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क्या राष्ट्रवाद संकीर्णता है ?

DIL KI BAAT
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दैनिक जागरण के संस्थापक संपादक नरेन्द्र मोहन जी की जयंती पर  10 अक्टूबर को गोरखपुर में हुई विचार गोष्ठी में वरिष्ठ लेखक प्रो.परमानंद श्रीवास्तव के वक्तव्य का एक वाक्यांश बड़ा सवाल छोड़ गया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद में संकीर्णता है। राष्ट्रवाद की अपेक्षा राष्ट्रीयता अधिक वरेण्य है। इसका फलक ज्यादा बड़ा है। गोष्ठी का बिषय था- राष्ट्रवाद में सामाजिक समरसता का योगदान। प्रो. परमानंद इसके मुख्य वक्ता थे।
रोमिला थापर और इरफान हबीब वगैरह का हवाला देते हुए परमानंद ने कहा कि ये लोग राष्ट्रवाद की बात को मानते ही नहीं। ये कहते हैं कि राष्ट्रवाद एक काल्पनिक अवधारणा है। बेमानी है और इसका कोई वास्तविक आधार नहीं है। जबकि , ऐसा नहीं है। राष्ट्रवाद काल्पनिक अवधारणा नहीं, यथार्थ है। विभिन्न धर्म संस्कृतियों का भी एक साझा घटक है- मानव धर्म। यही सर्वोपरि है। समाज समरसता से ही  चलता है। राष्ट्रवाद में संकीर्णता है। इसकी अपेक्षा राष्ट्रीयता अधिक महत्वपूर्ण है।
प्रो. परमानंद लेखन में बड़ा नाम और वर्तमान हिंदी साहित्याकाश के समादृत सितारे हैं। लेकिन, पूरे सम्मान के बावजूद उनकी यह अवधारणा सहज स्वीकार्य नहीं है। यह तो कुछ ‘गुड़ खाये और गुलगुलों से परहेजÓ जैसा है। वाद का विवाद से चोली दामन का रिश्ता है। लेकिन, राष्ट्रवाद अवसरवाद , भाई भतीजा वाद, भाषावाद, जातिवाद और सम्प्रदायवाद जैसे गर्हित वादों की श्रेणी में नहीं है। इस लिए इसमें किसी विवाद की गुंजाइश नहीं है।
राष्ट्रवाद का ‘वादÓ कोई  वैचारिक अतिचार-उन्माद या दुराग्रह नहीं, एक सुविचारित -समर्पित आस्था है। जिसकी जड़ें पौराणिक हैं। यह आस्था है राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं की अक्षुण्णता के प्रति। इसकी तमाम सांस्कृतिक और वैचारिक विविधताओं- विरासतों के सम्मान व संरक्षण के प्रति। राष्ट्र की सीमायें और उसकी चेतना दोनों महत्वपूर्ण होती हैं। राष्ट्रीय चेतना के कमजोर पडऩे पर विभाजक-विध्वंसक शक्तियां सबल होती हैं। राष्ट्रवाद की लौ मद्धिम न पड़ी होती तो आज भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश के रूप में खंडित न होता। सहज कल्पना की जा सकती है तब अपने स्वाभाविक रूप में भारत की विश्व पटल पर स्थिति, हैसियत और भूमिका कुछ और ही होती।
राष्ट्रवाद को लेकर कुछ सवाल उठते हैं।  भारतीय संदर्भों में राष्ट्रवाद किसे कहेंगे? किसी राष्ट्र की अपनी एक भाषा होती है। एक नाम होता है। भारत के साथ ये दोनों फार्मूले लागू नहीं होते। कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिंदी अभी तक एक सरकारी भाषा के रूप में अंग्रेजी की चेरी ही बनी हुई है। पूर्वोत्तर से लेकर दक्षिण तक अंग्रेजी शान से इठला रही है। नाम तो तीन तीन हैं- भारत -दैट इज इंडिया और हिंदुस्तान। पाकस्तिान, चीन जापान वगैरह के एक नाम और एक भाषा है।
क्या कई राज्यों के संघ को ही राष्ट्र कहेंगे? क्या यूपी, बिहार या दिल्ली वगैरह हिंदी भाषी राज्यों के  और पूर्वोत्तर के नगालैंड, मणिपुर , मेघालय के लोगों के  राष्ट्रवाद की अवधारणा एक है़? या असम का उल्फा यही मानता है जो हम मानते हैं? क्या दस- ग्यारह सालों से अनशनरत मिजोरम की इरोम सर्मिला और अन्ना हजारे का राष्ट्रवाद एक है? भारत के प्रधान मंत्री की हत्या करने वाले श्रीलंकाई उग्रवादियों के पक्ष में तमिलनाडु विधान सभा प्रस्ताव पास करती है। भारत की संसद पर हमला करने वाले आतंकवादी अफजल गुरू को बख्श देने के लिए जम्मू-कश्मीर विधान सभा में जूतम पैजार हो जाती है। राष्ट्रवाद का यह कौन सा रूप है? या माओवादियों की निर्बाध हिंसा को अरुंधतिराय जब जायज ठहराती हैं तब इसे क्या कहा जाएगा?
लेकिन , इन सब विसंगतियों के बावजूद भारत एक राष्ट्र है और उसकी एक दीप्त राष्ट्रीय चेतना है। वह राष्ट्र के रूप में एक समग्र सांस्कृतिक इकाई है। यह संस्कृति है रीतिरिवाज, भाषा,कर्मकांड, धर्मों और जातियों की विविधता में एकता की। विश्व में सांस्कृतिक चेतना और सह अस्तित्व की यह बेमिसाल अंर्तधारा भारत में ही मिलती है। यही इसे एक सूत्र में बांधती है। एकता का यह भाव बोध फलित है समरसता का। समरसता की भूमि पर ही राष्ट्रवाद का भाव वृक्ष पनपता और पुष्टित होता है।
और , इस समरसता की भाव भूमि का आधार है समता। समता जहां सब को जीने का, बेहतरी का , समान अधिकार है। बिषमता नहीं है। समता में रस मिल जाए तो जीवन-समाज में रंग भर जाता है। कलात्मकता आ जाती है। समरसता  यह समता से भी आगे की बात है। कह सकते हैं कि समता ज्ञान है तो समरसता भक्ति। भारतीय मनीषा में रस का बड़ा , कदाचित सर्वोपरि ,महत्व है। औपनिषिदिक उद्घोष है- रसो हि स:। वह परमात्मा रस है। रसवान , प्रेम रस में पगा समाज ही शांति, संयम,सुरक्षा,सृजन, प्रगति, सह अस्तित्व का आलोक बिखेर सकता है।
समता-समरसता के जीवन मूल्य भारतीय संस्कारों में रचे बसे हैं। इन्हें के बूते भारत सभ्यता का जनक और ज्ञान सूर्य रहा है। हमारे महान गुरुओं और गुरु ग्रंथ साहब ने इसी का संदेश दिया है।  संगत-पंगत की व्यवस्था और सभ से लये मिलाये जिओ का उदघोष इसी क्रम में है।          समता-समरसता के सिरा सूत्र हमारे मिथ और पुराणों तक विस्तारित हैं। लोक जीवन में बसे श्री राम और रामायण इसका बड़ा उदाहरण हैं। प्रेम मार्गी राम जाति-वर्ण नहीं मानते। सखा-बंधु बनाते हैं। निषाद राज गुह से लेकर गीध राज जटायु, सुग्रीव और विभीषण तक मित्रता ही करते हैं। सब को आकंठ गले लगाते हैं । पास बैठाते हैं। सख्य -समानता में भाव प्रर्दशन का यही तरीका उन्हें सर्व प्रिय है। वन गमन में विभिन्न संत-ऋषियों से जा कर मिलते हैं। लेकिन, मार्गदर्शन दो से ही मानते हैं- वाल्मीकि और शबरी से। इन दोनों के पास भी वह चल कर गए।  जाति-वर्णानुसार दोनों निम्न माने जाने वाले अस्पृश्य वर्ग से हैं। कोल किरात और भीलनी। राम एक से  अपने रहने लायक स्थान पूछते हैं तो दूसरे से सीता की खोज का रास्ता-पता। कहना असंगत न होगा कि हनुमान से भी पहले शबरी ही सीता संधान में सहायक हुईं।
जनक सुता कै सुधि भामिनी , जानसि कछु करिबर गामिनी।
पंपा सरहि जाहु रघुराई, तंह होइहि सुग्रीव मिताई।
राम गुह से ‘ तुम मम सखा भरत सम भ्राता, सदा रहेहु पुर आवत जाताÓ कह कर समरसता का कितना उदात्त संदेश देते हैं। तभी उनके राज्य में विषमता दूर हो जाने की आदर्श स्थिति बनती है। बयरु न कर काहू सन कोई, राम प्रताप बिषमता खोई। सब नर करहिं परस्पर प्रीती……………।
रामायण का केन्द्रीय तत्व ही सामाजिक समरसता है। राम ही नहीं उनकी मातायें और भाई भरत के चरित्र कथानक भी इसी राह के राही हैं। कवि कहता है कि गुह लोक व्यवस्थानुसार सब तरह से नीच है। ऐसी अछूत जाति से कि उनकी पडऩे पडऩे पर भी नहाना पड़ता है। राम को मनाने वन जा रहे भरत यह सुनते ही कि सामने आ रहा शख्स राम का मित्र गुह है वह तुरंत रथ से उतर कर चलते हैं और ऐसे लिपट कर मिलते हैं मानो अनुज लक्ष्मण से भेंट हुई हो।
राम सखा सुनि स्यंदन त्यागा,चले उतरि उमग अनुरागा।
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता, मिलत पुलक परिपूरित गाता।
रानियां प्रणाम करते गुह को, पुत्र लक्ष्मण के समान जान कर सौ लाख बरस जीने का वात्सल्यमयी आशीष देती हैं।
आवश्यकता कश्मीर से कन्या कुमारी तक राष्ट्रवाद की अलख जगाने और जगाये रखने की है।

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