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आधुनिक शिक्षा प्रणाली का नया नियम
अभिभावकों की खुशी देखो और विद्यालय की दुकानदारी चलाओ अटपटा लगा न सुनकर विद्यालय जिसको विद्या देवी का मन्दिर कहा जाता है ,
जहां से बडे-बडे महान लोग विद्या धन धन हासिल कर दुनिया को नई राह दिखाते हैं और जहां पर बिना किसी भेद-भाव के सबको बराबर
समझा जाता है -उसके लिए दुकानदारी शब्द अखरेगा ही लेकिन सत्य तो यही है और सत्य कडवा होता है न चाह कर भी अपनाना
पडता है आधुनिक शिक्षा प्रणाली में एक न्या अध्याय जुड गया है-अभिभावकों को खुश रखो और विद्यालय की दुकानदारी खूब चलाओ…..
कहते कहते महेश की आंखें छलक आईं जो किस्मत और हालात के आगे कभी न हारा था , जिसने हर मुश्किल का सामना
बहादुरी से किया और अपने बेटे तरुण से भी उसने यही अपेक्षा की थी क्या कुछ नहीं किया उसने एक बाप होने के नाते
मध्यम वर्गीय परिवार से होकर और सीमित आय के बावजूद भी सपना था बेटे को इण्टरनैश्नल स्कूल में पढाना स्वयं तो सारी जिन्दगी
पढाई में गाल दी न जाने दिन रात मेहनत करके किस तरह इन्जीनियरिंग की वो भी उस हालात में जब पिता का साया सर से उठ चुका था
बीमार माँ और दो छोटी बहनों की जिम्मेदारी अचानक ही सिर पर आ पडी थी लेकिन शुक्र था तब तक वो मैट्रिक पास कर चुका था और पिता
के स्थान पर ही कलर्क की नौकरी मिल गई थी जब जिन्दगी जीने के दिन थे तब इतनी बडी जिम्मेदारी संभालना आसान न था , लेकिन महेश
ने कभी हार न मानी और नौकरी के साथ-साथ पार्ट-टाईम अपनी पढाई भी जारी रखी और एक दिन कम्पयूटर इन्जीनियरिंग की डिग्री भी
मिल गई सरकारी नौकरी में तनख्वाह इतनी कम थी कि दो वक्त का गुजारा मुश्किल से चलता इंसान जब आगे बढता जाता है तो उसकी
ख्वाहिशें उससे दुगुनी रफ्तार से बढती हैं महेश को एक कम्पनी में अच्छी-खासी तनख्वाह का ऑफर मिला तो सरकारी नौकरी त्याग दी
समय बीता दोनों बहनों की शादी कर पिता के कर्ज़ और भाई के फर्ज़ से मुक्त हुआ तो अपनी जिन्दगी का भी ध्यान आया कविता जैसी
सुशील लडकी उसकी जिन्दगी में आई तो महेश को लगा जैसे कुदरत उस पर मेहरबान है ,जिन हालात का सामना उसने जवानी की
दहलीज में कदम रखते ही किया था उसके बाद जीवन में ऐसा बदलाव भी आएगा , कभी सोचा ही न था महेश के जीवन की गाडी चलने
नही बल्कि तेज़ रफ्तार से दौडने लगी वो अबोध बालक महेश अब एक पिता महेश बन चुका था इस दौरान जिन्दगी के उतार-चढाव
इतने देख चुका था कि अपने बेटे को उस साए से भी दूर रखना चाहता था और फिर उसके पास और था ही क्या परिवार के नाम पर
पत्नी और एक बेटा जिनकी झोली में वह दुनिया भर की खुशियां डाल देना चाहता था जिन्दगी का जो रस वह स्वयं न चख पाया था ,
उसके स्वाद से बेटे को वंचित न रखना चाहता था जिस दिन से तरुण का जन्म हुआ , तभी से महेश का एक ही सपना था- बेटे को
अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाना तभी से ही तलाश शुरु हो गई थी सबसे अच्छे स्कूल की एक इण्टरनैश्नल स्कूल में रजिस्ट्रेश्न करवाई
और फिर किसी की सिफारिश से बहुत मिन्नतों के साथ तरुण का दाखिला तो हुआ लेकिन जो रक्म उससे स्कूल बिल्डिंग फंड के नाम
पर मांगी गई , उसके लिए पत्नी के गहने तक बेचने पडे तभी जाकर तरुण का दाखिला हो पाया महेश की पत्नी कविता एक पढी-लिखी
समझदार औरत थी , उसने महेश को अपनी हैसियत में ही रहकर सोचने की बहुत सलाह दी लेकिन महेश पर तो जैसे मंहगे से मंहगे
स्कूल का भूत स्वार था पति की जिद्द के आगे कविता की एक न चली तरुण तीन साल का मासूम बच्चा इन सब बातों से बेखबर जानता
ही न था कि उसके लिए क्या-क्या हो रहा है बस तरुण स्कूल जाने लगा और उसकी हर जरूरत जैसे तैसे पूरी की जाती सोसाइटी में जाकर
महेश बहुत गर्वान्वित महसूस करता कि उसका बेटा इण्टरनैश्नल स्कूल में पढता है बस गर्व करने के लिए एक स्कूल का नाम ही काफी था
बच्चा क्या सीख रह है ,या स्कूल में क्या गतिविधियां हो रही हैं इस बात की परवाह न थी कविता सबकुछ देखती लेकिन महेश पर तो न
जाने कौन सा भूत स्वार था जो पढी-लिखी पत्नी को भी यही कहता:
“अरे तुम गंवार हो तुम क्या जानो इण्टरनैश्नल स्कूल का स्टैण्डर्ड , कभी घर से बाहर निकल दुनियादारी निभाई हो तो तुम्हें कुछ अक्ल आए न ”
कविता बस चुप कर अंदर ही अंदर रोकर रह जाती महेश तरुण की पढाई और स्कूल की किसी गतिविधी के बारे में तो कोई जानकारी न रखता
पर मासिक रिपोर्ट कार्ड अवश्य देखता जिसमे सभी विषयों में ए ग्रेड देखकर फूला न समाता और हर बार तरुण को कुछ न कुछ नया मिल जाता
बढते बच्चे की ख्वाहिशें भी उम्र के साथ बढने लगीं और महेश को भी क्योंकि अब अच्छी खासी मोटी रक्म तनख्वाह के नाम पर मिलती तो
तरुण के मांगने से पहले ही उसकी हर इच्छा की पूर्ति हो जाती न कभी स्कूल वालों से कोई शिकायत और न ही कभी ए से कम ग्रेड तो और
क्या चाहिए था आज तरुण नौंवी कक्षा पास कर चुका था और दसवीं में प्रवेश लिया उसकी असली परीक्षा की घडी अब थी दसवीं क्योंकि बोर्ड
का एक्जाम था तो पिछले दस साल में पहली बार महेश को स्कूल बुलाया गया -देखिए दसवीं का बोर्ड का एक्जाम है और हम नहीं चाहते कि
आपके बच्चे के कम अंक आने से हमारे स्कूल का नाम बदनाम हो ,और एक साल अगर आप इसको अच्छी ट्यूशन करवा देन्गे तो आपके
बच्चे के परीक्षा में अच्छे अंक आएंगे , कहते कहते स्कूल प्रधानाचार्य ने महेश को सलाह दी थी
बात महेश की अब भी समझ न आई थी और तरुण के लिए घर में ही मैथ , साइंस जैसे विषयों के लिए ट्यूटर का प्रबन्ध किया गया जब
इतना बडा स्कूल है , और अब तक हर बार उसके अच्छे अंक आते रहे हैं तो अब उसे किसी ट्यूशन की क्या आवश्यकता कविता सोचती
बहुत लेकिन बेबस थी
खैर दसवीं की परीक्षा हो चुकी थी और अब परिणाम घोषित होना था महेश को पूरा विश्वास था कि जितना पैसा उसने तरुण पर खर्च किया है
और जैसा उसे महौल दिया है उससे तरुण् अवश्य ही कम से कम मैरिट लिस्ट में जरूर आएगा सुबह से ही परीक्षा परिणाम का इन्तजार हो रहा
था महेश ने ऑफिस से छुट्टी ले रखी थी कि परिणाम के बाद किसी अच्छी सी जगह घूमने के लिए जाएंगे परिणाम घोषित हुआ , बडी ही
उत्सुकता के साथ महेश तरुण का नाम लिस्ट में ढूँढ रहा था सबसे पहले मैरिट लिस्ट में नाम देखा पूरी की पूरी मैरिट लिस्ट देखकर महेश
उदास हो उठा और फिर स्वयं को समझाते हुए उत्तीर्ण् विद्यार्थियों की लिस्ट में नाम देखा , वहां भी जब निराशा ही हाथ लगी तो तीसरी लिस्ट
परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुए विद्यार्थियों में सबसे ऊपर तरुण का नाम देख महेश के पैरों तले जमीन खिसक गई और तब तो महेश को अपनी आँखों
पर एतबार ही न हुआ जब तरुण को इस पर भी अपने दोस्तों के साथ हँसते-खिलखिलाते पाया
महेश के सब्र का बान्ध टूट चुका था , वह तो जैसे लज्जा के मारे जमीन में धंस रहा था और सारा का सारा दोष स्कूल वालों पर थोप कर
मारे क्रोध के पहुँच गया था आज दूसरी बार ऑफिस में , अपने मन का गुबार निकालने और जो भी मुँह में आया बोल दिया
तरुण आपका बेटा है , हम यहां स्कूल में बच्चे की हाजिरी की गारन्टी लेते हैं , पढाई का ध्यान तो आपको स्वयं को भी रखना पडेगा
अगर आपका बच्चा पढाई में कमजोर है तो वह आपकी भी जिम्मेदारी बनती है , केवल हमारी नहीं प्रधानाचार्य ने कडवे शब्दों में कहा
लेकिन…..लेकिन तरुण तो हमेशा अच्छे अंकों से पास होता आया है और हर बार मैने उसके रिपोर्ट-कार्ड में ए ग्रेड ही देखा है फिर वह अनुत्तीर्ण
कैसे हो सकता है तरुण को ए ग्रेड तब मिलता था जब परीक्षा हमारे स्कूल की होती थी और हमारे स्कूल में विद्यार्थी के मानसिक स्तर के अनुरूप
ही परीक्षा ली जाती है
मानसिक स्तर…..
मानसिक स्तर महेश की समझ से बाहर था
लेकिन वह तो सभी को एक जैसा ही परचा हल करने को दिया जाता है न कक्षा में और एक ही कक्षा में सभी विद्यार्थी लगभग एक ही आयु वर्ग के
होते हैं तो फिर यह मानसिक स्तर……?
हम बच्चों पर मानसिक दबाव नहीं डालते जो बच्चे अपना कक्षा कार्य नहीं कर पाते या कुछ मुश्किल चीज समझने में अस्मर्थ होते हैं तो हम
उनको आसान परचा हल करने को देते हैं जिससे उसका अच्छा ग्रेड आ सके कई बार तो हम आठवीं , नौवीं के बच्चे को चौथी या पांचवीं का
सिलेबस भी दे देते हैं तरुण भी उन लोअ लेवल विद्यार्थियों में से एक था
लोअ लेवल विद्यार्थी……?
लेकिन आप चिन्ता मत कीजिए अगले वर्ष तरुण को किसी राजकीय पाठशाला से परीक्षा दिलाएं तो वह अवश्य उत्तीर्ण हो जाएगा
महेश के पास अब कहने को कुछ न था वह अंदर से टूट चुका था , उसकी जिन्दगी भर की मेहनत और सपनों पर पानी फिर चुका था और अब
वही कविता जिसको महेश ने हमेशा गंवार कहा तरुण की पढाई का स्वयं जिम्मा उठाने की बात कहते हुए महेश के आंसु पोंछ रही थी
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