उत्तराखंड में जारी कांग्रेस के गतिरोध ने इस सवाल को नए सिरे से प्रासंगिक कर दिया है कि किसी राज्य का मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार विधायकों का है या पार्टी मुखिया का ? विधायक दल का नेता लादने -थोपने की प्रवृत्ति-परंपरा क्या भारतीय संविधान की अपेक्षाओं के अनुरूप है ? यह सवाल हरीश रावत बनाम सोनिया गांधी की जिच का ही नहीं, देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का भी है।
अधिसंख्य विधायकों की इच्छाओं को दरकिनार कर पहले भी मुख्यमंत्री ‘ऊपर’ से तय किए जाते रहे हैं और यह सवाल उठता-दबता रहा है। ऐसा करने वाली कांग्रेस ही अकेली पार्टी नहीं, आदर्शवादी होने का मुखौटा पहनने वाली भाजपा भी रही है। माया, ममता व जयललिता जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों के यहां तो नेता की मर्जी ही सर्वोपरि होती है। लेकिन, राष्ट्रीय दलों से तो संविधान और जन तांत्रिक व्यवस्था की मूल भावनाओं के उच्चादर्शों के अनुपालन की अपेक्षा की ही जानी चाहिए। खासकर, देश की सबसे पुरानी और बडी पार्टी होने का दावा करने वाली वाली कांगेस से तो और। निर्वाचित विधायक जनप्रतिनिधि होते हैं और उनके द्वारा चुना नेता ही राज्य के लोगों का वास्तविक मुखिया कहा जा सकता है। थोपा तो संबंधित नेता का ही मुख्यमंत्री होगा और कदाचित लोकतांत्रिक आदर्शों के प्रतिकूल भी।
उत्तराखंड के साथ तो यह सवाल इसके जन्म से ही जुडा है। राज्य गठन पर बनी अस्थायी सरकार का कांटोभरा ताज नित्यानंद स्वामी ने इसी दग्ध सवाल के साथ पहना और एतद जनित तीव्र ताप न सह पाने पर कुछ महीनों बाद ही उसे संघी भगत सिंह कोश्यारी के हवाले कर दिया गया। वर्ष 2002 में राज्य की पहली निर्वाचित सरकार बनी तो पार्टी आलाकमान की नजरों में आज खटक रहे हरीश रावत शिविर ने इसी सवाल को लेकर तब जम कर ऊधम काटा था। सोनिया तक के पुतले फूंके थे और नारायण दत्त तिवारी को गरियाया था।
2007 में भाजपा के सरकार बनाने की नौबत आने पर बदले पात्रों के साथ यही इतिहास दुहराया गया। रावत की जगह कोश्यारी थे और तिवारी के खाने पर जनरल भुवन चंद्र खंडूरी। मुख्यमंत्री रह चके कोश्यारी ने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के रूप में दिनरात एक कर दिया था और बहुमत आने पर भावी मुख्यमंत्री माने जा रहे थे। लेकिन, अटल बिहारी वाजपेयी की पसंद के नाम पर दिल्ली से उड़ कर आ गए खंडूरी। पार्टी विधायकों का बहुमत और सहानुभूति कोश्यारी के साथ थी। देहरादून में कोश्यारी के आवास पर और होटल में उनके समर्थकों ने खंडूरी के पक्ष में लाबिंग करने वाले रवि शंकर प्रसाद जैसे पार्टी प्रबंधकों पर तीखे आरोप लगाए और खूब भला-बुरा कहा। कोश्यारी फैक्टर के चलते ही खंडूरी को पांच साल का कार्यकाल पूरे किए बिना ही डा. रमेश पोखरियाल निश्ांक को बैठवा कर भागना पड़ा था।
अब नेता विधायक दल के चयन के लिए नई दिल्ली में सात दिनों तक चली लंबी कवायद के बाद जिस तरीके से कांग्रेस हाई कमान सोनिया गांधी ने अपेक्षाकृत लो प्रोफाइल वाले विजय बहुगुणा का नाम आगे किया, उससे सिर मूंडते-मुडाते ही ओले पड़ने की स्थिति आ गई। पार्टी प्रबंधक रक्षात्मक मुद्रा में हैं और डैमेज कंट्रोल की कोशिशें रंग नहीं ला पा रही हैं। बजट सत्र और दिनेश त्रिवेदी को औकात बताने को अड़ी सहयोगी ममता बनर्जी के दबावों से दबी यूपीए सरकार के संसदीय कार्य राज्य मंत्री हरीश रावत मुंह फुला कर घर बैठे हैं।
बहुगुणा के चयन के साथ ही कांग्रेस नेतृत्व की सोच का एक और विकृत पक्ष उजागर हुआ है। सामंती सोच, सवर्ण-प्रियता और पार्टी के निष्ठा-योगदान के बजाए दरबार में जुगाड़ लगा ले जाने वाले को राजतिलक करने का। राज्य में हरीश रावत, प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य, नेता प्रतिपक्ष रहे हरक सिंह रावत , इंदिरा हृदयेश, रेल राज्य मंत्री रह चुके सांसद सतपाल महराज और विजय बहुगुणा ही पार्टी के मुख्य क्षत्रप हैं। ये ही मुख्यमंत्री पद की दौड में थे। पहाड़ बनाम मैदान का मुद्दा उछाल रहे तिलकराज बेहड रुद्रपुर से चुनाव हार गए हैं अन्यथा रेस में एक नाम और होता। ये सभी राजनैतिक अनुभव और वरिष्ठता में बहुगुणा पर भारी हैं।
मुंबई हाई कोर्ट के न्यायाधीश पद से इस्तीफा देकर राजनीति में आए बहुगुणा दो चुनाव जीत कर पांच साल से सांसद हैं। अविभाजित उत्तर प्रदेश में मंत्री रह चुके कड़क नेता हरक सिंह रावत चार पांच विधान सभा निकाल चुके हैं। डबल एमए व पीएचडी इंदिरा हृदयेश उत्तर प्रदेश में शिक्षक क्षेत्र से लगातार तीस वर्ष एमएलसी और विजय बहुगुणा के पिता हेमवती नंदन बहुगुणा से लेकर एनडी तिवारी तक के सत्ता प्रतिष्ठानों के करीब रही हैं। वह हल्द्वानी से पिछला चुनाव हार गई थीं अन्यथा पार्टी के बहुमत में आने पर मुख्यमंत्री बनने के लिए उन्होंने 10 जनपथ तक अपनी गोटियां बिछा रखी थीं। यशपाल पाल आर्य अविभाजित यूपी में खटीमा से दो बार विधायक रहे और पांचवीं बार विधान सभा पहुंचे हैं। तिवारी सरकार में वह स्पीकर थे।
हरीश रावत अल्मोड़ा-पिथौरागढ संसदीय सीट से लगातार तीन बार सांसद रहे हैं। भाजपा के बडे़ नेता डा. मुरली मनोहर जोशी को धूल चटा कर उन्होंने 80 में संसदीय जीवन की धमाकेदार शुरुआत की थी। उन्हें लगातार चार लोक सभा चुनाव हारने और एक बार पत्नी रेणुका रावत को लड़वाकर हारने का भी अनुभव है। इसके बाद हरिद्वार सीट से जीत कर रावत चौथी बार लोक सभा पहुंचे हैं। सांगठनिक दृष्टि से वह ऐसे इकलौते नेता हैं, जिनका राज्य के, खासकर कुमाऊं के, हर छोटे बडे कस्बे में अपना निजी जनाधार है।
प्रदेश अध्यक्ष के रूप में यशपाल आर्य ने भी जम कर भागदौड की है और पूरे पांच साल तक भाजपा सरकार की चूलें हिलाने में लगे रहे हैं। मृदुभाषी आर्य ऊपरी जोड़तोड़ में कमजोर पड़ने से सोनिया की पसंद बनने से रह गए। उन्हें मौका देकर कांग्रेस नेतृत्व पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा-मेहनत का प्रतिफल तो देता ही, अनुसूचित जाति का मुख्यमंत्री बनाने का भी अच्छा संदेश दे सकता था। आर्य हमेशा से पार्टी के फैसले के साथ विनम्रता से खडे होते रहे हैं और अब विजय बहुगुणा के साथ खडे हैं।
संसद में सरकार विपक्ष के व्यंग्य बाणों के हमले से जूझ रही है। पार्टी उत्तराखंड में सरकार बनाने की खुशी नहीं मना पा रही है। उसके 17 विधायकों ने शपथ ग्रहण से कन्नी काट इस संकट को और गहरा कर दिया है। प्रफुल्लित भाजपा कांग्रेस के घटनाक्रमों पर सतर्क नजरें गडाए है और रावत की सफाई के बावजूद उनके गडकरी के संपर्क में होने की चर्चाएं उछल रहीं हैं। सरकार ठहरी है और नए काम व फैसले रुके हुए हैं। मुख्यमंत्री के सामने 26 मार्च से शुरू हो रहे विधान सभा सत्र में बहुमत साबित करने, पार्टी का विधान सभा अध्यक्ष बनवाने और 30 मार्च को होने वाले चुनाव में राज्य सभा की सीट निकलवाने जैसी बडी चुनौतियां हैं। बच जाते हैं तो बहुगुणा को किसी विधायक को राजी कर सीट खाली कराने, वहां से जीतने और गढ़वाल की अपनी लोक सभा सीट छोड कर वहां से पार्टी प्रत्याशी को जिताना होगा। ये चुनौतियां अलग हैं। भाजपा उनकी राह में कांटें बिछाने में कोई कसर छोडे़गी नहीं। बडा सवाल है कि सरकार कैसे बहुमत साबित कर पाएगी और कितने दिन चलेगी ?
हरीश चंद्र सिंह रावत तब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे। उन्होंने राज्य के गांव-गलियों में घूम-घूम कर कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाया था और पार्टी के सब से बडे ध्वजवाहक के रूप में मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार माने जा रहे थे। लेकिन, अंतिम क्षणों में नाटकीय राजनीतिक घटनाक्रम में वह मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे और बाजी उनके धुर विरोधी नारायण दत्त तिवारी के हाथ लग गई।
आज उनके पाले में खड़ी लग रहीं डा. इंदिरा हृदयेश ने ही तब उनके हाथ से मुख्यमंत्री पद का लड्डू झटक कर रातोरात तिवारी के हाथ पहुंचाने में मुख्य भूमिका निभाई थी। रावत समर्थकों का विरोध झेलते हुए तिवारी ने पूरे पांच साल मुख्यमंत्री निवास में गुजारे। बदले में आधा दर्जन से अधिक विभागों के साथ इंदिरा हृदयेश सर्वाधिक ताकतवर मंत्री बनीं और तिवारी खेमे की तरफ से रावत विरोधी शक्ति केन्द्र बनी रहीं ।
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