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मन विहंग

saanjh aai
saanjh aai
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मन का विहंग
नभ निस्तरंग
उड़ते प्रतिपल
भावो के दल
छलता है नित
तम शेष जाल
चेतन विहीन अपना ही मन
नित ही निज से प्रतिरोध करे
घटता क्षण -क्षण मानव जीवन
यह सत्य जान कर भी अंजान ||

shakuntla mishra

 

डिस्क्लेमर: उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण डॉट कॉम किसी दावे या आंकड़े की पुष्टि नहीं करता है।

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