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‘अरे…देखो तो 4 लड़कों के बीच में कैसे हंस-हंसकर बेशर्मी दिखा रही है’ मेरे कानों में अचानक ये आवाज पड़ी. मैंने पीछे मुड़कर देखा तो 3-4 आदमी हाथ में चाय का कप लिए लगातार हमारे ग्रुप को घूर रहे थे.
उन दिनों मैं दिल्ली के झंडेवालान ऑफिस कॉम्पलेक्स के पास एक कंपनी में जॉब करता था. ऑफिस में ज्यादातर लोगों को मशीन की चाय पसंद नहीं थी, इसलिए हम 4 दोस्तों के साथ हमारे साथ काम करने वाली हमारी एक सहयोगी भी शाम को बाहर चाय पीने आया करती थी. वो उम्र में हमसे बहुत छोटी थी. घर के हालात ठीक न होने की वजह से जल्दी ही जॉब करने लग गई थी. ऑफिस के पास चाय की एक छोटी-सी दुकान थी. हम पांचों रोज शाम को वहां खड़े होकर चाय पीते और गपशप लगाते.
उस दिन भी हम रोज की तरह गपशप कर रहे थे. इतने में इन 3-4 आदमियों ने अपनी छोटी सोच का नमूना पेश करना शुरू कर दिया. उनकी काफी बातें मेरे कानों में पड़ रही थी. वो कह रहे थे ‘घर से बाहर आकर रही सब तो करती हैं, बताओ एक से बात नहीं बनती. शर्म-हया तो बेच खाई है लड़कियों ने’ उनकी ऐसी सोच देखकर मैं हैरान था क्योंकि बचपन से आज तक मैंने सिर्फ किताबों या फिल्मों में देखा था कि समाज की सोच लड़कियों को लेकर कितनी खराब है लेकिन आज पहली बार इसका जीता-जागता नमूना मेरे सामने था.
मैं अभी यही सब सोच रहा था कि मेरे दोस्तों की चाय खत्म हो गई. वो डिस्पोजल गिलास फेंकने के लिए बाहर रखे डस्टबिन की तरफ चल दिए. सामने वो आदमी खड़े थे. वो मेरे दोस्तों को सामने आता देखकर बड़े ही अदब से पीछे हट गए और मुस्कुराने लगे. इसके बाद हमारे साथ आई महिला कर्मचारी गिलास फेंकने के लिए आगे डस्टबिन की तरफ बढ़ी, तो वो आदमी सामने खड़े हो गए.
महिला कर्मचारी ने धीमी आवाज में उन्हें एक ओर हटने के लिए कहा लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें कोई आवाज ही सुनाई न दे रही हो. वो बातें करने की एक्टिंग कर रहे थे. अपनी मानसिक कुंठा निकालने का ऐसा घटिया तरीका! ये मैनें सपने में भी नहीं सोचा था.
उनमें से एक आदमी ने तो हद ही कर दी. उसने हमारी महिला कर्मचारी को देखकर चाय का कप इतनी जोर से डस्टबिन में फेंका कि पास खड़े होने के कारण उनके कपड़ों पर जूठी चाय के छिटे पड़ गए. ये सब देखकर मेरा सब्र जवाब दे गया. मैंने तेजी से उनके पास गया और चिल्लाते हुए बोला ‘आप लोगों को शर्म है कि नहीं? आप हाथों में चाय का कप थामकर देश बदलने की बात कर रहे हो? सोच कब बदलोगे अपनी?’
मेरी बातें सुनकर वो हैरान थे. उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कोई उनका ओछापन देखकर उन्हें सबक सिखाएगा. वो चुप हो गए या ये कहिए कि चुप होने के अलावा उनके पास और कोई रास्ता नहीं था. मैंने उन्हें माफी मांगने को कहा. उन्होंने अकड़ते हुए मुझसे बहस शुरू कर दी. काफी कहासुनी के बाद बात को खत्म करके हम सब वापस ऑफिस आ गए.
पता नहीं गलत बात उन लोगों ने कही थी और अफसोस मुझे हो रहा था. सच में ऐसे लोगों की सोच ने लड़कियों के लिए दुनिया को कितना मुश्किल बना रखा है.
-लेखक
सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’
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