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पगली, पाश इलाके में

om namh shiway
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भागलपुर। बिहार का दूसरा सबसे महत्‍वपूर्ण जिला। कभी उपराजधानी बनाने को लेकर राजनीति भी होती रही है।
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शहर के पाश इलाके में शुमार खंजरपुर का इलाका। व्यस्ततम घुरन शाह पीरबाबा चौक से सुंदरवती महिला कालेज की ओर बढ़ते ही एक अधेड़ औरत अस्त-व्यस्त स्थिति में दिखती है। कमर के नीचे कपड़े का एक टुकड़ा… मैला-कुचैला…। यह किसी प्रकार से उसकी ‘लज्जा’ को ढके है। लेकिन, कमर के ऊपर नग्न। कभी अपनी दोनों हाथों से छाती को छिपाती तो कभी यूं ही टहलने लगती। बेफिक्र। बंग्ला में बड़बड़ाती यह महिला ‘पगली’ के नाम से जानी जाती है।
एसएसपी महिला, एएसपी महिला, डीएसपी महिला, उप महापौर महिला और एक महिला का यह हाल, वह भी महिला कॉलेज के रास्ते में। फर्ज कीजिए कॉलेज आती-जाती लड़कियों को कितनी शर्मिंदगी महसूस होती होगी। वैसे, शर्मसार पुरुष राहगीर भी होते हैं और नजर झुकाकर आगे बढ़ जाते हैं। पर, कुछ बेशर्म यहां भी फब्तियां कसने से नहीं चूकते।
पगली का इलाका पीरबाबा चौक से स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की मुख्य शाखा तक लगभग पचास मीटर में सिमटा है। भोजन भीख मांगकर। नित्यक्रिया और रहना-सोना सब सड़क किनारे, सबके सामने। यह जगह स्थानीय कोर्ट, समाहरणालय, आयुक्त कार्यालय, सचिवालय (संयुक्त भवन) से बिलकुल ही करीब है। स्टेट बैंक की मुख्य शाखा के पास पगली को हर किसी लोगों ने नंग-धड़ंग देखा है। पुलिस की भी ड्यूटी यहां लगी रहती है। जिले का मुख्‍य बैंक होने के कारण राजनीतिक, सामाजिक एवं स्वयंसेवी संस्थाओं के लोग भी यहां आते-जाते हैं, पर पगली के लिए किसी के पास वक्त कहां? स्थानीय महेश कुमार, शिवम आदि ने बताया कि पगली तकरीबन तीन वर्षों से यहां पर है। शुरू-शुरू में अजीबोगरीब लगता था, पर अब तो यहां लोगों की आदत सी पड़ गई है। कुछ लफंगों व नए आने वालों को छोड़ दें तो पगली पर अब शायद ही किसी की नजर जाती है। विडंबना यह है कि एक पखवारा पूर्व ही विश्व मानसिक सप्ताह (10 से 16 अक्टूबर) का समापन हुआ है। भागलपुर में जिला विधिकक प्राधिकार की ओर से कोई कार्यक्रम किया गया या नहीं, यह मुझे ज्ञात नहीं। यानी, मानसिक रोगियों के नाम के सात दिन भी बीत चुके हैं। भागलपुर में और भी कई पागल-पगली हैं। कुत्सित मानसिकता वाले इनका भी शारीरिक शोषण करते हैं, इसके कई उदाहरण हैं।
बहरहाल, पगली को देखकर स्‍वभाविक तौर पर संवेदनशील हो जाता हूं। ये वाकई दया के पाञ हैं और होना चाहिए। पर, हमारे सभ्‍य समाज की संवेदना शायद इनके लिए नहीं है, क्‍योंकि ये कभी भी किसी का मुद़दा तक नहीं बन पाते हैं और मुद़दा बनाने वाले मंच के भी लोग इसे तरजीह नहीं देते, सवाल होता है कि आखिर इसमें क्‍या है?
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संरक्षण को कानून, पर नहीं होता अनुपालन
अधिवक्ता संजय मोदी बताते हैं कि लावारिस घूमते मानसिक रोगी को उस क्षेत्र के थानाध्यक्ष न्यायालय के समक्ष उपस्थित कराएंगे और न्यायालय उन्हें मानसिक आरोग्यशाला भेज देगा। आम लोग भी इसकी सूचना पुलिस को दे सकते हैं। ऐसा देश के 1987 मेंटल एक्ट में प्रावधान है। पर, कानून सिर्फ किताब में है, धरातल पर इस पर अमल किए जाने का शायद ही कोई उदाहरण है।

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