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संस्कृति रक्षक केवल नारी

! मेरी अभिव्यक्ति !
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यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहाँ से,

बाकी अभी है लेकिन, नामों निशां हमारा.

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,

सदियों रहा है दुश्मन, दौरे ज़मां हमारा.


भारतीय संस्कृति की अक्षुणता को लक्ष्य कर कवि इक़बाल ने ये ऐसी अभिव्यक्ति दी जो हमारे जागृत व अवचेतन मन में चाहे-अनचाहे विद्यमान  रहती है. साथ ही इसके अस्तित्व में रहता है वह गौरवशाली व्यक्तित्व जिसे प्रभु ने गढ़ा ही इसके रक्षण के लिए है और वह व्यक्तित्व विद्यमान है हम सभी के सामने नारी रूप में. दया, करुणा, ममता, प्रेम की पवित्र मूर्ति. समय पड़ने पर प्रचंड चंडी, मनुष्य के जीवन की जन्मदात्री, माता के समान हमारी रक्षा करने वाली, मित्र और गुरु के समान हमें शुभ कार्यों के लिए प्रेरित करने वाली. भारतीय संस्कृति की विद्यमान मूर्ति श्रद्धामयी नारी के विषय में ”प्रसाद” जी लिखते हैं-


”नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पग तल में,

पियूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में.”


संस्कृति और नारी एक-दूसरे के पूरक कहे जा सकते हैं. नारी के गुण ही हमें संस्कृति के लक्षणों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं. जैसे भारतीय नारी में ये गुण है कि वह सभी को अपनाते हुए गैरों को भी अपना बना लेती है, वैसे ही भारतीय संस्कृति में विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से आई संस्कृतियाँ समाहित होती गयीं और वह तब भी आज अपना अस्तित्व कायम रखे हुए है. यह गुण उसने नारी से ही ग्रहण किया है.


संस्कृति मनुष्य की विभिन्न साधनाओं की अंतिम परिणति है. संस्कृति उस अवधारणा को कहते हैं जिसके आधार पर कोई समुदाय जीवन की समस्याओं पर दृष्टि निक्षेप करता है. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में-


”नाना प्रकार की धार्मिक साधनाओं, कलात्मक प्रयत्नों और भक्ति तथा योगमूलक अनुभूतियों के भीतर मनुष्य उस महान सत्य के व्यापक और परिपूर्ण रूप को क्रमशः प्राप्त करता जा रहा है, जिसे हम ”संस्कृति” शब्द द्वारा व्यक्त करते हैं.”


इस प्रकार किसी समुदाय की अनुभूतियों के संस्कारों के अनुरूप ही सांस्कृतिक अवधारणा का स्वरूप निर्धारित होता है. संस्कृति किसी समुदाय, जाति अथवा देश का प्राण या आत्मा होती है. संस्कृति द्वारा उस जाति, राष्ट्र अथवा समुदाय के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है, जिनके सहारे वह अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों आदि का निर्धारण करता है और ये समस्त संस्कार जीवन के समस्त क्षेत्रों में नारी अपने हाथों से प्रवाहित करती है. जीवन के आरम्भ से लेकर अंत तक, नारी की भूमिका संस्कृति के रक्षण में अमूल्य है.


भारतीय संस्कृति का मूल तत्व ”वसुधैव कुटुम्बकम ”है. सारी वसुधा को अपना घर मानने वाली संस्कृति का ये गुण नारी के व्यवहार में स्पष्ट दृष्टि गोचर होता है. पूरे परिवार को साथ लेकर चलने वाली नारी होती है. बाप से बेटे में पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कार भले ही न दिखाई दें, किन्तु सास से बहू तक किसी भी खानदान के रीति-रिवाज़ व परम्पराएं हस्तांतरित होते सभी देखते हैं.


”जियो और जीने दो” की परंपरा को मुख्य सूत्र के रूप में अपनाने वाली हमारी संस्कृति अपना ये गुण भी नारी के माध्यम से जीवित रखते दिखाई देती है. हमारे नाखून जो हमारे शरीर पर मृत कोशिकाओं के रूप में होते हैं, किन्तु नित्य प्रति उनका बढ़ना जारी रहता है. हमारी मम्मी ने ही हमें बताया था कि उनकी दादी ने उनको बताया था कि नाखून काटने के बाद इधर-उधर नहीं फेंकने चाहियें, बल्कि नाली में बहा देना चाहिए. हमारे द्वारा ऐसा करने का कारण पूछने पर मम्मी ने बताया कि यदि ये नाखून कोई चिड़िया खाले, तो वह बाँझ हो सकती है और इस प्रकार हम अनजाने में चिड़ियों की प्रजाति के खात्मे के उत्तरदायी हो सकते हैं.


इन्सान जितना पैसे बचाने के लिए प्रयत्नशील रहता है, शायद किसी अन्य कार्य के लिए रहता हो. हमारी मम्मी ने ही हमें बताया कि जब पानी भर जाये, तो टंकी बंद कर देनी चाहिए. क्योंकि पानी यदि व्यर्थ में बहता है, तो पैसा भी व्यर्थ में बहता है, अर्थात खर्च होता है व्यर्थ में.


घरों में आम तौर पर सफाई के लिए प्रयोग होने वाली झाड़ू के सम्बन्ध में दादी, नानी, मम्मी सभी से ये धारणा हम तक आई है कि झाड़ू लक्ष्मी स्वरूप होती है. इसे पैर नहीं लगाना चाहिए और यदि गलती से लग भी जाये, तो इससे क्षमा मांग लेनी चाहिए. ये भावना नारी की ही हो सकती है कि एक छोटी सी वस्तु का भी तिरस्कार न हो.


हमारी संस्कृति कहती है कि जैसा व्यवहार आप दूसरों से स्वयं के लिए चाहते हो वही दूसरों के साथ करो. अब चूंकि सभी अपने लिए सम्मान चाहते हैं, ऐसे में नारी द्वारा झाड़ू जैसी छोटी वस्तु को भी लक्ष्मी का दर्जा दिया जाना संस्कृति की इसी भावना का पोषण है. वैसे भी ये मर्म एक नारी ही समझ सकती है कि यदि झाड़ू न हो तो घर की सफाई कितनी मुश्किल है और गंदे घर से लक्ष्मी वैसे भी दूर ही रहती हैं. हमारी संस्कृति कहती है-


”यही पशु प्रवत्ति है कि आप आप ही चरे,

मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे.”


भूखे को भोजन खिला उसकी भूख शांत करना हमारी संस्कृति में मुख्य कार्य के रूप में सिखाया गया है. इसका अनुसरण करते हुए ही हमारी मम्मी ने हमें सिखाया कि तुम दूसरे को खिलाओ, वह तुम्हें मुहं से दुआएँ दे या न दे आत्मा से ज़रूर देगा.


भारतीय संस्कृति की दूसरों की सेवा सहायता की भावना ने विदेशी महिलाओं को भी प्रेरित किया. मदर टेरेसा ने यहाँ आकर इसी भावना से प्रेरित होकर अपना सम्पूर्ण जीवन इसी संस्कृति के रक्षण में अर्पित कर दिया. आरम्भ से लेकर आज तक नर्स की भूमिका नारी ही निभाती आ रही है. क्योंकि स्नेह व प्रेम का जो स्पर्श मनुष्य को जीवन देने के काम आता है, वह प्रकृति ने नारी के ही हाथों में दिया है.


हमारी ये महान संस्कृति परोपकार के लिए ही बनी है और इसके कण-कण में ये भावना व्याप्त है. संस्कृत का एक श्लोक कहता  है-


”पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः,

स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः.

नादन्ति शस्याम खलु वारिवाहा,

परोपकाराय  सताम विभूतयः.”


नारी अपने फ़र्ज़ के लिए अपना सारा जीवन कुर्बान कर देती है. अपना या अपने प्रिय से प्रिय का भी बलिदान देने से वह नहीं हिचकती है. जैसे इस संस्कृति में पेड़ छाया दे शीतलता पहुंचाते हैं, नदियाँ प्यास बुझाने के लिए जल धारण करती हैं. माँ ”गंगा ”का अवतरण भी इस धरती पर जन-जन की प्यास बुझाने व मृत आत्माओं की शांति अौर मुक्ति के लिए हुआ. वैसे ही नारी जीवन भी त्याग बलिदान की अपूर्व गाथाओं से भरा है.


इसी भावना से भर पन्ना धाय ने अपने पुत्र चन्दन का बलिदान दे कुंवर उदय सिंह की रक्षा की. महारानी सुमित्रा ने इसी संस्कृति का अनुसरण करते हुए बड़े भाइयों की सेवा में अपने दोनों पुत्र लगा दिए. देवी सीता ने इस संस्कृति के अनुरूप ही अपने पति चरणों की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया. उर्मिला ने लक्ष्मण की आज्ञा पालन के कारण अपने नयनों से अश्रुओं को बहुत दूर कर दिया.


नारी का संस्कृति रक्षण में सहभाग ऐसी अनेकों कहानियों को अपने में संजोये है, इससे हमारा इतिहास भरा है, वर्तमान जगमगा रहा है और भविष्य भी निश्चित रूप में सुनहरे अक्षरों में दर्ज होगा.

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