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ग़ज़ल-बहाने बेटे की सुध ले हिन्द की माना अब डर के .[contest ]

! मेरी अभिव्यक्ति !
! मेरी अभिव्यक्ति !
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तशददुद करने चले हैं ये मुखालिफ पर कमर कस के ,
चलाते तीर ज़हरीले शहद को मुंह में ये भर के .
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क़त्ल से बेगुनाहों के भरे नापाक जो दामन ,
चुभाना चाह रहे नश्तर वफ़ादारी में चिढ़कर के .
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वतन के कायदे को ही सीखा जो अदब देना ,
दिखा खुद की ये गद्दारी उसे कायर बताकर के .
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मिली है कुदरत से जिसको मुहब्बत इस ज़माने की ,
उसे ये छीनना चाहे महज ऊँगली उठाकर के .
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सजाकर महफ़िलें अपनी बरसते हैं मुखालिफ पर ,
मर्ज़ सदियों पुराना ये चढ़ा है आज सिर कर के .
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नहीं कुछ काम करने को नहीं कुछ बात कहने को ,
हमेशा काँधे दूजे के चलाये गोली चढ़ कर के .
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मांगते फिर रहे पैसा मांगते फिर रहे लोहा ,
ख्वाब क्या देंगे ये हमको यूँ खाली हाथ रखकर के .
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विदेशी कह किया बाहर जिसे मौका-परस्तों ने ,
बहाने बेटे की सुध ले हिन्द की माना अब डर के .
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हिन्द ने झेला मजहब के नाम पर दहशत और दंगा ,
नहीं फिर देगा वो अवसर देखा एक बार देकर के .
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लगाना तोहमत ही इनकी बनी एक आम फितरत है ,
न दिखता कुर्सी से आगे न उससे पीछे जाकर के .
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”शालिनी” मुल्क को अपने ऐसे हाथों में कैसे दे ,
चले जो राज करने को मुखौटे मुख पे धर कर के .
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शालिनी कौशिक
[कौशल]

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