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तलाक़ ऐसे भी …

! मेरी अभिव्यक्ति !
! मेरी अभिव्यक्ति !
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तलाक कहूं या विवाह -विच्छेद ,बहुत दुखद होता है किन्तु बहुत सी शादियां ऐसी होती हैं जिनमे अगर तलाक न हो तो न पति जी सकता है और न पत्नी ,बच्चों के तो कहने ही क्या ,ऐसे में तलाक आवश्यक हो जाता है .हिन्दू विधि में तलाक के बहुत से ढंग कानून ने दिए हैं किन्तु उनमे बहुत सी बार इतना समय लग जाता है कि आदमी हो या औरत ज़िंदगी का सत्यानाश ही हो जाता है इसीलिए बहुत सी बार पति या पत्नी में से कोई भी इन तरीको को अपना कर दूसरे को परेशान करने के लिए इन्ही का सहारा लेता है लेकिन जहाँ सद्भावना होती है और सही रूप में ये सोचते हैं कि हमारे अलग होने में ही भलाई है वहां विवाह-विच्छेद का एक और तरीका भी है और वह है -”पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद ”
हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा १३-ख पारस्परिक सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद के बारे में प्रावधान करती है .इसमें कहा गया है –
”इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन रहते हुए या दोनी पक्षकार मिलकर विवाह-विच्छेद की डिक्री विवाह के विघटन के लिए याचिका जिला न्यायालय में ,चाहे ऐसा विवाह ,विवाह विधि[ संशोधन ]अधिनियम ,१९७६ के प्रारम्भ के पूर्व अनुष्ठापित किया गया हो चाहे उसके पश्चात् इस आधार पर पेश कर सकेंगे कि वे एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हैं और वे एक साथ नहीं रह सके हैं तथा वे इस बात के लिए परस्पर सहमत हो गए हैं कि विवाह विघटित कर देना चाहिए .
[२] उपधारा [१] में निर्दिष्ट याचिका के उपस्थापित किये जाने की तिथि से छह मास के पश्चात् एवं उक्त दिनांक के अठारह मास के भीतर दोनों पक्षकारों द्वारा किये गए प्रस्ताव पर यदि इस बीच याचिका वापस नहीं ले ली गयी है तो ,न्यायालय पक्षकारों को सुनने के पश्चात् और ऐसी जाँच ,जैसी वह ठीक समझे ,करने के पश्चात् अपना यह समाधान कर लेने पर कि विवाह अनुष्ठापित हुआ है और अर्जी में किये गए प्रकथन सही हैं यह घोषणा करने वाली डिक्री पारित करेगा कि विवाह डिक्री की तिथि से विघटित हो जायेगा .]
पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद में कुछ शक्तियां अनन्य रूप से उच्चतम न्यायालय के पास ही हैं .[अनिल कुमार जैन बनाम माया जैन २०१० ए.आई .आर .२२९ पेज २३४ एस.सी. ] में यह धारित किया गया कि उच्चतम न्यायालय संविधान के अनुच्छेद १४२ के अधीन अपनी असाधारण शक्ति के प्रयोग में हिन्दू विवाह अधिनियम १९५५ की धारा १३ के अधीन कार्यवाही को धारा १३-ख के अधीन कार्यवाही में परिवर्तित कर सकता है और छह मास की सांविधिक अवधि के अवसान का इंतज़ार किये बिना पारस्परिक तलाक की आज्ञप्ति पारित कर सकता है .कोई अन्य न्यायालय ऐसी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकते हैं .
इसी केस में उच्चतम न्यायालय ने आगे यह धारित किया है कि अनुमति देने वाले पक्षकारों में से एक अपना या अपनी अनुमति आज्ञप्ति पारित करने से पूर्व प्रत्याहृत कर लेते हैं तब उच्चतम न्यायालय के सिवाय कोई भी न्यायालय पारस्परिक सहमति की आज्ञप्ति पारित करने के लिए सक्षम नहीं है क्योंकि विद्यमान विधियों के अधीन पक्षकारों द्वारा पारस्परिक सहमति से तलाक के लिए संयक्त याचिका संस्थित करने के समय दी अनुमति को तब तक अस्तित्व में रहना होता है जब तक कि तलाक की आज्ञप्ति पारित नहीं कर दी जाती है .
इसलिए जब पति -पत्नी के सम्बन्ध टूटने की कगार पर पहुँच चुके हों तब एक दूसरे से बदले की भावना को छोड़कर अच्छा है कि पारस्परिक सहमति से संबंधों की समाप्ति थोड़ी नरमाई से कर ली जाये .

शालिनी कौशिक
[कानूनी ज्ञान ]

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