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contest -३ क्या हिंदी सम्मानजनक भाषा के रूप में मुख्यधारा में लाई जा सकती है ……..अफ़सोस ये कि नहीं …..

! मेरी अभिव्यक्ति !
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contest -३ क्या हिंदी सम्मानजनक भाषा के रूप में मुख्यधारा में लाई जा सकती है ……..अफ़सोस ये कि नहीं …..
सबका अभिमान है हिंदीहिंदी अपनाओहिंदी देश का मानहिंदी हमारी पहचान
भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने कहा था –
”निज भाषा उन्नति अहै ,सब उन्नति को मूल ,
बिनु निज भाषा ज्ञान के ,मिटे न हिय को शूल ”
महात्मा गाँधी जी ने हिंदी को स्वराज्य वाहिका माना था .हमारे प्रत्येक नेता ने यथावसर हिंदी को भारत की जनता की भाषा कहा है .देश के राजनेताओं के लिए हिंदी का महत्व यहाँ से पता चलता है कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की ”डाइनिंग टेबिल ”का नियम था कि वहां बैठने पर सभी हिंदी में ही बात करेंगे और यहाँ की जनता से जुड़ने के लिए इटली निवासी होने पर भी भारतीय बहू बनने पर सोनिया गाँधी जी ने हिंदी सीखी और आज जनसभाओं में गर्व से वे हिंदी भाषा में ही जनता को संबोधित करती हैं .
हमारे संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया गया क्योंकि हिंदी का स्थान निर्विवाद रूप से राष्ट्रभाषा का है .आज से नहीं कई सदियों से ,महा प्रभु वल्लभाचार्य तथा संत कवियों ,भक्त कवियों से लेकर स्वामी दयानंद सरस्वती ,महात्मा गाँधी ,नेहरु जी तक प्रत्येक लोकनायक एवं लोकसेवक ने जनता की भाषा के रूप में ,राष्ट की बोली के रूप में हिंदी को अपनाया .संत कबीर ने कहा –
”संस्कीरत जल कूप है ,भाषा बहता नीर .”
गोस्वामी तुलसीदास ने भी भारत के कोने कोने तक श्री राम कथा का सन्देश पहुँचाने के लिए हिंदी भाषा का प्रयोग करना आवश्यक समझा .
इस तरह हिंदी की मान्यता के अनगिनत उदाहरण हो सकते हैं किन्तु फिर भी अफ़सोस और वह भी इसलिए कि हिंदी एक सम्मानजनक भाषा के रूप में मुख्यधारा में नहीं लाई जा सकती ,कारण सबके समक्ष है –
सर्वप्रथम तो संविधान निर्माण के समय ही हिंदी को १५ वर्ष का वनवास दे दिया गया .हिंदी इस देश की राष्ट्रभाषा कभी न बन सके इसके लिए केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने दो राजभाषा अधिनियम बनाये हैं .राजभाषा अधिनियम ३४३/१ के अधीन हिंदी के साथ अंग्रेजी को सहभाषा के रूप में प्रचलित रखने का प्रावधान किया गया इसके फलस्वरूप यह स्थिति बनी कि हिंदी के साथ अंग्रेजी को प्रचलित रखने की अवधि १५ वर्ष निश्चित कर दी गयी परन्तु अब यह अवधि अनिश्चित कालीन कर दी गयी है .राजभाषा अधिनियम की धरा ३/१ में यह जोड़ दिया गया है कि जब तक भारत के एक भी राज्य की सरकार हिंदी को अपने राज्य की राजभाषा स्वीकार करने में संकोच करेगी तब तक हिंदी पूरे संघ की राजभाषा नहीं हो सकेगी .स्पष्ट है कि इस प्रावधान द्वारा हिंदी के संघ की राजभाषा बनने की सम्भावना को सदा सर्वदा के लिए नकार दिया गया .तमिलनाडु जैसे राज्य तो हिंदी के कदीमी विरोधी थे ही नागालैंड जैसा छोटा राज्य भी अंग्रेजी को राजभाषा स्वीकार कर चुका है अतःकई ऐसे राज्य हैं जिनसे हिंदी के पक्ष में अर्थात राष्ट्रभाषा के पक्ष में निर्णय की आशा नहीं की जा सकती .
फिर जब स्वतंत्रता प्राप्ति के समय जनता पर एकाधिकार से प्रभुत्व रखने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरु ये कह सकते हैं –
”हिंदी तथा अहिन्दी भाषियों को दो भागों में बाँट देने से देश का भारी अहित होगा .हिंदी को रजामंदी से आगे ले जाना है ,अगर हिंदी वाले जबरदस्ती करेंगे तो दूसरे लोग ऐंठ जायेंगे इससे ऐसी खाई पैदा हो जाएगी जो हिंदी के लिए नहीं वरन पूरे देश के लिए घातक सिद्ध होगी .हिंदी को और ताकत मिलेगी यदि हिंदी के साथ अंग्रेजी को सहायक भाषा रहने दिया जाये ,क्योंकि अंग्रेजी के जरिये नए नए विचार आते रहेंगे .”
साथ ही ,अपनी सादगी भरी जीवन शैली व् उच्च विचारों वाले तत्कालीन गृहमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी यह कह सकते हैं-
”जब तक हिंदी विकसित नहीं हो जाती और जब तक लोग उसे अच्छी तरह सीख नहीं लेते ,तब तक अंग्रेजी को बनाये रखना ही पड़ेगा .”
फिर आज के किसी नेता से तो इस सम्बन्ध में प्रभावशाली पहल की आशा करना ही व्यर्थ है क्योंकि आज के नेता तो इन नेताओं के महान चरित्र व् त्यागमयी भावनाओं के पास भी नहीं फटकते .ऐसे मे वे हिंदी के लिए सम्मानजनक स्थान बनाने की ओर बढ़ भी सकेंगे ,ये हम सोच भी नहीं सकते क्योंकि पहले के नेता नेता न होकर देश पर मरने मिटने वाले होते थे और आज के नेता देश को ही अपने पर लुटाने वाले होते हैं और ये तथ्य सभी जानते हैं .
और सबसे बढ़कर इस दिशा में हम स्वयं को पायेंगें जिन्हें भले ही टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलनी पड़े किन्तु वह अपनी समृद्ध हिंदी के समक्ष अपने शीश को गर्व से उठाने के लिए आवश्यक जान पड़ती है .आज अहिन्दी भाषियों की तो क्या कहें हिंदी भाषी क्षेत्रों के परिवार अपने बच्चों को ‘कॉवेन्ट ‘में पढ़ाने की इच्छा रखते हैं भले ही उधार लेकर पढाना पड़े .प्राचीन गुरुकुल मान्यता अब समाप्त हो चुकी है क्योंकि भारतीय जनता जमीन पर बैठकर भोजन करने की नहीं अपितु चेयर -टेबिल पर बैठ लंच ,डिनर की आदि हो चुकी है .
इसलिए अफ़सोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि हिंदी कभी भी सम्मानजनक भाषा के रूप में मुख्य धारा में नहीं लाई जा सकती क्योंकि मुख्य धारा ही अब अंग्रेजी के रंग में रंगीली हो चुकी है .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]

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