बढ़ रही हैं गगन छू रही हैं लोहा ले रही हैं पुरुष वर्चस्व से कल्पना कपोल कल्पना कोरी कल्पना मात्र सत्य स्थापित स्तम्भ के समान प्रतिष्ठित मात्र बस ये विवशता कुछ न कहने की दुर्बलता अधीन बने रहने की हिम्मत सभी दुःख सहने की कटिबद्धता मात्र आंसू बहने की . न बोल सकती बात मन की है यहाँ बढ़कर न खोल सकती है आँख अपनी खुद की इच्छा पर अकेले न वह रह सकती अकेले आ ना जा सकती खड़ी है आज भी देखो पैर होकर बैसाखी पर . सब सभ्यता की बेड़ियाँ पैरों में नारी के सब भावनाओं के पत्थर ह्रदय पर नारी के मर्यादा की दीवारें सदा नारी को ही घेरें बलि पर चढ़ते हैं केवल यहाँ सपने हर नारी के . कुशलता से करे सब काम कमाये हर जगह वह नाम भले ही खास भले ही आम लगे पर सिर पर ये इल्ज़ाम . कमज़ोर है हर बोझ को तू सह नहीं सकती दिमाग में पुरुषों से कम समझ तू कुछ नहीं सकती तेरे सिर इज्ज़त की दौलत वारी है खुद इस सृष्टि ने तुझे आज़ाद रहने की इज़ाज़त मिल नहीं सकती . सहे हर ज़ुल्म पुरुषों का क्या कोई बोझ है बढ़कर करे है राज़ दुनिया पर क्यूं शक करते हो बुद्धि पर नकेल कसके जो रखे वासना पर नर अपनी ज़रुरत क्या पड़ी बंधन की उसकी आज़ादी पर ? मगर ये हो नहीं सकता पुरुष बंध रो नहीं सकता गुलामी का कड़ा फंदा नहीं नारी से हट सकता नहीं दिल पत्थर का करके यहाँ नारी है रह सकती बहाने को महज आंसू पुरुष को तज नहीं सकती कुचल देती है सपनो को वो अपने पैरों के नीचे गुलामी नारी की नियति कभी न मिल सकती मुक्ति .
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