सरकशी बढ़ गयी देखो, बगावत को बढ़ जाते हैं , हवाओं में नफरतों के गुबार सिर चढ़ जाते हैं . ………………………………………………………………… मुहब्बत मुरदार हो गयी,सियासी चालों में फंसकर , अब तो इंसान शतरंज की मोहरें नज़र आते हैं. ……………………………………………………………….. मुरौवत ने है मोड़ा मुंह ,करे अब क़त्ल मानव को , सियासत में उलझते आज इसके कदम जाते हैं . ……………………………………………………………… हुई मशहूर ये नगरी ,आज जल्लाद के जैसे , मसनूई दिल्लगी से नेता, हमें फांसी चढाते हैं . ……………………………………………………………….. कभी महफूज़ थे इन्सां,यहाँ जिस सरपरस्ती में , सरकते आज उसके ही ,हमें पांव दिख जाते हैं . …………………………………………………………………. सयानी आज की नस्लें ,नहीं मानें बुजुर्गों की , रहे जो साथ बचपन से ,वही दुश्मन बन जाते हैं . …………………………………………………………………. जलाते फिर रहे ये आशियाँ ,अपने गुलिस्तां में , बसाने में एक बगिया ,कई जीवन लग जाते हैं . ………………………………………………………………. उभारी नफरतें बढ़कर ,सियासत ने जिन हाथों से , उन्हीं को सिर पर रखकर ,हमें हिम्मत बंधाते हैं . ………………………………………………………………………. लगे थे जिस जुगत में ”शालिनी”के ये सभी दुश्मन , फतह अपने इरादों में ,हमारे दम पर पाते हैं . ……………………………………………………………… शब्दार्थ-मुरदार -मरा हुआ ,बेजान , मसनूई -बनावटी ,दिल्लगी-प्रेम ,सरकशी-उद्दंडता ,सरपरस्ती -सहायता .
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