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वह ‘ऐंठाकर’ मर गया

om namh shiway
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(दिल से)

वह ‘ऐंठाकर’ मर गया

मंगलवार रात के साढ़े 12 बजे। हम भागलपुर (बिहार) के मायागंज अस्पताल में थे। दिन में नाथनगर की एक महिला की गला रेतकर हत्या की कोशिश की गई थी, हम उसकी हालत देखने यहां आए थे। आकस्मिक विभाग की ओर जाने वाला रास्ता इनडोर की ओर आधी दूरी तक मरीजों से भरा पड़ा था। अचानक एक अधेड़ महिला अपने बेटे के साथ बदहवास भागती-रोती अंदर की ओर आती दिखी। रोते हुए दबी सी आवाज में उसके मुंह से निकल रहा था- देखैं न सूइया देलकै और हूनी की रंग करै लगलै (देखो न सूई लगाया और वो कैसे करने लगे हैं)! महिला साथ एक युवक भी दौड़ रहा था। वह उनका बेटा था। इमरजेंसी के डॉक्टर कक्ष के ठीक सामने महिला के पति का शरीर जमीन पर बिछाए गए बेड पर ऐंठा (अकड़) रहा था। बदहवास बेटा कुछ कदम आगे बढ़ गया (शायद वह नहीं समझ पाया था कि उसके पिता कहां हैं), पर महिला अपने पति के शरीर के पास रुक जाती है। अधेड़ का हटठा-कट़ठा शरीर लगातार ऐंठाता जा रहा था। महिला की बदहवास सी रुलाई सुनकर से लोग वहां जुटने लगे। वह लोगों को डॉक्टर को बुलाने को कहने लगी। सीनियर डॉक्टर विश्राम कक्ष इस मरीज के ठीक बांयी ओर था, मुश्किल से दो से तीन मीटर की दूरी पर। डॉक्टर यहां आपस में हा-हा-ठी-ठी में मशगूल थे। सुरक्षा गार्डों की शायद हिम्मत नहीं हुई कि बड़े डॉक्टरों की आनंद में खलल डालें। उन्होंने इमरजेंसी इंट्री करने वाले जूनियर डॉक्टरों को जानकारी दी। इनमें से एक जब तक पहुंचा तब तक अधेड़ की शरीर का ऐंठन बंद हो चुका था। उनके प्राण पखेरू हो चुके थे। जूनियर डॉक्टर भी हताशा की भाव में था। आला लगाया, फिर टार्च मंगाकर आंख की पुतलियों को खोलकर देखा और सिर हिलाकर इशारे में बोला अब ये नहीं रहे।

सहसा याद आया, बचपन में मेरी मां हमारी मातृभाषा (भोजपुरी) में कहती थी- वोकरा गलती दवाई दे देलस और वू ऐंठा के मर गइल! मां किसके बारे में कहती थी याद नहीं, पर 38वां बसंत पार करने के बाद मैंने पहली बार अपने सामने एक व्यक्ति को ऐंठाकर मरते देखा।
मैंने एक अभागी औरत को देखा जो पता नहीं क्यों खुलकर रो भी नहीं पा रही थी।
मैंने एक मजबूर बेटे को देखा जो मायागंज के ‘आतंकी डॉक्टरों’के पास पूछने गया कि आखिर वह कौन सी सूई थी जिसे लगाने के दो मिनट के अंदर उसके पिता मर गए और डॉक्टरों व उसके गुर्गों ने उसे डरा-समझाकर बाहर निकाल दिया।
मैंने उन वरिष्ठ डॉक्टरों को भी देखा जो इस लाश के बगल के कमरे में हंसी-ठिठोली कर रहे थे।

ये दृश्य मेरी नजरों से हट नहीं रहे। महिला की घुटी-घुटी से क्रंदन के बीच डॉक्टरों की हंसी-ठिठोली रावण के अट्टहास जैसी कानों में गूंज रही है। यही है इस मायागंज अस्पताल की व्यवस्था! उफ! रूह कांप उठती है, शरीर का रोंआ खड़ा हो जाता है।
सोचता हूं उस बेटे के बारे में जो अपने पिता को भर्ती करने के बाद बाहर टहल रहा था और माँ के बताने पर उसके साथ भागते हुए आया था। उसके मन में विश्वास रहा होगा कि अब उसके पिताजी को कुछ नहीं होगा, पर कुछ ही मिनट में यहां की हकीकत उसके पिता की मौत के रूप में सामने आती है।
सोच रहा हूं डॉक्टरों के सेवा भाव के बारे में! यहां वह कहीं नहीं दिखता।
एक दिन पहले इसी मायागंज में एक बच्चे की मौत डॉक्टरों की लापरवाही से हुई थी। तब परिजन ने हंगामा किया था और जूनियर डॉक्टरों ने उनके साथ छायाकार विद्यासागर की जमकर पिटाई की थी। इसके पहले भी किसी मरीज की मौत पर सवाल उठाने वालों को जूनियर डॉक्टर यहां पीटते रहे हैं। तो सवाल यह था कि क्या अपना पति खो चुकी अधेड़ रुकमणी इसलिए खुलकर रो नहीं रही थी कि कहीं जोर से रोई तो डॉक्टर उसे और उसके बेटे को पीट न दें। पता नहीं, उस माँ ने कुछ कहा नहीं, बस वह सिसकते-सुबकते पति की लाश को सहलाकर उसमें प्राण लाने की जतन करती जा रही थी।
अधेड़ चंद्रदीप मंडल (जिनकी मौत हुई) घोघा के रहने वाले थे। बेटा संजय मंडल पटना में किसी होटल में काम करता है। संजय ने बताया कि उसके पिता हृदय रोग के मरीज थे, पर स्थिति उतनी भी गंभीर नहीं थी। डॉक्टरों से पूछा तो कहा गया कि सूई लगने से मौत नहीं हुई है, पर सच यही है कि सूई लगने के दो मिनट के अंदर मौत हो गई थी।

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