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अफज़ल गुरु आतंकवादी था कश्मीरी या कोई और नहीं …..
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ,
मैं गद्दारों को धरती में जिंदा गड्वाने निकला हूँ ,
वो घाटी से खेल रहे हैं गैरों के बलबूते पर ,
जिनकी नाक टिकी रहती है पाकिस्तानी जूतों पर .”
”गीत जब मर जायेंगे फिर क्या यहाँ रह जायेगा ,
एक सिसकता आसुंओं का कारवां रह जायेगा ,
आग लेकर हाथ में पगले जलाता है किसे ,
जब न ये बस्ती रहेगी तू कहाँ रह जायेगा .”
धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर भारतवासियों के लिए स्वर्गवास का कारण बनकर रह गया वहां का अलगाववाद इस कदर हावी हुआ कि भारतीय जनता निर्दोष होते हुए भी बलि का बकरा बनती रही .अपनी स्थिति के सही स्वरुप को न समझते हुए वहां के युवा का भटकाव इस कदर उसकी सनक बन गया कि वहां से अफज़ल गुरु नाम का एक युवा भारत के लोकतंत्र के प्रमुख स्तम्भ ”संसद ”पर ही हमले के षड्यंत्र के लिए आगे बढ़ गया .१३ दिसंबर २०११ को साजिश के तहत जो हमला भारतीय संसद पर हुआ उसका मुख्या साजिश कर्ता ”अफज़ल गुरु ” था .इस हमले में संसद के ९ सुरक्षा कर्मियों को शहीद होना पड़ा .हमला करने वाले सभी आतंकी मारे गए किन्तु साजिश करने वाला अफज़ल गुरु अभी तक कहीं और सुरक्षित बैठा था किन्तु भारतीय दिमाग के सामने कब तक बचता ,पकड़ा गया और मौत की सजा के अधीन हुआ इसी क्रम में ९ फरवरी २०१३ को उसे तिहाड़ जेल में फाँसी पर लटका दिया गया और ये फाँसी पर जो लटका ये वह अपराधी था जिसने ऐसी गंभीर साजिश की थी कि यदि वह साजिश सफल हो जाती तो भारतीय लोकतंत्र की नैय्या ही डूब सकती थी इसीलिए उसे जो सजा मिली वह भारतीय कानून के अनुसार अपराधी को मिली न कि किसी कश्मीरी या मराठी ,या उत्तर भारतीय या किसी दक्षिण भारतीय को नहीं .
किन्तु एक गलती यहाँ भारतीय सरकार से हो गयी और वह भी यूँ कि यहाँ कानूनी प्रक्रिया के अनुसार ही कार्य करने की संस्कृति है यहाँ का सूत्र वाक्य है -”कि भले ही सौ गुनाहगार छूट जाएँ किन्तु एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए ”जबकि जो कार्य अफज़ल गुरु ने किया था वह इस सद्भाव का अधिकारी ही नहीं था उसका परिणाम तो वैसा ही होना चाहिए था जैसा आमतौर पर पुलिस द्वारा मुठभेड़ के मामलों में किया जाता है अफज़ल ने जो किया उसे उसका दंड भी मिलगया धरती के कानून के अनुसार किन्तु उसने जिस जिसका घर उजाड़ा उसका दंड तो .उसे ऊपरवाले के कानून के अनुसार ही मिलेगा किन्तु सियासत को अपनी सियासी चालों का दंड कब मिलेगा और कौन देगा ये कुछ नहीं कहा जा सकता .सियासत की आँखें आज बिलकुल अंधी हो चुकी हैं उसे केवल अपना स्वार्थ दीखता है और कुछ नहीं किसी भी तरह हो सत्ता अपने हाथ में होनी चाहिए भले ही देश समुन्द्र में समां जाये या दुश्मन देश के अधीन हो जाये उसे इस बात से कोई मतलब नहीं .अफज़ल की पत्नी व् बच्चे का दर्द उन्हें दिख रहा है किन्तु जिन वीरों की जिंदगी अफज़ल ने छीन ली क्या वे धरती पर अकेले ही पैदा हुए थे ?क्या उनका कोई नहीं था? जिससे अफज़ल ने उन्हें छीन लिया .इस तरफ क्यूं नहीं सोच पाते ये राजनीतिज्ञ और मानवाधिकारवादी ?ये वे ही लोग हैं ये वे ही लोग हैं जिनके बारे में एक शायर कह गए हैं –
”बस्ती जला के आये थे जो बेसहारा लोग ,
नारे लगा रहे हैं वो अमनों अमान के .’
और रही बात गोपनीय रूप से फाँसी देने की तो इसका जवाब सरकार पर दोषारोपण करने वालों ने स्वयं ही दे दिया है .जब तक नहीं दी गयी थी तब तक उसे डरपोक और जब दे दी गयी तब उसे क्रूर जैसे संज्ञाएँ देकर उन्होंने स्वयं ही सरकार के कार्य को सही साबित कर दिया है .देश में व्यवस्था बनाये रखने के लिए और आम जनों की सुरक्षा के लिए सरकार को ऐसे कदम भी कभी कभी उठाने पड़ते हैं जिन्हें अगर हम खुली आँखों से देखें तो उनकी सराहनीय सोच को समझ सकते हैं .देश की सरकार हमारी चुनी हुई सरकार है और हमने ही स्वयं उसे ये अधिकार दिया है कि वह सही समय पर सही निर्णय ले और देश को विपत्तियों से निबटने के योग्य बनाये .अगर हम स्वयं ही अपनी सरकार पर भरोसा नहीं करेंगे तो हम किस पर भरोसा करेंगे .आज जो हाथ सरकार के साथ होना चाहिए वह हाथ हम कहीं और बढाकर अपने देश से ही गद्दारी कर रहे हैं ऐसे में हमें यही समझ लेना चाहिए –
”महाफिज़ा के इशारे पे डूब जाते हैं ,
कई सफीने किनारे पे डूब जाते हैं ,
जिन्हें खुदा पे भरोसा नहीं हुआ करता
वो नाखुदा के इशारे पे डूब जाते हैं .”
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
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