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महिलावाद… स्त्री अधिकार… स्त्री स्वतंत्रता… आखिर बात क्या है?! – JJF

आर्यधर्म
आर्यधर्म
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पिछले दस एक सालो से जब से मीडिया के पंख निकले हैं उसके बाद से हमने काफी कुछ देखा है बहुत सी छुपी हुई बातें हमारे आँखों में आकर धूल की तरह चिपक गयी हैं.. कई जाने हुए तथ्य तस्वीरे जो कभी हमारे शयन कक्ष या निजता की वर्जनाओ में सीमित थीं आज गाहे बगाहे अनचाहे हमारी सोच बोध में दाल दी जाती हैं!!
आज मीडिया का बहुत बड़ा जुमला, बहुत बड़ा हथियार और निरंतर प्रयोग होने वाला टुनटुना बन गया है — “नारी समानता, लिंग समानता, नारी अधिकार, नारी सुरक्षा वगैरह वगैरह”!
क्षमा करें, पर ये बहुत बड़ा दोगलापन बन गया है की वोही महिलाएं अपने को असुरक्षित और अबला बता कर सुरक्षा मांगती हैं जो दिल्ली जैसे बड़े शहरो में हर रोज लिंग समानता के नाम पर हर दुसरे चौखाट्टे में नौकरी की भीख पाती हैं.
वोही महिलाएं अपने लिए आजादी चाहती हैं जो पहले से ही हर काम करने की ‘कोशिश’ कर रही हैं जो उन्होंने आज तक कभी नहीं की!
ये वोही महिलाएं हैं जो अपने पतियों को यौन सुख न देने में सक्षम होने पर रोज ही तलाक दे रही हैं, ये वोही लड़कियां और महिलाएं हैं जो आजाद दुनिया में “उड़ना ” चाहती हैं! यही वो लड़कियां हैं जिनकी यौनाकांक्षा इतनी बढ़ गयी है की हर रोज स्कूलों में बारह-पंद्रह साल की लड़कियां गर्भपात करा रही हैं या बिन ब्याही माँ बन रही हैं! येही वो लड़कियां हैं जो दारू पीकर धुआं उड़ाकर खुद को पुरुषो के बराबर समझने लग गयी हैं.
येही वो महिलाएं हैं जो हर वो काम करने को तैयार हैं जो पुरुष भी नहीं कर सकते, एही वो वीरांगनाएँ हैं जो पुरुषो से कदम से कदम मिला कर चलना चाहती हैं! वो सब कुछ करना चाहती हैं!!
यही वो महिलाएं हैं जो (दिल्ली, बम्बई में आकर देखिये ) लगभग हर पब, सिनेमा हौल, पार्क या सुनसान में भी दिख जाएँगी यही वो महिलाएं हैं जो जेसिका लाल जैसो को आदर्श मानती हैं! ऐसी ही लाखो स्त्रियाँ इसी दिल्ली में पाई जाती हैं जो हर तरह का कुकर्म करने के बाद भी अपने लिए एक बेचारी, सभ्रांत, सुशीला, अबला, शीलसंपन्न, सुकुमारी भारतीय नारी की उपाधि और फिर सारी विशेषाधिकार पाना चाहती हैं!!

और, यही वो लड़कियां हैं जो अपने उसी लिंग भेद का फायदा एक साथ कई लडको को घुमा कर इस्तेमाल करने में सफलता से करती हैं चाहे वो महज शारीरिक तृष्णा के लिए हो या फिर देह का इस्तेमाल कर पेशे में आगे पहुँचने की हवस के लिए! यही वो लड़कियां हैं जो जेब खर्च के नाम पर अपना देह बेचने में जरा भी शर्म नहीं करती I दिल्ली में खोजिये और आप पाएंगे की यहीं खासकर ऐसी लड़कियां हैं जो धृष्टता, गुंडई, मुंहफट होने, नशे के सेवन आदि में किसी भी और जगहों की अपेक्षा कहीं आगे है. क्यों नहीं किसी और शहर में इतना सुना जाता ?(आंकड़े और सबूत देखें!)

यही है वो महिलाएं जिनको भारत में जितना मिल गया है वो दुनिया में कहीं किसी को नहीं मिला होगा.. महिलाओं के हर अपराध पर पर्दा डाला जाता है यहीं पर, आयुशियाँ, जेस्सिकाएं, और परम नायिका मारिया सुसैराज तो यहीं पाई जाती हैं वो भी बहुतायत में.. महिलाओं को हर अपराध के लिए पहले से ही माफ़ी दे दी जाती है, महिलाओं को बस महिला होने के कारन प्रधान मंत्री, मुख्या मंत्री, राष्ट्रपति, लोक सभा स्पीकर, और जाने क्या क्या बना दिया जाता है और तो और कहीं से कोई उद्धरण भी खोज के ले आया जाता है और वही महिलावादी उसका जप कर महिलाओं को देवी ही बना देते हैं.

आखिर क्या सच्चाई है इस तथाकथित प्रगतिशील, आधुनिक, बिंदास, सर्व्गुन्सम्पन्न और महिलावाचीयो, मीडिया के बनाये ढपोरशंखी काल्पनिक बेचारी महिला की असुरक्षा की?

दिल्ली शहर की लगभग 70 करोड़ से अधिक महिलाएं और लगभग 50 करोड़ स्त्रियाँ देश में सबसे अधिक सुविधा संपन्न हैं. और सबसे अधिक सुरक्षित भी. देश का सारा मीडिया दिल्ली में ही अपने टांग तोड़ कर बैठा हुआ है और घूम घूम कर बस दिल्ली में ही चीखता चिल्लाता रहता है, बस इसीलिए उसे बस दिल्ली ही दिल्ली नजर आती है और यहीं खबर की खान दिखाई देती है, अगर खबर न भी हो तो बना दी जाती है.. और महिला सम्बन्धी खबरे तो आजकल उसकी “मटन बिरयानी” है .. दुसरे शहर देखने की क्या जरूरत है बस, दिल्ली में ही सारा संसार है.. यहीं नेता हैं और यहीं परेता. इसलिए सारे अपराध बस यहीं होते हैं सारी महिलाएं भी यही बेचारी होती हैं और शायद, सारी महिलाएं बस यहीं की, ही महिलाएं होती हैं. इसलिए उनके अधिकारों के लिए लड़ना और अपना नाम करना तो बनता ही है!
ये वही मीडिया है ये वही शहर जहाँ अपने पति को जिन्दा जला देने वाली औरत महिला सशक्तिकरण की जिन्दा मिसाल कही जाती है! ये वोही शहर है जहाँ की एक “आधुनिक “(गुडगाँव की अग्रवाल) पुत्र वधू अपनी उच्च शिक्षा का भरपूर इस्तेमाल करते हुए जानबूझकर एक भोले इकलौते लड़के से शादी करती है और उसके माता पिता को जिन्दा जलाकर माँरने का कुचक्र उसी घर के ड्राइवर से मिलकर करती है. यहीं एक समलिंगी आधुनिका मिस मेरठ अपनी ही मां को कुत्सित व्यभिचार से मना करने पर लोहे की छड से गोद कर मार डालती है..और रोज ही कई कई लड़कियां ढेरो अपराधो को अंजाम दे रही हैं.
और इन सभी अपराधो को छुपाने ढांपने का खूबसूरत काम कर रहा है अपना मीडिया (खासकर कैमरे वाला इलेक्ट्रौनिक मीडिया) जो बस लोगो को बेचारी, अबला, भारतीय नारी की तस्वीर दिखा कर कुत्सित महिलाओं को फायदा पहुंचा रहा है. यहाँ करुना किसी आदिवासी या गंवेरी दलित महिला के शोषण की खबर से बटोरी जाती है और उछ्रिन्खालता का लाइसेंसे दे दिया जाता है किसी परम कुल्टा भारतीय नारी को. जी हाँ, महिलाएं ऐसी भी हो सकती हैं और ऐसी भी होती हैं.. हा, पर हम उनसे ऐसा चाहते नहीं.. पर हमारे चाहने और फ़िल्मी (या टीवी) परदे में जमीं आसमान का फर्क है I
जी हाँ, आज मीडिया ऐसी ही महिलाओं को नायिकाएं बना रहा है जिनमे स्त्रीत्व तो कही रत्ती भर नहीं और सती, भारतीय नारी का तो उसमे कण मात्र भी अंश नहीं है!!!

आखिर यही पर प्रीती जैन जैसी महिलाएं हैं जो देह का इस्तेमाल फिल्मे, काम पाने के लिए करती हैं या किसी जर्मन या रसियन पर्यटक की तरह देह सुख के लिए जिसके मिलने या न मिलने के बाद वो पैसे के एक्स्ट्रा लाभ के लिए बलात्कार का गलत आरोप लगाने में भी उतनी ही स्मार्ट बन जाती हैं!!

तो मीडिया का खड़ा किया ये बवेला वास्तव में टीआरपी बढ़ाने के लिए खास खबरों के चुनाव से होता है. दुसरे, मीडिया लडकियों की बेवकूफी का फायदा बखूबी उठा रहा है.
पुरे देश में सबसे अधिक नंगी और उछ्रिन्खाल लड़कियां दिल्ली में ही पाई जाती हैं, जी हाँ बॉम्बे, गोवा, मणिपुर से भी अधिक. हॉलीवुड और बौलीवुड की हेरोइनो को देख कर उनमे भी सारे राह नंगे घूमने की इच्छा प्रगाढ़ हो जाती है, मीडिया इस बात का भरपूर बढ़ावा देता है और इन लडकियों की ढीठता इतनी बढ़ जाती है की वो अपने माँ बाप को भी धमकाने (जी हाँ कानूनी तौर से धमकाने) में गुरेज नहीं करती. तो ये स्त्रियाँ असमान में उड़ाती तारिकाओं की नक़ल करना चाहती है जिसे कोई छू नहीं पाता, ये शाहरुख़ इत्यादि लम्पट पुरुषो के बनाये झूठे जंजाल की कल्पना में रहती हैं जहाँ एक स्त्री सब कुछ कर सकती है, जहाँ उसको हर अपराध माफ़ होता है इसलिए यही स्त्रियाँ वो लाशामन रेखाएं भी लांघती हैं जो देवी सीता तक के लिए मना थी !

सच्चाई यही है की लडको की तरह पाली जा रहीं, उछ्रिन्ख्लता, अधर्म, अनैतिकता से भरपूर ये लड़कियां अब पुरुषो को चुनौती देती नजर आ रही हैं. इसलिए लडको के लिए उनको मात्र लड़कियां मानने का कोई आधार नहीं बचा है .. अपनी बेवकूफी में लड़कियां पुरुषो के बराबर होने के दंभ में हैं पर ये भूल जाती हैं की “छुरी मक्खन पर गिरे या मक्खन छुरी पर कटना केवल एक को ही है”I
अब, जिस तरह से इस देश में हजारो साल पुराने धर्म का नाश हो गया है तो वो कहीं न कहीं तो दिखेगा ही! अब लडकियों को, और वो भी दिल्ली और आसपास में लडकियों की तरह नहीं पाला जाता और आज के अंग्रेजी मीडिया के जहर से बुझे ये क्षेत्र हर तरह के सामाजिक धार्मिक अपभ्रंश को पैदा कर रहे हैं और.. हमारा मीडिया उस गन्दगी को समूचे देश में फैला रहा है.

वास्तव में सपनीली दुनिया में रहने वाली, अभिभावकों की शिक्षा नैतिक सलाह से दूर रहने वाली, मीडिया के पिलाये आजादी-बराबरी-आधुनिकता के नशे में चूर लडकियों को ये बातें किसी झटके से कम नहीं लगेंगी और न ही उन तथाकथित विचारशील, प्रगतिशील और सुविधासंपन्न महिलाओं को जिन्होंने महिला अधिकार महिला समानता चिल्ला चिल्ला कर एक धंधा सा बना लिया है और अपने लिए खेलने के लिए नौटंकी का मंच बना लिया है I ये महिला आयोग के माध्यम से अपनी मनमानी चलाने वाली वो कर्कषाएं हैं जो अपने सीमा से अधिक दिए अधिकारों का इस्तेमाल अपनी महत्वाकांक्षाओ को परवान चढाने के लिए कर रही हैं ! और, तमाम महिला सोनियाओ, कृष्ण तीरथ, रेणुका चौधरियो के दिल्ली में रहते उनका ये ड्रामा अच्छा चलने भी लग गया है I

आखिर इन महिलावादियो ने लडको को समझ क्या लिया है? मतलब, लड़कियां नंग धडंग बेपरवाह सरे आम घूमती रहें और वहीँ लडको को शालीनता और संयम का पाठ पढाया जाये? ये तो वही बात हुई की शेरो को पहले हफ्तों भूखा रक्खा जाये और फिर जब उनके सामने मांस आ जाये तो शेरो से ये उम्मीद की जाये की वो संत शिरोमणि बन जाएँ? क्यों? और कैसे?

अब असल में खरी खरी का ही समय है.. इसलिए..
क्या हमें मालूम है की ईश्वर या (आधुनिका होने के कारण ईश्वर को न मानती हों तो) प्रकृति ने सबके लिए एक “औकात” निश्चित की है. जी हाँ, बड़ा ही प्यारा शब्द है– औकात! हर आदमी, औरत, जानवर यहाँ तक की पौधे, निर्जीव और हर पिंड की एक औकात निश्चित प्रदत्त है. हम जानते हैं शेर हिरन गाय भैंस आदि को खाता है, चिड़िया कीड़े को, कीड़ा पादप जीवो को…इत्यादि … पूरी जीव श्रृंखला या जीव विज्ञानं मैं यहाँ नहीं वर्णन करूँगा.. पर ये प्रमुखता से कहा जा सकता है की उस न्यायशाली ईश्वर ने दो ही जातिया बनायीं हैं मानव के बनाये हजारो नहीं !! स्त्री को पुरुष के जैसा नहीं बनाया गया है और इस बात का बहुत ख्याल रक्खा गया है की दोनों समान न हों.. आखिर स्त्री कमजोर न हों तो उसे पुरुष की जरूरत क्यों हों और स्त्री कोमलांगी सुन्दर न हों तो उसे पुरुष क्यों चाहेगा ? यही प्रकृति है और इसे ही मानने में हमारी असली भलाई है.. पर, मुझे मालूम है की होंगी कई ऐसी मति-भ्रशटाएँ और तथाकथित आधुनिकाएं जो घमंड और कुज्ञान के अतिरेक में कुछ भी नहीं स्वीकारतीं I

आज अधिकतर देश-जन, मीडिया और धर्म प्रचारको तक को ज्ञान नहीं वैज्ञानिक और सामाजिक के बीच के आवश्यक संतुलन का.. जिसे जैसे देखो खबर दिए जा रहा है, जिसे जो देखो शिक्षा दिए जा रहा है.. जिसका जमीनी सचचाई से तनिक वास्ता नहीं.. वास्तव में हर कोई मीठी गोली खिलाये पड़ा है, सजीले, झूठे सपनो में उलझाये पड़ा है और क्यों न हों आज के बच्चो को तो ऐसे भी कोई गुरु मंत्र नहीं चाहिए, कोई निर्देश नहीं चाहिए, वो तो पहले ही सर्वज्ञ है ये भी हमारा मीडिया ही बताता है….. नहीं?!!

अब देखें इस तथाकथित बलात्कार की हकीकत को.
अभी बस डेढ़ सौ साल पहले क्या कुछ दशक पहले तक ही स्त्रियाँ बाहर बमुश्किल ही दिखाई देती थीं, ये कानून तब का है.. अगर दिखती थीं भी तो बाकायदे शालीनता, आवरण और सुरक्षा में. उनका दायरा उनके घर की ड्योढ़ी में होता था उनके वस्त्र ढंके गरिमामय होते थे .. इसलिए अगर बलात्कार होता भी था तो वो सबके सामने साफ़ दीखता था और इसलिए होना भी मुश्किल था.. आज वोही स्त्री दायरे से बाहर है वो भी बिना जरूरत के. मैं जो कह रहा हु वो सोचने समझने के बाद ही कह रहा हु.
आज वो स्त्री ऐसी शिक्षा लेने के लिए बाहर आवारा घूमती है जिसकी उसे जरूरत कमोबेश नहीं है! पुरुषो के नैसर्गिक अधिकार छीनकर वो अपने झूटी शान बढाती बाहर नौकरी पर जिद्दवश घूमती है और अपनी हरेक अदा पर इठलाती है. हमें ये जानना चाहिए की प्रकृति जन्य कारको से हर पुरुष बहु यौनाकानकक्षु (पौली-गेमस) होता है और वोही जनन क्रिया का कारक और कर्ता है और उसकी सारी यह वैज्ञानिक क्रिया मात्र देखने से ही शुरू हों जाति है I और कहना चाहिए की दृश्य ही उसके समागम का प्रमुख उद्दीपक है.. अब, जहाँ बालक जल्दी वयस्क हों रहे हों, जहाँ हर आसपास की चीज चाहे टीवी हों, नेट हों, पत्रिकाएं अख़बार हों वो हसरतें बढ़ाते बिक रहे हों, जहाँ लड़कियां भी आस्स्पास उपलब्ध हों तो जो अवसाद एक किशोर बालक के मन की होगी वो एक मनोचिकित्सक या समझ सकता है या फिर एक बालक खुद ही. अब इतने शक्तिशाली(वास्तव में सबसे शक्तिशाली) नैसर्गिक वृत्ति को समाज और परिवार के नियम दबा देते हैं I स्त्रियों को इस क्रिया का परोक्ष और अ-क्रिय रोल करना होता है. शहरी आबादियों ने कई विकृतियाँ पैदा की हैं और जिनका खामियाजा पुरुष को अधिक भुगतना पड़ रहा है*! (अन्य लेख में!)

हर आजादी असीमित नहीं होती और महिलाओ को हठधर्मिता से परे इस बात का पूरा अहसास होना चाहिए.

इस मीडिया और उस स्त्री से पूछा जाना चाहिए की आखिर आसमान पर हर जगह नंगापन किसको बेचा जा रहा है? अगर उसे बेचा जा रहा है तो उसे लूटा भी तो जा सकता है? और क्यों नहीं? क्या सारी वर्जनाएं एक लड़के या पुरुष के लिए ही होनी चाहियें? लड़के की ये नैसर्गिक वृत्ति है के जो भी “उपलब्ध” चीज होगी उसपर वो हाथ आजमाएगा. अगर ये छोटी सी बात भी लडकियों और मीडिया को नहीं मालूम तो इसमें किसकी बेवकूफी है?

कहने की जरूरत नहीं की मैं लडको को अनैतिक या कहें असामाजिक करने के लिए प्रेरित नहीं कर रहा पर बात मैं ये कह रहा हु की यहाँ लड़कियां अपनी लक्ष्मण रेखाएं लाँघ रही हैं! निर्लज्ज, बेवकूफ, अपने मान से रहित और अपनी इच्छा से पुरुष की ‘सीमा’ में आई स्त्री के लिए कोई मुरौव्वत नहीं है!!

तो गलती कहाँ है?

सबसे पहली गलती है पुरुष और महिला को समान मानना i स्त्री अधिकारों के पैरोकारो और लिंग समानता की बात करने वालो और साथ ही एक बेवकूफाना महिला ‘सशक्तिकरण’ की बात करने वालो को अच्छी तरह मालूम होना चाहिए सारी समस्या यहीं से शुरू होती है . क्योंकि छोटे शहरो, गावों में कोई ऐसी बात नहीं सुनी जातो क्योंकि हर स्त्री अपने घर की शोभा होती है और वो अपने सामाजिक दायरे में ही रहती है. दायरा सबके लिए है पुरुष के लिए भी अब कोई गिर के जंगलो में जाकर शेरो से अठखेली करे या लद्दाख की घटी में बर्फीले ग्लैशेअर से “बंगी जम्पिंग” ! वहां अपने लिए सुरक्षा की मांग करना या शेरो और पहाड़ो के खिलाफ केस की मांग करना वास्तव में मूढ़ता ही कहलाएगी!

और रही बात, दिल्ली में सुरक्षा देने कीII दिल्ली की डेढ़ करोड़ की जनसँख्या और कोई ५० करोड़ औरतो को सुरक्षा देने की बात करना मजाक से बढ़कर कुछ नहीं है! हर गली, हर सड़क, हर पार्क, हर स्कूल, हर सिनेमा, ऑफिस, इत्यादि इत्यादि में देने की दिल्ली पुलिस से मांग करना बेहद अतार्किक है. कोई जरूरत तो नहीं की हर लड़की जवान होते ही नौकरी पर चली जाये.. और अगर पढने घूमने के लिए अपने घर वालो के साथ निकलना हों तो क्या बुरा है? आखिर काल्पनिकता की भी कोई हद होती है.. तालिबान को गाली देने वालो को जानना चाहिए की भारत सॉफ्ट तालिबान या पिंक तालिबान का गढ़ हों गया है!

अब अगर आप पुरुषो को बराबरी की चुनौती देंगे तो जवाब मिलेगा ही. इससे ये मतलब कत्तई नहीं है की छेड्खानियाँ या उससे अधिक अनाचार कोई बदले की भावना से होते हैं पर आगे चलकर बराबरी चाहने वालो को ऐसी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है! और वो दिन बेहद विषम होगा.. क्योंकि स्त्री पुरुष संघर्ष के लिए नहीं बने हैं!! न कभी ऐसा दिन आना चाहिए.. पर लगता है, मीडिया को ये खबर छापने की भी चाह होगी… किसी दिन…

अच्छा यही होगा मीडिया अतिउत्साह से बचे … और महिलाएं यथार्थ के धरातल पर चलें… घर संभालना या घर में रहना शर्म वाली बात नहीं है.
शहरी व्यवस्थापन करने वाली एजेंसियों और सरकारों को समझना होगा की अब शहरो में स्त्री पुरुष के बीच में अत्यधिक नजदीकी आ गयी है…जो कहीं न कहीं नुकसान करेगी..
हर मनुष्य को चाहिए की वो क्षुद्र समाज में सिमट कर बड़े प्राकृतिक नियमो की अवहेलना न करे…..
बड़े मजे की बात है और हमें ठन्डे दिमाग से ये समझना चाहिए की प्रकृति में हर ओरे बलात्कार से ही सन्ततिया उपजती हैं.. मात्र सामाजिक नियमो को अत्यधिक चमकाने से ये सच्चाइयाँ अदृश्य नहीं हों जाएँगी. इसलिए इसपर अतिशय प्रतिक्रिया मानव जाति के लिए ही हानिकारक होगी.(जिसका नतीजा पश्चिम में दिखना शुरू हो गया है!)

दिल्ली जैसे शहर भले ही तथाकथित आधुनिक और उन्नत समझे जाते हों पर वास्तव में ये हैं पाप के गढ़ केवल धार्मिकता नहीं, नैतिकता और मानवीय उद्भव और व्यव्हार के मूल्यों की संरक्षा के लिहाज से भी!

और, सहानूभूति के लिए स्त्री को चुनना और सजा के लिए केवल पुरुष या लड़के को… अब कत्तई अतार्किक है और अन्याय भी.

हर एक कष्ट, हर एक सजा एक सन्देश भी है. समूची दिल्ली वास्तव में एक असभ्य और अहिंदू अधर्मी केंद्र में परिणत हो रही है. महिला अपराधो और अनैतिकता की बढती रेखा खतरनाक स्तर पर जा पहुंची है.. लडकियों को ही इसका दोषी मानने के कारण भी हैं क्योंकि अगर लड़की न चाहे तो उसके साथ अनाचार नहीं हो सकता.. सोच कर देखें और हर जगह स्त्रियों को बचाना केवल उसके परिवार के लोग ही कर सकते हैं.
और बड़ा ही हास्यास्पद है ये मीडिया बार में काम करने वालियों को, बार गर्ल्स को, वेश्याओ को महिला अपराधियों को, परदे की वेश्याओं* की वकालत करता ही नजर क्यों आता है? और ये बात ध्यान रखने वाली है की हर महिला महिला होने की सहानूभूति नहीं पा सकती…. स्त्री के आचरण के भी नियम हैं..हर स्त्री न तो सम्मान के लायक है और न ही हर किसी स्त्री को मनचाहा सम्मान मिल जायेगा.. वो सम्मान पाने के लिए उसे वैसा ही आचरण भी करना पड़ेगा I
ऐसे भी ये एक खरी सच्चाई है की इस तरह के हादसे उन्ही के साथ होते हैं जो इसके लिए मौका देते हैं(एडवेंचरस, बिंदास आदि), समझदारो के साथ ऐसा नहीं होता

कानून को भी ध्यान रखना चाहिए की कानून की नजर में हर कोई बराबर तो होता है पर एकदम बराबर ही नहीं होता… और बदले परिवेश में कानून की सही व्याख्या होनी चाहिए. स्त्री को इन शहरो में अत्यंत नियम, शील, और स्त्र्योचित गुणों के साथ रहना चाहिए.. जीहाँ, घर की चार दीवारी सही शब्द है ..आधुनिकता कभी ब्रह्मान्डिया यथार्थ से हट कर नहीं होना चाहिए.. स्त्रियों को स्त्री जैसे गुणों का विकास करने की जरूरत है और ये अभिभावकों और सामुदायिक गुरुओ को जानने की जरूरत है, लापरवाह अभिभावकों और खासकर दिल्ली की उन्मत्त, उछ्रिन्ख्ल पंजाबी संस्कृति जो लडकियों को छुट्टा छोड़ने में गौरवान्वित महसूस करती है, है को अपने नियम सुदृढ़ करने पड़ेंगे.. मीडिया के बिछाए जाल में फंसने से अपने बच्चो को बचाना जरूरी है*.. जो शायद (जो आजकल बड़ा तीखा हथियार हो गया है!) बैकवर्डनेस करार दिया जाये.

पर असलियत तो हमेशा सख्त ही होती है!!!

ॐ तत्सत!!!

डॉ स्कन्द एस गुप्त…

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