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बात बहुत पुरानी नहीं बल्कि गयी गुजारी समझो की एक माननीय की जुबान फिसल गयी और उन्होंने मानव और पालतू पशु की तुलना में एक स्वातिवाचन किया , जो कालान्तर में एक मुहावरे में बदल गया. जबान न हुयी केले का छिलका हो गया .मैंने अवसरानुकूल मानव-पशू संबंधों पर मुहावरों का अध्ययन किया. इसमें मुझे “श्वान निद्रा बको ध्यानं ” सूत्र पकड़ना पड़ा. आप ही बताईये – डरपोक निरीह को गीदड़ ,दबंग को शेर , सयाने को लोमड़ी और दम हिलाते को कुत्ता कहा जाता है या नहीं . मानव के पशुओं के साथ गोत्रात्मक सम्बन्ध तो हैं ही . भोलाभाला व्यक्ति गाय कहलाता है . उल्लू तो खैर एक उपाधि है .इधर उधर मुह मारने वाला सामाजिक भी सांड कहा जाता है .ये मानव निर्मित मुहावरे हैं जो सिर्फ खुले मुह से निकलते हैं ,मुहासों की तरह . मुहावरे के आगे लोकोक्तियाँ स्त्री की तरह निरीह लगती हैं जैसे मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है या भारत एक ग्राम प्रधान देश है और अंत में साहित्य समाज का दर्पण है . मुहावरों में जानवरों का प्रवेश उसे दमदार बनाता है. उदाहरणार्थ – मूर्ख कहीं के, तुम गधे हो. इसमें मूर्खता गधे का विशेषण है जबकि मनुष्य का होना चाहिए.गधा इस बात का बुरा नहीं मानता है ,गधा जपो ठहरा .कुत्ते की तरह दम हिलाना क्रियापद भंगिमा है ,यह आंगिक भाव है . वह अगर भौके तो वाचिक हो जाय . इस मुहावरे का उद्देश्य कुत्ते का अपमान करना नहीं होता. ये तो काव्य का उपमा अलंकार है . अपमान को क्षमा करने के पीछे विनोबा भावे की प्रेरणा रहती है . भाषा विज्ञान यहाँ कुछ रुढ़िग्रस्त गलतियों का विरोध-प्रतिरोध दोनों करता है .मसलन मियाँ कहाँ जा रहे हो? मिया बोले =आटा पिसाने .अब आटा पिसना एक मुहावरा है वरना आते को कोई घुइयाँ पिसवायेगा.अब ये मत पूछना घुइयाँ क्या है ????????
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