धि जीवियों’ की दुनिया मुझ अज्ञ को अपना और उग्र रूप न दिखाएगी। ढाई माह पहले ‘चलें धर्म की ओर !’ से शुरू हुआ यह सिलसिला गनपत उर्फ गफूर के संदर्भ में ”क्‍या यही धर्म है ?” के सवाल के साथ समाप्‍त होता है।
धर्म ही मेरा बिषय रहा ,है, इस लिए लगे हाथ अंत में जोड रहा हूं-
पढना गुनना चातुरी, यह तो बात सहल्‍ल
काम दहन मन बस करन , गगन चढन मुसकल्‍ल।

कबीर दास जी –
पढना, विचार करना, और हर क्षेत्र में अपने को चतुर सिद्ध करना यह तो बहुत सरल है , किंतु उस वाणी के अनुसार मन की वासनाओं को ज्ञान की अग्नि में जलाना और मन को वश में रखना निराधार आकाश में चढने जैसा कठिन है।
कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर
खाली हाथों वे गए, जिनके लाख करोर।

धनानि भूमौपशवश्‍च गोष्‍ठे, नारी गृह द्वारि सुता: श्‍मसाने
देहिश्‍चतायां परलोक मार्गे धर्मानुगो गच्‍छतिजीव एक:।
शरीर को छोडते समय धन तिजोरी में पडा रह जाता है, पशु जहां तहां बंधे रह जाते हैं, स्‍त्री घर के दरवाजे तक ही साथ देती है, पुत्र श्‍मसान तक साथ देते हैं तथा शरीर चिता तक ही साथ रहता है, उसके बाद परलोक मार्ग में केवल धर्म ही जीव के साथ जाता है।

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