अभी हाल में ही भारतीय नारी ब्लॉग पर मैंने इंजीनियर प्रदीप साहनी जी की एक पोस्ट देखी जिसमे वे दामिनी मामले को लेकर अत्यधिक भावुक हो गए और गुनाह साबित होने पर वकीलों के लिए भी सजा की बात कर गए .पहले देखिये उनकी पोस्ट-
[वकीलों से सवाल अगर गुनहगार का साथ देना भी गुनाह है तो गुनाह साबित हो जाने पर वकीलों को सजा देने का प्रावधान क्यों नहीं है, जो सबकुछ जानते हुए भी अपने मुवक्किल को बेगुनाह बताता है और गुनाह साबित हो जाने पर तरह तरह के बहाने बनाके सजा न देने की भीख माँगता है । अगर ये उनके प्रोफेशन का हिस्सा है तो ये कैसा प्रोफेशन है-चंद फीस के लिए गुनाह का साथ दो ? क्या ज़मीर नाम की जो चीज़ होती है वो वकीलों के लिए नहीं है ? उनका दिल ये कैसे गवाही देता है कि सबकुछ जानते हुए भी वो अंतिम समय तक गुनहगार को बचाने का प्रयास करते रहते हैं ? आप भी सोचे ? अपराध दिन ब दिन इतना बढ़ता क्यों जा रहा है क्योंकि कानून को लेके किसी के मन में कुछ भय नहीं है | सब सोचते हैं कि कुछ भी कर लो, अगर पकड़े गए तो पैसों के दम पे अच्छा से अच्छा वकील रख लो; वो कानून को तोड़-मरोड़ कर, झूठ को सही साबित करके बचा ही लेगा | अगर कुछ ऐसा प्रावधान हो जाए कि मुजरिम साबित हो जाने पर मुजरिम के साथ-साथ उसका केस लड़ रहे वकील को भी सजा मिलेगी तो डर से वकील जान कर गलत लोगों का केस लेना बंद कर देंगे और इस से अपराध करने वाले के मन में भी भय बैठ जाएगा और आधे से ज्यादा जुर्म ऐसे ही कम हो जाएंगे | (संदर्भ-दिल्ली में गैंग रेप के आरोपियों का केस लड़ रहे वकील ने गुनाह साबित हो जाने के बाद भी मांग की है कि कम से कम सजा मिले)]
वकील आज के समय में कानून द्वारा कानून की बारीकियों से अनभिज्ञ लोगों को न्याय प्राप्त करने के लिए दिए गए वे माध्यम हैं जो न्यायालय के समक्ष अपने मुवक्किल का पक्ष रखते हैं और उसे न्याय की राह पर अग्रसर करते हैं .भारतीय साक्ष्य अधिनियम १८७२ की धारा १२६ कहती है – ”कोई भी बैरिस्टर ,अटॉर्नी,प्लीडर या वकील अपने कक्षिकार की अभिव्यक्त सम्मति के सिवाय ऐसी किसी संसूचना को प्रकट करने के लिए ,जो उसके ऐसे बैरिस्टर ,अटॉर्नी ,प्लीडर या वकील की हैसियत में नियोजन के अनुक्रम में ,या के प्रयोजनार्थ उसके कक्षिकार द्वारा ,या की ओर से उसे दी गयी हो अथवा किसी दस्तावेज की ,जिससे वह अपने वृतिक नियोजन के अनुक्रम में या के प्रयोजनार्थ परिचित हो गया हो ,अंतर्वस्तु या दशा कथित करने को अथवा किसी सलाह को ,जो ऐसे नियोजन के अनुक्रम में या के प्रयोजनार्थ उसने अपने कक्षिकार को दी हो ,प्रकट करने के लिए किसी भी समय अनुज्ञात नहीं किया जायेगा . परन्तु इस धारा की कोई भी बात निम्नलिखित बात को प्रकटीकरण से संरक्षण नहीं देगी – १-किसी भी अवैध प्रयोजन को अग्रसर करने में दी गयी कोई भी ऐसी संसूचना , २- ऐसा कोई भी तथ्य जो किसी बैरिस्टर ,प्लीडर ,अटॉर्नी या वकील ने अपनी ऐसी हैसियत में नियोजन के अनुक्रम में संप्रेक्षित किया हो और उससे दर्शित हो कि उसके नियोजन के प्रारंभ के पश्चात् कोई अपराध या कपट किया गया है . यह तत्वहीन है कि ऐसे बैरिस्टर ,प्लीडर,अटॉर्नी या वकील का ध्यान ऐसे तथ्य के प्रति कक्षिकार द्वारा या की ओर से आकर्षित किया गया था या नहीं . स्पष्टीकरण -इस धारा में कथित बाध्यता नियोजन के अवसित हो जाने के उपरांत भी बनी रहती है .” इस प्रकार उन्हें व् अन्य जो वकील का इस मामले में खड़ा होना अपराध मान रहे हैं उन्हें जान लेना चाहिए कि सिर्फ पुलिस के दिखाने से कोई अपराधी नहीं हो जाता उसका अपराध साबित होना ज़रूरी है और यह कानून का फ़र्ज़ है कि हर व्यक्ति को न्याय मिले और ऐसे में जब किसी पर अपराध का इलज़ाम है तो उसे भी हक़ है कि उसका पक्ष भी रखा जाये और तभी सजा मिले जब वह अपराधी साबित हो जाये .कानून की बारीकियां केवल वकील जानते हैं और इसलिए उनका हर मामले में खड़ा होना ज़रूरी है अगर इस तरह से अपराध साबित होने पर उनके लिए भी सजा का प्रावधान होने लगा तो जैसे पुलिस के खौफ से डाक्टर अपराध के शिकार मरीज का इलाज नहीं करते ऐसे ही वकील भी अपराध का इलज़ाम लगे लोगों की ओर से खड़े नहीं होंगे और इस तरह न्याय की यह अवधारणा ही समाप्त हो जाएगी कि न्याय सभी तक पहुंचना चाहिए . हाँ ये ज़रूर है कि दामिनी मामले में वकील एपी सिंह ज़रूर एक अपराध कर गए हैं जिसका संज्ञान उसी न्यायालय को लेना होगा . ए. आई.आर १९६१ कल.४९५ में न्यायालय में वकील ने मजिस्ट्रेट को ”द्रोही ,डाह करने वाला ”कहा तो उसे अवमानना का दोषी माना गया . यहाँ वकील एपी सिंह ने फैसला सुनते ही भरी अदालत में जोर जोर से चिल्लाते हुए कहा -”जज साहब !आपने सत्यमेव जयते का पालन नहीं किया बल्कि असत्यमेव जयते किया है .आपने मेरे मुवक्किलों को फाँसी की सजा देकर उनके साथ अन्याय किया है .आपने सियासी दबाव में सजा दी है इंसाफ नहीं दिया है .” न्यायलय के फैसले के खिलाफ अपील का अधिकार मिला हुआ है और वहां अपने सभी तर्क रखकर उस न्याय में परिवर्तन ,परिवर्धन आदि कराया जा सकता है इस तरह न्यायालय के समक्ष उसके फैसले पर जो उसने मौजूदा सबूतों व् परिस्थितयों को देखते हुए दिया है ऊँगली उठाने का अधिकार किसी को नहीं है वकील को भी नहीं और इस तरह ये मामला न्यायालय की अवमानना के अंतर्गत आता है . द कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट एक्ट १९७१ की धारा १० के अनुसार ये पावर हाईकोर्ट को है किन्तु जब मामला भारतीय दंड सहिंता के अंतर्गत दंडनीय हो तो तो ये कार्य अधीनस्थ कोर्ट का ही है और भारतीय दंड सहिंता की धारा २२८ कहती है – ” जो कोई किसी लोक सेवक का उस समय ,जब कि ऐसा लोक सेवक न्यायिक कार्यवाही के किसी प्रक्रम में बैठा हुआ हो ,साशय कोई अपमान करेगा ,या उसके कार्य में कोई विध्न डालेगा ,वह सादा कारावास से जिसकी अवधि ६ माह तक की हो सकेगी या जुर्माने से जो एक हज़ार रूपए तक हो सकेगा या दोनों से दण्डित किया जायेगा . और इस प्रकार एपी सिंह के वाकया साफ तौर पर न्यायालय की अवमानना हैं और जिस न्यायालय के समक्ष उन्होंने ऐसा कहा है वही इस अवमानना का दंड देने के लिए अधिकार रखता है क्योंकि यह भारतीय दंड सहिंता में वर्णित अपराध है . शालिनी कौशिक [कानूनी ज्ञान ]
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