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मांग की पूर्ति नहीं कर पा रहा गीता प्रेस

DIL KI BAAT
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सेवाभाव और कर्मठता का जज्‍बा देखना हो तो गीता प्रेस, गोरखपुर आइए। मशीनें बेशक बदल गईं, कर्मचारी बदले मगर गीता प्रेस का उदेश्‍य आज भी वही है जैसा स्‍थापना के समय था। न तो मकसद बदला और न जज्‍बे में कोई कमी आई। यहां आज भी बरसों पुरानी परंपरा जारी है। कर्मचारी हाथ-पांव धोने के बाद रामधुन गाते हुए अपने काम में जुटते हैं। अपने  स्वरूप और सिद्धांतों से समझौता किए बिना 90 वर्षों की गौरवमयी प्रकाशन यात्रा पूरी करने वाला गीता प्रेस मांग के अनुरूप पुस्तकें नहीं छाप पा रहा है। संभवत: इसीलिए हिंदू धार्मिक पुस्तकों के विश्व के सबसे बड़े  प्रकाशन संस्थान की इस वर्ष भी वेदों के प्रकाशन की योजना नहीं है।
स्‍थानीय चस्‍मा व्‍यवसायी अरुण टंडन कहते हैं कि सर्वाधिक सस्‍ते मूल्‍य पर उच्‍च गुणवत्‍ता वाली पुस्‍तकें -ग्रंथ प्रकाशित कर गीताप्रेस ने अप्रत्‍यक्षरूप से बाजार में धार्मिक पुस्‍तकों की मनमानी मूल्‍यवृद्धि पर भी नियंत्रण लगा रखा है। दूसरे प्रकाशक गीताप्रेस से प्रकाशित किताबों के ज्‍यादा दाम नहीं रख पाते। सांस्‍कृतिक पत्रकारिता के पुरोधा हनुमान प्रसाद पोद्दार का विश्‍व में सनातन धर्म के मूल्‍यों-सिद्धांतों की अलख जगाने में अप्रतिम योगदान है।
राष्ट्रीय धरोहर बन चुके इस संस्थान ने इस वर्ष भी किताबों की रिकार्ड बिक्री की है। न गला काट बाजारू प्रतिस्पर्धा की चुनौती, न मंदी की चिंता। बीते 31 मार्च तक यह संस्थान  53 करोड़ से अधिक धार्मिक पुस्तकें व ग्रंथ बेच चुका है। इनमें से लगभग ढाई करोड़ किताबें पिछले एक वर्ष में बिकीं। इनमें श्रीमद्भागवतगीता, श्रीरामचरितमानस, तुलसी साहित्य, पुराण, उपनिषद ,महाभारत आदि ग्रंथ,  स्‍वामी रामसुख दासजी का साहित्‍य , महिलाओं एवं बालकोपयोगी, भक्तचरित, भजनमाला आदि हैं।
न्यासी बोर्ड के एक वरिष्ठ सदस्य के अनुसार संस्थान ने इस साल करीब 45 करोड़ रुपये की बिक्री की है। इनमें लगभग 41 करोड़ की पुस्तकें और साढ़े तीन-चार करोड़ की कल्याण आदि पत्र-पत्रिकाएं हैं। गीता प्रेस की पचास-साठ हजार पुस्तकें रोजाना बिकती हैं। वह कहते हैं – मांग इतनी ज्यादा है कि वह पूरी नहीं हो पाती। वेदों का प्रकाशन हमने नहीं किया। अब भी इसके लिए हमारी क्षमता नहीं है। गीता -मानस ही मांग के अनुरूप नहीं दे पा रहे हैं।
आजकल जब पढऩे का चलन कम होता जा रहा है, क्या इसका असर गीता प्रेस पर नहीं पड़ रहा? इस सवाल पर संस्थान के प्रबंधक लाल मणि तिवारी कहते हैं, नहीं, पहले की अपेक्षा मांग और बिक्री बढ़ती जा रही है। सर्वाधिक मांग रामचरित मानस की और इसके बाद गीता की होती है। मांग के अनुरूप हम नहीं दे पा रहे, इसलिए कभी कभी तो प्रमुख पुस्तकें भी अनुपलब्ध हो जाती हैं। किसी पुस्तक को एकदम से न छापने का निर्णय नहीं लेते। ऐसा नहीं कि कम बिकने वाली पुस्तक को न छापें। यह  जरूर है कि अधिक बिकने वाली को अधिक और कम बिकने वाली पुस्तकों को कम मात्रा में छापा जाता है।
श्री तिवारी बताते हैं कि अधिक से अधिक दूसरी भारतीय भाषाओं में गीता प्रेस की पुस्तकें, खास कर आर्ष ग्रंथों को, सस्ते मूल्य पर उपलब्ध कराने की योजना है। अभी वाल्मीकि रामायण तमिल में पांच खंडों में छापी है। तेलगू में शिव पुराण शीघ्र छापने जा रहे हैं। अन्य भारतीय भाषाओं की पुस्तकें भी, जो गीता प्रेस में नहीं हैं, प्रकाशित कर रहे हैं। बांग्ला में कृत्तिवासी रामायण और उडिय़ा में जगन्नाथी भागवत छापा है। अपनी शाखाओं और रेलवे के बुक स्टालों के जरिए गीता प्रेस की पुस्तकें बिकती हैं। इसके अलावा लगभग ढाई हजार पुस्तक विक्रेता भी हम से किताबें लेते हैं। प्रेस की कोई निजी एजेंसी वगैरह नहीं है। एक खास बात और। गीता प्रेस में विदेशी मशीनों का उपयोग नहीं किया जाता। सभी देशी मशीनें लगी हैं और उन्हीं पर सारा आधुनिकीकरण होता है। जीव हिंसा से जुड़ी चीजों के उपयोग से भी बचता है गीता प्रेस। गीता प्रेस में कार्यरत लगभग दो सौ कर्मचारी सादगी, समर्पण और सेवाभाव की मिसाल हैं। औद्योगिक अशांति से दो-चार होने वाले प्रतिष्ठान यहां के कार्य-माहौल से सीख ले सकते हैं। सब चुपचाप अपने काम में सन्नद्ध दिखते हैं। इनकी शुरुआत सुबह सामूहिक प्रार्थना से होती है।
कल्‍याण में अब कैसी सामग्री रहती है, क्‍या बदलाव आया है  ?  जवाब में ऋषिकेश से आए ट्स्‍ट के जनरल सेकेटी् अपना नाम न बताने के अनुरोध के साथ कहते हैं – हम एक एवरेज स्टैण्डर्ड  लेकर चलते हैं। हम आर्थोडाक्स रहना चाहते हैं। कल्‍याण हो, या गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्‍तकें, हम समय के साथ उतना ही न्यूनतम परिवर्तन स्वीकार करते हैं जो प्रकाशन को सुंदर बनाने में सहायक हो। वैसे,  परिवर्तन का बहुत दबाव रहता है। यह लोगों की संस्‍था है। हमने मूल बात को मूल रूप में कहने का प्रयास किया है,। इधर उधर मुडे नहीं । इसी लिए जनता ने हमें स्‍वीकार किया है।

किसी पुस्तक में
नहीं लेते मुनाफा
गीता प्रेस अच्छे कागज पर त्रुटिहीन छपाई और प्रामाणिक सामग्री के साथ सर्वाधिक सस्ती दर पर पुस्तकें उपलब्ध कराने के लिए जानी जाती है। एक रुपये में हनुमान चालीसा, शिव चालीसा और दुर्गा चालीसा तो तीन रुपये में गीता। सर्वाधिक साढ़े चार सौ रुपये कीमत की एक रामायण है। इतनी सस्ती पुस्तकें कैसे दे पाते हैं? जवाब में ट्रस्ट बोर्ड के जनरल सेकेट्री कहते हैं, हम मुनाफा किसी पुस्तक में नहीं लेते। यह एक विशुद्ध आध्‍यात्मिक संस्‍था है। रामायण-गीता सस्ती हों तो गरीब भी घर में रख लेगा। ट्रस्ट चेष्टा करता है कि अपने अन्य संसाधनों से जो पैसा जुटा सके, वह सारा पैसा गीता प्रेस को दे दे। नीतिगत रूप से जिस प्रकाशन से लोगों का सर्वाधिक लाभ हो, उसे हम न्यूनतम या लागत मूल्य पर देने का प्रयास करते हैं।

विज्ञापन, चंदा, दान या
अनुदान लेने से परहेज
संस्थान न कोई विज्ञापन लेता है और न कोई चंदा या दान-अनुदान स्वीकार करता है। गीता प्रेस अपनी पुस्तकों और कल्याण आदि पत्र-पत्रिकाओं में कोई विज्ञापन क्यों नहीं लेता? इस पर ट्रस्ट बोर्ड के जनरल सेकेट्री कहते हैं, जिससे हमारी संस्था की स्वतंत्रता, प्रकाशन की स्वतंत्रता प्रभावित हो, वह लाभ हम नहीं लेना चाहते। गांधी जी का कहना था कि दाता अपनी बात मनवाए बिना मानेगा नहीं। बहुत दबाव रहता है, यह छापने , वह छापने का। संस्था कोई लाभ लेने लगती तो गीता -रामायण में ही इतने क्षेपक जुड़ जाते कि मूल रूप में चीजें नहीं मिल पातीं। ऐसे में भारतीय संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती। बताते हैं कि कल्याण के प्रथम अंक में महात्मा गांधी का लेख छपा था। कल्याण की प्रति लेकर संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार और सेठ जमुना लाल बजाज आदि गांधी जी के पास गए थे तो उन्होंने विज्ञापन न छापने की सलाह दी थी। गांधी जी की ही सलाह पर कल्याण में किसी पुस्तक की समीक्षा भी नहीं प्रकाशित की जाती।

मई 1923 से शुरू हुई
गीता प्रेस की यात्रा
गीता प्रेस की स्थापना मई 1923 में गीता उपदेशक सेठ जय दयाल गोयंदका ने की थी। हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ इसकी मासिक पत्रिकाओं कल्याण और कल्याण कल्पतरु के संस्थापक संपादक बने थे। उद्देश्य था गीता-रामायण आदि के प्रकाशन के जरिए सनातन धर्म के सिद्धांतों का प्रचार प्रसार करना। शुद्ध पाठ और सही अर्थ देने के संकल्प के साथ गोरखपुर में दस रुपये किराये के छोटे से मकान में शुरू हुआ यह प्रेस अपनी सुदीर्घ यात्रा में हिंदू धर्म और संस्कृति का सबसे बड़ा और निर्विवाद संवाहक-संरक्षक बन चुका है। संस्थान ने वर्ष 1927 में कल्याण और अंग्रेजी में कल्याण कल्पतरु का प्रकाशन शुरू किया था। 1600 की प्रसार संख्या से शुरू हुए कल्याण मासिक की अब करीब सवा दो लाख प्रतियां छपती हैं। गीता प्रेस गोविंद भवन कार्यालय, कोलकाता की एक इकाई है। गीता सूती वस्त्र विभाग और आयुर्वेदिक दवाएं आदि इसकी अन्य इकाइयां हैं।

निष्काम, निशुल्क सेवा
गीता प्रेस का प्रबंधन-पर्यवेक्षण 11 सदस्यीय ट्रस्ट बोर्ड करता है। बोर्ड के सदस्य पूरी अवैतनिक होते हैं और उनका प्रेस से कोई निजी आर्थिक संबंध नहीं होता। वे अपनी गाड़ी से कार्यालय आते-जाते हैं। संस्था की चाय तक नहीं पीते। कोलकाता-मुंबई से आने वाले ट्रस्टी भी अपने निजी खर्च से आते-रुकते हैं। किसी प्रकार के भत्ते वगैरह की तो दूर की बात है।

संसाधनों की कमी
मांग के अनुरूप क्यों नहीं पुस्तकें छाप पा रहे और प्रेस की क्षमता विस्तार क्यों नहीं हो रहा? इस सवाल के जवाब में प्रबंधक लाल मणि तिवारी
कहते हैं – संसाधनों की कमी है, न। जितना बढ़ाते जा रहे हैं, उतनी मांग बढ़ती जा रही है। सीमित संसाधनों के कारण जितनी आवश्यकता है, नहीं दे पा रहे। क्या ट्रस्टियों के कम रुचि लेने के कारण ऐसा है? जवाब में श्री तिवारी कहते हैं कि ट्रस्टियों के अधिक इन्टे्रस्ट के कारण ही इतना अच्छा चल रहा है। कल्याण के संपादक राधेश्याम खेमका हों, ट्रस्टी बैज नाथ अग्रवाल हों या जनरल सेकेट्री, किसी का अपना व्‍यवसाय नहीं है। सभी लोग सेवा – निष्ठा भाव से लगे हैं और पूरी तरह से केवल गीता प्रेस के उन्नयन को समर्पित रहते हैं।

बिड़लाजी के सुझाव पर ही

निकलना शुरू हुआ ‘कल्याण’

गीता प्रेस के मासिक कल्याण का प्रकाशन सेठ घनदास बिड़ला के सुझाव पर शुरू हुआ था। बिड़ला जी, हनुमान प्रसाद पोद्दार भाई जी के गीता प्रचार की लगन से अत्यधिक प्रभावित थे। 1926 में दिल्ली में सेठ जमुना लाल बजाज की अध्यक्षता में हुए मारवाड़ी अग्रवाल महासभा के अधिवेशन में बिड़लाजी ने भाईजी से कहा था – हनुमान प्रसाद जी, केवल गीता के प्रचार तक सीमित रहने से आपका उद्देश्य पूरा नहीं होगा। सनातन धर्म और हिंदू संस्कारों के प्रचार के लिए एक स्तरीय पत्रिका भी होनी चाहिए। भाईजी ने बिड़ला जी के इस सुझाव से जय दयाल गोयंदका को अवगत कराया। गोयंदका जी ने इससे सहमति जताते हुए कहा कि धार्मिक पुस्तकों के साथ पत्रिका भी छापने से धर्म के प्रचार के साथ ही गीता प्रेस की पुस्तकों का प्रचार होगा। भाईजी ने पत्रिका का नाम सुझाया – कल्याण, जो मानवमात्र का कल्याण कर सके। अगस्त 1925 को कल्याण का प्रवेशांक निकला। कल्याण तेरह महीने तक मुंबई में छपा, फिर गोरखपुर से प्रकाशित होने लगा। मौजूदा संपादक राधेश्‍याम खेमका कोलकाता रहते हैं। वह स्‍वंय भारतीय धर्म-दर्शन और आध्‍यात्मिक धारा के प्रकांड विद्वान हैं।

भाईजी के देहावसान के बाद
चित्रकार नहीं बना पाए चित्र
गीता प्रेस के भव्‍य लीला चित्र मंदिर में भगवान श्रीराम और श्रीकृष्‍ण की लीलाओं के रमणीय 684 चित्रों के अतिरिक्‍त अनेक हस्‍तनिर्मित चित्रों का संग्रह है। कहते हैं कि हनुमान प्रसाद पोद्दार बडी रुचि के साथ देश के प्रख्‍यात चित्रकारों से इन्‍हें बनवाते थे। इलाहाबाद विश्‍व विद्यालय के दृश्‍य कला विभाग के तीन छात्र सुरेश शर्मा, खुशबू गुप्‍ता और आरसी कन्‍नौजिया ने यहां के चित्रों पर लघु शोध प्रबंध लिखे हैं। दीन दयाल उपाध्‍याय, गोरखपुर विश्‍व विद्यालय की फाइन आर्ट की छात्रा अर्चना पांडे ने पीएचडी की है। उनके शोध का बिषय था- आध्‍यात्‍िमक और सांस्‍कृतिक चित्रण के क्षेत्र में गीता प्रेस व उससे संलग्‍न रहे चित्रकारों का योगदान।
अर्चना पांडे बताती हैं- शोध के दौरान पता चला कि हुनुमान प्रसाद पोद्दार जी सुबह चित्रकारों को देवी देवताओं के चित्रों की  भाव भंगिमा, नैन नक्‍श , आभूषण और वस्‍त्र विन्‍यास वगैरह के बारे में बताते थे। उसी आधार पर चित्रकार बनाते थे। तभी ऐसे  चित्‍ताकर्षक चित्र बनते थे मानो भगवान साक्षात स्‍वयं खडे हों। यह बडी बात थी। भाईजी को कुछ विशेष आध्‍‍यात्मिक शक्ति प्राप्‍त थी। उनके निधन के बाद गीता प्रेस में रहे दो चित्रकार वीसी मित्रा और भगवान दास तमाम प्रयासों के बाद भी वैसे जीवंत चित्र नहीं बना पाए। आश्‍चर्य होता है कि भाईजी ने ऐसे मुश्किल चित्रों की कल्‍पना कैसे की। पिफर ऐसे चित्रों को 80-85 साल पहले कल्‍याण में छापना बहुत बडा काम था। रामायण और महाभारत धारावाहिकों में रामानंद सागर ने यहीं के चित्रों का आश्रय लिया है। तब वह गीता प्रेस आए थे। उन्‍हों ने प्रेस के प्रबंधकों से कहा था कि हम तो आप लोगों की जूठन परोस रहे हैं।
बहुत मेहनत करते थे भाईजी
हनुमान प्रसाद पोद्दार प्रकाशन सामग्री का चयन और संपादन स्वयं करते थे। वह स्तरीय, प्रेरक और प्रामाणिक सामग्री ही देने के पक्षधर थे। वह संपादन और प्रूफ रीडिंग में 17-18 घंटे तक लगे रहते। वह देश भर के संत महात्माओं और लेखकों को पत्र लिख कर और व्यक्तिगत रूप से उनसे मिल कर धर्म -अध्यात्म पर स्तरीय सामग्री देने का आग्रह करते। उन्होंने ‘कल्याण’ के लिए श्रीकृष्ण, श्रीराम, शिव, गणेश, दुर्गा, हनुमान, तथा विभिन्न देवी देवताओं के शास्त्रीय आधार पर रंगीन और आकर्षक चित्र  बनवाए और कल्याण पत्रिका में देना शुरू किया। इन दुर्लभ चित्रों से कल्याण की मांग तेजी से बढ़ी। भाईजी गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तकें और पत्र पत्रिकाएं समय समय पर विदेशों में रहने वाले हिंदुओ, वहां के मंदिरों और पुस्तकालयों को भी भेजते रहते थे। वह प्रवासी प्रवासी भारतीयों में हिंदी, और भारत के प्रति आस्था बनाए रखने के लिए इसे जरूरी मानते थे।

 

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