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करुणाप्रवण

saanjh aai
saanjh aai
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हे पुरुषोत्तम !
हे महामेरु तुम अचल -अटल
अब हरो हरी जीवन का तम !
है मात्र यही अब लक्ष्यस्थल ,
निर्वाण तीर्थ-पादारविन्द ।
हे पद्मक्षेत्र के देव पुरुष
त्रिभुवन सुन्दर ,हे परमेश्वर ।
जीवन – रथ – रज्जु तुम्हारे कर ।
मन – प्राण – हृदय स्पंदित है
दुर्लघ्य कष्ट से लो उबार
हे ऊर्ध्वबाहु , हे कमलनयन ।
है अभिनंदन ।
उत्कल में दर्शन करते ही
दु:ख -शोक – दर्द सब भूल गई ।
कितनी बातें लेकर आई
लख जगमोहन छवि विसर गई
स्तंभीभूत हुई निरखूँ अमृतमय हो आनंद पुलक ।।

शकुन्तला मिश्रा

 

डिस्क्लेमर: उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण डॉट कॉम किसी दावे या आंकड़े की पुष्टि नहीं करता है।

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