- 63 Posts
- 72 Comments
आज सत्तापक्ष के 4-5 मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हवा खा रहें हैं ऐसे में जनता एक सीधा सा सवाल जानना चाहती है कि जिस भ्रष्टाचार की बात देश की जनता करना चाह रही है, क्या सरकार द्वारा सुझाये गये लोकपाल विधेयक में उसी बातों का उल्लेख है? यदि हाँ! तो सरकार साफ तौर पर उसका जिक्र करें न कि कभी सांप्रदायिकाता की आड़ लें तो कभी संसद की आड़ लेकर देश को गुमराह करने का काम करें।
भारत जब से आजाद हुआ इसके आजादी के मायने ही बदल गये। सांप्रदायिकता के नये–नये अर्थ शब्द कोश में भरने लगे। इसका सबसे ताजा उदाहरण है भ्रष्टाचार की बात करने वाले भी अब सांप्रदायिक तकतों से हाथ मिला लिये। कुछ दिन पहले बाबा रामदेव के लिए लाला कारपेट बीछाने वाली कांग्रेस को अचानक से एक ही दिन में सांप्रदायिक नजर आने लगे। अब अन्ना हजारे पर भी आरोप मढ़ दिया कि वे भ्रष्टाचार की लड़ाई में सांप्रदायिक ताकतों को साथ लेकर सरकार से लड़ाई कर रहे हैं। जब तक कांग्रेसियों का मन होगा और आप उनकी बात मानते रहेगें वो धर्मनिरपेक्ष नहीं तो सांप्रदायिक।
सरकार के जो बयान हमें पढ़ने और सुनने को मिल रहें हैं वे न सिर्फ तानाशाही बयान है बल्कि भ्रष्टाचार के मुद्दे की उन सभी बातों को सांप्रदायिकता के साथ जोड़ मुसलमानों के एक वर्ग को इस आन्दोलन से अलग–थलग रखना चाहती है। कांग्रेस एक तरफ असम का उदाहरण देती है तो दूसरी तरफ तामिलनाडू के चुनाव परिणामों को बताना भूल जाती है। एक तरफ देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दर्शाती है तो दूसरी तरफ अपंग जन लोकपाल बिल की वकालत करती है। एक तरफ विधेयक के प्रारूप पर चर्चा करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुला रही है तो दूसरी तरफ सिविल सोसाईटी के सदस्यों को सांप्रदाकिता से जोड़ कर देश को गुमराह करना चाहती है। भला हो भी क्यों नहीं? पिछले 30 सालों में देश के अन्दर धर्मनिपेक्षता के मायने काफी बदल गये। देश में बुद्धिजीवियों की एक बहुत बड़ी जमात पैदा हो गई जो देश को सांप्रदायिक ताकतों से बचाकर रखना चाहती है। ये वही है जो एक समय देश को गांधी परिवार से बचा कर रखना चाहती थी। सरकार चाहती है कि वे अपनी सभी बातों को सांप्रदायिकता की आड़ लेकर मना लें। भला हो भी क्यों नहीं हम जब अन्ना को तानाशाह के रूप में स्वीकार कर सकतें हैं तो सरकार के सभी बातों को जायज क्यों नहीं मान सकते। सिविल सोसाईटी के सदस्य क्या चाहतें हैं और इनके द्वारा सूझाये गये सुझावों को कौन संसद में कानून की मान्यता देगा? जब मान्यता देने वाले ही वे लोग है जो खुद को चुने हुए देश के प्रतिनिधि मानते हैं तो उनको इतना भय किस बात का हो गया कि वे 16 अगस्त के अनशन को संसद की चुनौती मान रहे हैं? जब सरकार अपने सूझाये गये बिल पर इतनी ईमानदार है तो बजाय बिल में सूझाये गये अपने पक्ष को मजबूती से रखने के समाज सदस्यों पर बयानबाजी करने की क्या जरूरत पड़ गई? जब सरकार खुद ही मानती है कि संसद से ऊपर कोई नहीं, तो इसमें यह भी जोड़ दें कि सरकार भी संसद से ऊपर नहीं है। जन लोकपाल का विधेयक संसद में सरकार लायेगी और गलत विधेयक का संसद के बाहर विरोध करना और उसके विरोध में जनता के बीच अपनी बातों को पंहुचाना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। परन्तु सरकार शब्दों के प्रयोग से देश को भ्रमित करने का प्रयास कर रही है। माना कि भारत की अदालतें शब्दों के बाजीगर को महत्व देती है पर यहाँ अदालत में बहस नहीं देश की संसद के भीतर सांसदगण अपना पक्ष रखेगें। देश की जनता से जुड़े कई सवाल इस लोकपाल बिल से जुड़ चुकें हैं। आज सत्तापक्ष के 4-5 मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हवा खा रहें हैं ऐसे में जनता एक सीधा सा सवाल जानना चाहती है कि जिस भ्रष्टाचार की बात देश की जनता करना चाह रही है, क्या सरकार द्वारा सुझाये गये लोकपाल विधेयक में उसी बातों का उल्लेख है? यदि हाँ! तो सरकार साफ तौर पर उसका जिक्र करें न कि कभी सांप्रदायिकाता की आड़ लें तो कभी संसद की आड़ लेकर देश को गुमराह करने का काम करें।
You can read more article from my blogs:
Read Comments