धन्यवाद शालिनी जी, अभी भी एक सवाल बाकी है | अपने वाद के अनुसार पूछता हूँ|
पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए 3 भाई एक नए शहर में बस गए| उन्होंने खुली नीलामी में अलग अलग कई संपतियां प्राप्त की, जो सभी 33×3 वर्ष की लीज पर प्राप्त हुई| इनमें से 2 भाइयों ने साझे नाम से भी 2-3 संपतियां प्राप्त की| अधिकतर प्लाट इन्होने शुरू के 12-15 सालों में विक्रय कर दिए|
इन दो भाइयों में से एक ने अपने तन्हा नाम से प्राप्त एक प्लाट में अपने परिवार के साथ रिहाईश शुरू की, और दुसरे को भी उसके एक भाग में रहने के लिए बुला लिया (जिसे लाइसेंस का नाम दिया गया) | दुसरे भाई की मृत्यु १९७३ में हो गई (पर उसकी विधवा के नाम लाइसेंस जारी रहा) और उसके बाद २०१५ तक जारी रहा| इस बीच पहले भाई, दुसरे भाई की पत्नी और उसके पुत्रों की भी मृत्यु हो चुकी थी (लेकिन लाइसेंस जारी रहा)|
उक्त प्लाट की पहले ३३ वर्ष की लीज 1989 में समाप्त होने बाद दोबारा नहीं बड़ी| २०१२ में सरकार की फ्री होल्ड नीति आने पर पहले भाई की पत्नी ने अपने उत्तराधिकार के कारण व नगरनिगम के कर निर्धारण रजिस्टर में अपना नाम दर्ज होने के कारण उक्त प्लाट को अपने हक में फ्रीहोल्ड करने का आवेदन किया| जिसपर दुसरे भाई के बेटे की पत्नी ने आपति करते हुए अपना प्रतिआवेदन किया| इस प्रतिआवेद्न के में उन्होंने एक “जबानी खानदानी बंटवारे का यादाश्तनामा” नामक दस्तावेज को अपने आवेदन का आधार बनाया| इसके बाद पहले भाई की पत्नी ने अपने वकील के माध्यम से दुसरे भाई के परिवार की रिहाईश का लाइसेंस निरस्त कर दिया (यहाँ गौरतलब बात यह है की लाइसेंस जैसी कोई भी बात कभी भी लिखित में नहीं हुई थी) और कोर्ट में कोर्ट में बेदखली एवं हर्जाने का वाद दाखिल कर दिया|
उक्त दस्तावेज में 1964 में बंटवारा तय होना खा गया है व दस्तावेज 1977 में तैयार हुआ है जिसमें पहले भाई के साइन व दुसरे भाई की पत्नी का अंगूठा है| बतौर गवाह उक्त दोनों भाइयों के बड़े तीसरे भाई व दुसरे भाई की साले के साइन हैं|
हालांकि यह भाई कभी भी संयुक्त परिवार में नहीं रहे हैं |
आपका मार्गदर्शन चाहिए | सधन्यवाद |
स्वयं द्वारा किये गए कानून के अध्ययन के अनुसार मेरा जवाब यह है –
प्रवीण कुमार बाम सेवंथ एडिशनल डि ० जज मेरठ ए ० आई० आर ० १९९४ इलाहाबाद १५३ के अनुसार ”एक पट्टेदार की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारी संयुक्त अभिधारी हो सकते ,वे सामान्यिक अभिधारी होंगे।
इस तरह सामान्यिक अभिधृति में केवल कब्जे की एकता होती है स्वत्व की नहीं ,अतः एक अभिधारी के मरने पर उसकी सम्पति उसके उत्तराधिकारियों को न्यागत होती है ,इस तरह प्लाट तनहा था इसलिए उसके उत्तराधिकारी ही समानयिक अभिधारी हुए फिर पट्टे की अवधि १९८९ के बाद बढ़ी नहीं इसलिए धारा १११ [क ] के अनुसार तद्द्वारा परिसीमित समय बीत जाने पर उस पट्टे का पर्यवसान हो गया।
फिर रही लाइसेंस की बात तो सुखाधिकार अधिनियम की धारा ५२ कहती है –
”अनुज्ञप्ति वह अधिकार है जो अनुदाता द्वारा अपनी किसी अचल संपत्ति में या पर कोई कार्य करने या करते रहने के लिए किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के निश्चित समूह को प्रदान किया जाता है ,और जिस अधिकार के बिना ऐसा कुछ करना अवैध होगा ,बशर्ते वह अधिकार कोई सुखाधिकार नहीं है ,या उस संपत्ति में कोई हित नहीं है .”
और यहाँ क्योंकि पट्टे व् अनुज्ञप्ति अर्थात लाइसेंस दोनों की बात है तो पट्टे व् अनुज्ञप्ति में महत्वपूर्ण अंतर यह है कि पट्टे में संपत्ति या हित का अंतरण होता है और अनुज्ञप्ति में संपत्ति का कोई अंतरण नहीं होता .अनुज्ञप्ति ,अनुज्ञप्तिधारी के कार्य को वैध बनाता है ,जो बिना ऐसी अनुज्ञप्ति के अवैध होगा .
उच्चतम न्यायालय द्वारा २०१२ में मंगल एम्यूज़मेंट पार्क [प्रा०]लिमिटेड बनाम मध्य प्रदेश राज्य ]में दिए गए निर्णय के अनुसार यह स्पष्ट है कि पट्टा न केवल संविदा है बल्कि पट्टेदार के पक्ष में सर्वबंधी अधिकार सृजित करते हुए पट्टाकृत संपत्ति में हित की परिकल्पना करता है और को अंतरित करता है इसके विपरीत अनुज्ञप्ति केवल उस कार्यवाही को विधिपूर्ण बनाती है ,जिसके बिना वह विधिविरुद्ध होगा किन्तु संपत्ति के सम्बन्ध में अनुज्ञप्तिधारी के पक्ष में कोई हित सृजित नहीं करता .
और अंत में रही जबानी खानदानी बंटवारे का याददाश्त नामा तो यहाँ वह भाई उस संपत्ति का तनहा मालिक था और केवल उसके उत्तराधिकारी ही ऐसे जबानी खानदानी बंटवारे का याददाश्त नामा प्रस्तुत कर संपत्ति में हक़ हासिल कर सकते हैं उनसे अलग अगर कोई भी संपत्ति में अपना हिस्सा दिखाता है तो उसे अंतरण दिखाना होगा और ऐसा करार भली भांति रजिस्टर्ड दस्तावेज के रूप में ,तभी उसकी कोई मान्यता हों सकती है .
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