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…………मर्दों के यूँ न कटें पर .

! मेरी अभिव्यक्ति !
! मेरी अभिव्यक्ति !
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फिरते थे आरज़ू में कभी तेरी दर-बदर ,

अब आ पड़ी मियां की जूती मियां के सर .

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लगती थी तुम गुलाब हमको यूँ दरअसल ,

करते ही निकाह तुमसे काँटों से भरा घर .

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पहले हमारे फाके निभाने के थे वादे ,

अब मेरी जान खाकर तुम पेट रही भर .

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कहती थी मेरे अपनों को अपना तुम समझोगी ,

अब उनको मार ताने घर से किया बेघर .

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पहले तो सिर को ढककर पैर बड़ों के छूती ,

अब फिरती हो मुंह खोले न रहा कोई डर .

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माँ देती है औलाद को तहज़ीब की दौलत ,

मक्कारी से तुमने ही उनको किया है तर .

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औरत के बिना सूना घर कहते तो सभी हैं ,

औरत ने ही बिगाड़े दुनिया में कितने नर .

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माँ-पिता,बहन-भाई हिल-मिल के साथ रहते ,

आये जो बाहरवाली होती खटर-पटर .

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जीना है जो ख़ुशी से अच्छा अकेले रहना ,

”शालिनी ”चाहे मर्दों के यूँ न कटें पर .

………….

शालिनी कौशिक

[WOMAN ABOUT MAN]

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