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”संपत्ति ” इस संसार का एक ऐसा शब्द है जहाँ सारा संसार थम जाता है .संपत्ति हो तो सब कुछ ,संपत्ति न हो तो कुछ भी नहीं की स्थिति है .संपत्ति का अधिकार ऐसा अधिकार है जिसे भारतीय संविधान ने भी मूल अधिकारों से अधिक आवश्यक समझा और ४४ वे संविधान संशोधन द्वारा १९७८ में मूल अनुच्छेद ३१ द्वारा प्रदत्त संपत्ति के मूल अधिकार को समाप्त कर इसे अध्याय ३१ अंतर्गत अनु.३०० क में सांविधानिक अधिकार के रूप में समाविष्ट किया है .इस प्रकार यह अधिकार अब सांविधानिक अधिकार है मूल अधिकार नहीं जिसका विनियमन साधारण विधि बनाकर किया जा सकता है .इसके लिए सांविधानिक संशोधन की आवश्यकता नहीं होगी और इसके परिणाम स्वरुप अनु.१९[च] और ३१ को संविधान से लुप्त कर दिया गया है .इस अधिकार को एक सांविधानिक अधिकार के रूप में बनाये रखने के लिए जो नया अनुच्छेद ३००[क] जोड़ा गया है वह यह उपबंधित करता है :
”कोई व्यक्ति विधि के प्राधिकार के बिना अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जायेगा .”
नए अनुच्छेद ३०० [क] के अधीन किसी व्यक्ति की संपत्ति को राज्य द्वारा अर्जित किये जाने के लिए केवल एक शर्त है और वह है विधि का प्राधिकार .किस उद्देश्य के लिए तथा क्या उसके लिए कोई प्रतिकर दिया जायेगा और दिया जायेगा तो कितना दिया जायेगा ,इन प्रश्नों का निर्धारण विधायिका के [निरसित किये गए अनु.३१ के अधीन ये दोनों शर्तें आवश्यक थी ]अधीन होगा .इस संशोधन के फलस्वरूप अब भाग ३ में प्रदत्त मूल अधिकारों और अनु.३००[क] के अधीन संपत्ति के सांविधानिक अधिकार में अंतर केवल इतना है कि मूल अधिकारों के प्रवर्तित कराने के लिए नागरिक अनु.३२ और अनु.२२६ के अधीन न्यायालय में जा सकते हैं जबकि किसी व्यक्ति के अनु.३००[क] के अधीन संपत्ति के सांविधानिक अधिकार के राज्य द्वारा उल्लंघन किये जाने की दशा में अनु.३२ के अधीन न्यायालय से उपचार नहीं मांग सकता है वह केवल अनु.२२६ के अधीन उच्च न्यायालय में ही जा सकता है .
इस प्रकार संविधान ने इस अनुच्छेद का उपबंध विधि के प्राधिकार के बिना व्यक्तियों को संपत्ति से वंचित न किये जाने के लिए किया है .क्योंकि संपत्ति का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है .सामाजिक आर्थिक क्रांति में संपत्ति का महत्वपूर्ण योगदान होता है ..आधुनिक औद्योगिक समाज में इसलिए इसको शीर्ष पर रखा गया है ..विश्व की राजनीतिक व्यवस्थाएं भी इसी अवधारणा के अंतर्गत दक्षिण ,मध्य और वाम तीन भागों में विभाजित हो गयी है .संत थामस एक्विनास के मध्ययुगीन दर्शन शास्त्र और उसके बाद के दशकों में तथा सुआरेज के शास्त्र में भी संपत्ति को ,यद्यपि प्राकृतिक अधिकार की विषय वस्तु न मानकर केवल सामाजिक उपादेयता और सुविधा की विषय वस्तु माना गया था ,परन्तु लाक के विधिक दर्शन में इसे मानव के अहरणीय प्राकृतिक अधिकार के रूप में मान लिया गया था .सामंतवादी समाज में भूस्वामित्व तो एक महत्वपूर्ण विधिक अधिकार ही बन गया था ..पश्चिम में वाणिज्य और उद्योग के सतत विकास के परिणाम स्वरुप व्यक्ति को संपत्ति से वंचित करने की आवश्यकता महसूस की गयी .संपत्ति को मार्क्स की विवेचनाओं में आधुनिक आद्योगिक समाज की कुंजी भी माना गया .उत्पादन स्रोतों के स्वामी होने के कारण पूंजीपति प्रभावशाली ढंग से समाज पर नियंत्रण स्थापित करने लगे .मार्क्स के सिद्धांतों में इस पूंजीवादी नियंत्रण को समुदाय के हाथों में स्थानांतरित करने का औचित्य प्रतिपादित किया गया .समय के बदलते स्तरों के साथ साथ भूमि और उद्योगों का स्वामित्व स्थानांतरित होकर समुदाय के हाथों में आने लगा और फिर समुदाय इन्हीं के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था पर ”नियंत्रण ”स्थापित करने में सफल हो सका ……
संपत्ति के अधिकार का इतिहास-
संपत्ति का अधिकार ,चूंकि एक ऐसा अधिकार माना गया है ,जो अन्य अधिकारों को प्रभावशाली ढंग से प्रभावी करने में सहायक होता है इसलिए भारतीय संविधान का अनुच्छेद ३१ अतिपरिवर्तन शील अनुच्छेद माना गया क्योंकि उसने जितना अधिक अपना रूप परिवर्तित किया उतना किसी अन्य अनुच्छेद ने नहीं किया .इसका कारण यह था कि केंद्र और राज्य ,दोनों ने ही संपत्ति के अधिकार को विनियमित करने के लिए कृषि सुधार ,राष्ट्रीय करण और राज्यों के नीति निदेशक तत्वों के क्रियान्वयन हेतु बहुत अधिक विधायन कार्य सम्पादित कर डाले .कृषि क्षेत्र में आर्थिक व्यवस्था को ठीक करने और समाजवादी ढांचे पर चलने वाले नूतन समाज के निर्माण के लिए केंद्र और राज्य दोनों की सरकारों के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वे विधान का निर्माण कर खेत जोतने वालों को भूमि का स्वामित्व प्रदान करें ,ज़मींदारी व्यवस्था को समाप्त करें .शहरी क्षेत्रों में गृहविहीन व्यक्तियों को आवासीय सुविधाएँ प्रदान करने ,शहरी गंदगी को समाप्त करने और विकास तथा नगरीय योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता महसूस की जाने लगी .इन्हीं सब कारणों से व्यापक पैमाने पर विधायन लाये गए और अनुच्छेद ३१ के स्वरुप में कई बार परिवर्तन करने पड़े .
संविधान का अनुच्छेद ३१ [१] किसी भी व्यक्ति को बिना विधिक प्राधिकार के संपत्ति से वंचित करने के विपरीत संरक्षण प्रदान करता था ;इसके साथ ही साथ अनुच्छेद ३१[२] ऐसी संपत्ति के अनिवार्य अर्जन अथवा अधिग्रहण के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता था ,जो लोक उद्देश्यों की परिपूर्ति के लिए विधिक प्राधिकार द्वारा किसी राशि का भुगतान करके अर्जित अथवा अधिग्रहित न की गयी हो .इन्ही उपबन्धों की अनुपूर्ति में अनुच्छेद १९[१]च के अंतर्गत समस्त नागरिकों को संपत्ति के अर्जन ,धारण और व्ययन की स्वतंत्रता प्रदान की गयी थी .इस स्वतंत्रता पर केवल साधारण लोकहित एवं अनुसूचित जनजातियों के हितों की सुरक्षा में युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते थे परन्तु राष्ट्र की संविधानिक प्रणाली में ,राष्ट्रीय योजनाओं के माध्यम से जब जब देश की भयंकर गरीबी को समाप्त करके समाजिक न्याय प्रदान करने के उद्देश्य से सार्वजानिक क्षेत्रों के निर्माण का प्रयास किया गया तब तब व्यक्तिगत हित इस मार्ग में रूकावट डालने को आ डटा. न्यायपालिका ने भी सामाजिक न्याय के स्थान पर ,जो संविधान निर्माताओं का स्वप्न था ,विधि की सक्षमता पर ही बल दिया जिसके परिणाम स्वरुप सहकारी नीतियां ,जनकल्याण के कार्य और सामाजिक न्याय प्रभावित होते रहे [गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य ए.आई.आर १९६७ एस,सी.१६४]
यद्यपि प्रतिकर की राशि के भुगतान के सन्दर्भ में न्यायपालिका ने यह भी अभिनिर्णय प्रदान किया कि संपत्ति के अनिवार्य अर्जन अथवा अधिग्रहण के बदले में यदि कोई राशि विधि द्वारा निश्चित कर दी गयी है ,या उसे निश्चित या निर्धारित करने के सिद्धांत उस विधि में समाहित कर दिए गए हैं तो उसकी युक्तियुक्त्ता अथवा उसकी अपर्याप्तता को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती [कर्णाटक राज्य बनाम रंगनाथ रेड्डी १९७७ [४] एस.सी.सी.४७१ ]परन्तु यह स्थिति राष्ट्रीय योजनाओं के क्रियान्वयन में बाधक थी .गलत सामाजिक सिद्धांत मान्यताएं ,जो अब परिवर्तित परिस्थितियों में समाप्त होती जा रही हैं ;विदेशी न्यायिक सिद्धांत जैसे -प्रभुता अधिकार का सिद्धांत [doctrine of eminent domain ] ,सामाजिक हित के समक्ष व्यक्तिगत हित की प्रमुखता आदि अव धारणाएं उन स्वप्नों को साकार कर सकेंगी ,जिन्हें संविधान निर्माताओं ने देखा था और जिनको पूरा करने के लिए अनुच्छेद ३१ के अंतर्गत संपत्ति के अनिवार्य अर्जन अथवा अधिग्रहण की व्यवस्था की गयी थी .भारत को आगे बढ़ाना था .सम्पत्ति का दुराग्रही अधिकार इस मार्ग में रोड़ा बन रहा था .इसी सन्दर्भ में भारत की संसद ने अपनी संविधायी शक्ति का प्रयोग करके संविधान
[४४ वां संशोधन अधिनियम ‘१९७८] पारित किया था और संपत्ति को मूल अधिकार का स्वरुप प्रदान करने वाले अनुच्छेद १९[१]च एवं ३१ को संविधान से निकाल दिया था .इस अधिनियम की धरा ३४ के अंतर्गत संविधान के भाग १२ में एक नए अध्याय [अध्याय-४ ]को अंतर्विष्ट करके अनुच्छेद ३००-क का निर्माण किया गया है .यह अनुच्छेद संपत्ति के अधिकार को मान्यता तो प्रदान करता है परन्तु उसे एक विधिक अधिकार के रूप में देखता है ,मूल अधिकार के रूप में नहीं .
जीलू भाई नान भाई काहर बनाम गुजरात राज्य ए.आई.आर .एस.सी.१४२ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि अनुच्छेद ३००-क के अधीन गारंटी किया गया संपत्ति का अधिकार संविधान का आधारभूत ढांचा नहीं है ,बल्कि यह एक संवैधानिक अधिकार है .”.
मूल अधिकार से अंतर –
मूल अधिकार व् सामान्य विधिक अधिकार में अंतर यह है कि सामान्य विधिक अधिकार विधान पालिका की कृपा पर व्यक्तियों को सुलभ होते हैं ,मूल अधिकार स्वयं संविधान द्वारा उसी रूप में प्रदत्त होता है .सामान्य विधिक अधिकार विधायकों द्वारा किसी भी समय समाप्त अथवा न्यून किये जा सकते हैं परन्तु मूल अधिकार उनकी पहुँच से उस सीमा तक बाहर रहते हैं ,जिस सीमा तक अथवा जिस विधि से स्वयं संविधान उनकी पहुँच से दूर रहता है .सामान्य विधिक अधिकारों के विपरीत सामान्य न्यायपालिका से ही उपचार प्राप्त हो सकता है परन्तु मूल अधिकार देश की सर्वोच्च विधि संविधान और सर्वोच्च न्यायलय द्वारा सुरक्षित होते हैं .
संपत्ति क्या है –
संपत्ति शब्द की न्यायालयों ने बड़ी विशद व्याख्या की है .उनके मतानुसार संपत्ति शब्द में वे सभी मान्य हित शामिल हैं जिनमे स्वामित्व से सम्बंधित अधिकारों के चिन्ह या गुण पाए जाते हैं .सामान्य अर्थ में ‘संपत्ति’ शब्द के अंतर्गत वे सभी प्रकार के हित शामिल हैं जिनका अंतरण किया जा सकता है ;जैसे पट्टेदारी या बन्धकी [कमिश्नर हिन्दू रेलिजन्स इन्दौमेन्ट बनाम लक्ष्मीचंद ए.आई.आर .१९५४ एस.सी.२८४ इस प्रकार इसके अंतर्गत मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के अधिकार शामिल हैं [द्वारका दास श्री निवास बनाम शोलापुर स्पिनिंग एंड विविंग कंपनी ए.आई.आर .१९५४ एस.सी. ११९ ]जैसे रुपया ,संविदा ,संपत्ति के हिस्से ,लाइसेंस ,बंधक ,वाद दायर करने का धिकार ,डिक्री ,ऋण ,हिन्दू मंदिर में महंत का पद ,कंपनी में अंशधारियों के हित आदि .’पेंशन ‘पाने का अधिकार संपत्ति है . पेंशन सरकार की इच्छा और प्रसाद के अनुसार अभिदान नहीं है .इसे कार्यपालिका आदेश द्वारा नहीं लिखा जा सकता है [आल इंडिया रिजर्व बैंक अधिकारी संघ बनाम भारत संघ ए.आई.आर.१९९२ एस.सी.१६७ ]
विधि के प्राधिकार के बिना वैयक्तिक संपत्ति से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता है –
अनुच्छेद ३००-क यह उपबंधित करता है कोई भी व्यक्ति विधि के प्राधिकार के बिना अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जायेगा .इसका तात्पर्य यह है कि राज्य को वैयक्तिक संपत्ति लेने का अधिकार प्राप्त है किन्तु ऐसा करने के लिए उसे किसी विधि का प्राधिकार प्राप्त होना चाहिए .कार्यपालिका के आदेश द्वारा किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता ,राज्य ऐसा केवल विधायनी शक्ति के प्रयोग द्वारा ही कर सकता है .वजीर चंद बनाम ए.पी.राज्य ए.आई.आर.१९५८ एस.सी.९२ के मामले में जम्मू और कश्मीर की पुलिस के आदेश द्वारा पिटिशनर की संपत्ति जब्त कर ली गयी थी .उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधि के प्राधिकार के बिना पिटिशनर की संपत्ति जब्त करना अविधिमान्य था .
अनुच्छेद ३००-क का संरक्षण नागरिक व् अनागरिक दोनों को समान रूप से प्राप्त है .यह अनुच्छेद राज्य के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है व्यक्ति के विरुद्ध नहीं [पी.डी.सम्दसनी बनाम सेन्ट्रल बैंक ए.आई.आर १९५२ एस.सी.५९।
वैयक्तिक विधियों में प्राप्त संपत्ति का अधिकार –
भारत में विभिन्न धर्मों की वैयक्तिक विधियों द्वारा भी व्यक्ति को संपत्ति का अधिकार प्राप्त होता है ,जो निम्न है –
*मुस्लिम विधि -में –
१-सुन्नी विधि के अंतर्गत तीन प्रकार के उतराधिकारी होते हैं-
क-हिस्सेदार
ख-शेषांश
ग- दूर के नातेदार
परन्तु शिया विधि के अंतर्गत दो प्रकार के उतराधिकारी होते हैं –
१-हिस्सेदार
२-शेषांश सम्बन्धी .
२-सुन्नी विधि के अंतर्गत हिस्सेदार शेषांश सम्बन्धियों का अपवर्जन करते हैं और शेषांश सम्बन्धी दूर के नातेदारों का .
शिया विधि के अंतर्गत हिस्सेदार और शेषांश सम्बन्धी सब मिलकर तीन वर्गों में विभाजित हैं .पहला दूसरे को और दूसरा तीसरे को दाय से अपवर्जित करता है .
३-सुन्नी विधि किसी ज्येष्ठाधिकार को मान्यता नहीं देती परन्तु शिया विधि उसे कुछ सीमा तक मान्यता देती है .जिन संपत्तियों को ज्येष्ठ पुत्र अकेले प्राप्त करने का हक़दार है वे हैं -मृतक के वस्त्र ,अंगूठी ,तलवार और कुरान .
४-सुन्नी विधि प्रतिनिधित्व के सिद्धांत की मान्यता को कुछ सीमित दृष्टान्तों तक परिसीमित कर देती है परन्तु शिया विधि में वह उत्तराधिकार का मुख्य आधार है .
५-सुन्नी विधि में मानव हत्या प्रत्येक अवस्था में मारे गए व्यक्ति की संपत्ति के उत्तराधिकार में अवरोध है ,परन्तु शिया विधि में केवल तब जब साशय ऐसा किया जाये तभी रूकावट होती है .
६- सुन्नी विधि के अंतर्गत वृद्धि[औल]का सिद्धांत ,जिसके बाद यदि हिस्सेदार का कुल योग इकाई से अधिक होता है तो प्रत्येक हिस्सेदारों का अंश कम हो जाता है ,सभी हिस्सेदारों पर समान रूप से लागू होता है ,परन्तु शिया विधि के अंतर्गत वृद्धि [औल]का सिद्धांत केवल पुत्रियों और बहनों के प्रति ही लागू होता है .
*हिन्दू विधि –
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