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एनडीए और महागठबंधन के बीच चर्चा में कांग्रेसी अजीत शर्मा

om namh shiway
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भागलपुर लोकसभा क्षेञ। यहां राजनीतिक हलकों में चर्चा आम है कि जदयू भागलपुर सीट से एक मजबूत नेता को उतारना चाह रही है। यह मजबूत नेता अभी महागठबंधन से जुड़ा है। जदयू नेतृत्व और उस नेता के बीच बातचीत चल रही है। उसके लिए ही इस सीट पर अड़ गया है जदयू। यही कारण है कि अभी तक भाजपा का कोई सक्षम या बड़ा नेता अपनी इस परंपरागत और माहौल बनाने वाली सीट पर भी दावा नहीं ठोंक पा रहा है।
अब सवाल यह कि महगठबंधन से वह मजबूत नेता कौन? राजद में वैसा कोई मजबूत नेता दिखता नहीं जो जदयू ज्वाइन कर भागलपुर से चुनाव लडऩे का ख्वाहिशमंद हो। रालोसपा और हम के बारे में तो सोच भी नहीं जाती। यानी वह कोई कांग्रेसी हो सकता है। कांग्रेस के मजबूत नामों में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी पहले ही जदयू में आ चुके हैं। पार्टी उन्हें चुनाव लड़ाएगी भी तो किसी सुरक्षित (आरक्षण रोस्टर के तहत) सीट से। फिर वह कौन है जो भागलपुर सीट से चुनाव लडऩा चाहता हो? जवाब दो नामों पर ठहरता है। कहलगांव के विधायक सदानंद सिंह एवं भागलपुर के विधायक अजीत शर्मा। राजनीतिक तौर पर दोनों की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से नजदीक भी माने जाते हैं।
राजनीतिक गुणा-भाग करें तो इसमें पलड़ा अजीत शर्मा का भारी समझ में आता है। अजीत शर्मा संसदीय चुनाव लडऩा चाहते भी होंगे। 2009 में वे बसपा से संसदीय चुनाव लड़ चुके हैं। चर्चा यह भी कि वे दो बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से इस बारे में मिल चुके हैं। उनकी समर्थक कोमल शृष्टि कहती हैं कि संसदीय क्षेत्र की जनता चाहती है कि अजीत शर्मा चुनाव लड़ें। उनके घर जाकर देखिए तो पूरे संसदीय क्षेत्र की जनता आ रही है और चुनाव लडऩे का दबाव बना रही है। वे सांसद बनेंगे तो ही क्षेत्र का चहुंमुखी विकास होगा।
बहरहाल अगर यह सीट जदयू को जाता है और अजीत शर्मा उम्मीदवार बनाए जाते हैं तो इसका सबसे अधिक राजनीतिक फायदा भाजपा के अश्विनी चौबे गुट को होगा। जदयू को सीट जाते ही इस गुट के लिए हमेशा की चुनौती बन चुके पूर्व सांसद और भाजपा के संभावित प्रत्याशी शाहनवाज हुसैन की यहां से दावेदारी स्वत: खत्म हो जाएगी और उनका गुट भी छिन्न-भिन्न हो जाएगा। तब फिर से अश्विनी चौबे भागलपुर भाजपा की राजनीति में सर्वमान्य हो जाएंगे।
चौबे गुट का दूसरा बड़ा फायदा 2020 में विधानसभा चुनाव के नजरिए से भी है। कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में अजीत शर्मा भागलपुर विधानसभा के सबसे मजबूत नेता हैं। उन्हें अब आगे के विधानसभा चुनाव में भी हरा पाना भाजपा के लिए उतना आसान नहीं होगा। डेढ़ बार विधानसभा का चुनाव (एक उपचुनाव और फिर 2015 का चुनाव) जीतकर उन्होंने इसका अहसास करा भी दिया है। अगर शर्मा लोकसभा में जदयू के उम्मीदवार बन गए तो चुनाव हार भी गए तो विधानसभा में भागलपुर उनकी वापसी नहीं होगी। तब चौबे पुत्र अर्जित शास्वत के लिए भागलपुर विधानसभा सीट पर जीत गारंटी हो जाएगी।
यानी शर्मा लोकसभा में जदयू के उम्मीदवार बनें और वे जीते या हारें इससे चौबे गुट का स्वास्थ्य सुधरेगा ही। लिहाजा उनको जदयू का टिकट दिलाने की फिल्डिंग अश्विनी चौबे भी कर सकते हैं। ऐसे में भाजपा शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर यहां पार्टी की गुटबाजी को जोरदार तरीके से रखा-दिखाया जा सकता (रहा) है।
दूसरी ओर भाजपा के बिहार के सबसे बड़े नेता सुशील मोदी और नीतीश कुमार की दोस्ती जगजाहिर है। ऐसे में कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार की भागलपुर सीट की डिमांड का बहुत विरोध नहीं करेंगे। इस बीच एक चर्चा यह भी उठती है कि 2004 में जिस प्रकार चौबे-दुबे की लड़ाई के बीच सुशील मोदी भागलपुर से चुनाव लडऩे आ गए थे, उसी प्रकार चौबे-शाहनवाज की लड़ाई के बीच इतिहास न दुहरा दें। हालांकि मोदी के अत्यंत करीबी पंकज राय कहते हैं कि अभी तक उनकी ऐसी कोई मंशा नहीं दिखी है। इससे इतर अलग पक्ष यह भी है कि बीच के कालखंड में सुशील मोदी और अश्विनी चौबे के बीच की रिश्ते तल्ख हुए थे। इसलिए अगर वे खुद नहीं भी आते हैं तो चेक एंड बैलेंस नीति के तहत वे शाहनवाज हुसैन के पक्ष में खड़े हो सकते हैं।
अब बात सदानंद सिंह के जदयू में आकर संसदीय चुनाव में उतरने की संभावना की। कहा जा रहा है कि चुनाव लडऩे की उनकी मंशा है। पर वे इतने घाघ नेता हैं कि उनकी राजनीति को समझ पाना आसान नहीं। बिहार कांग्रेस में उनसे अधिक कद्दावर नेता कोई और नहीं है। वे इस हैसियत को शायद ही छोडऩा चाहें। आगामी विधानसभा चुनाव के लिए उन्होंने अपने पुत्र शुभानंद मुकेश को पहले ही कांग्रेस में लांच कर रखा है। कहलगांव सीट हमेशा वे अपने दम पर ही जीतते रहे हैं। राजद का साथ उनके पुत्र की जीत सुनिश्चित करेगा। अभी के सर्वे में महागठबंधन की स्थिति अनुकूल दिख रही है, सो राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि उन्हें भी पता है कि अगर कहीं महागठबंधन की सरकार बनी तो कहीं के राज्यपाल भी बनाए जा सकते हैं।
ऐसे में अगर महागठबंधन से किसी के जदयू में आने की चर्चा गर्म है तो वह मजबूत नाम अजीत शर्मा के रूप में सबसे ऊपर दिखता है। इस तर्क पर राजनीतिक पर ठीक-ठाक पकड़ रखने वाले हमारे वरिष्ठ सहयोगी कामरान हाशमी और राजनीतिक विशेषज्ञ विजय वर्धन कहते हैं कि भाजपा बांकी 39 सीट छोड़ देगी पर भागलपुर नहीं। क्योंकि भागलपुर आरएसएस का गढ़ है। यहां से भाजपा के पक्ष में माहौल तैयार होता है। यह सीट संताल परगना और कोसी-सीमांचल और पूर्व बिहार की राजनीति का गेट वे ऑफ इंट्री है। और शाहनवाज की गतिविधियां भी बता रही है कि उन्हें भी पार्टी नेतृत्व के स्तर पर कुछ इशारा मिला होगा। वे खुद भाजपा के केंद्रीय चुनाव समिति में हैं। अगर सीट जदयू को जाने वाला होता तो वे यूं जनसंपर्क शुरू कर भविष्य में अपनी भद पिटवाने की व्यवस्था नहीं करते। इसलिए उनका भाजपा प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लडऩा तय है। हालांकि इस जदयू के स्थानीय नेता कहते हैं कि सीट किसके हिस्से में आता है यह तो ऊपरी स्तर से तय होगा, पर हमारी जानकारी यह है कि सीट बंटवारे तक भागलपुर सीट पर हमारी मजबूत दावेदारी है।
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मैं चाहता हूं कांग्रेस यहां से चुनाव लड़े : अजीत शर्मा
विधायक अजीत शर्मा कहते हैं कि मैं फिलहाल कांग्रेस में हूं। मैंने लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए न तो किसी से संपर्क किया है और न ही किसी दल से ऐसा कोई ऑफर मिला है। पर मेरी इच्छा है कि कांग्रेस भागलपुर संसदीय सीट से चुनाव लड़े। 1989 में हिंदु-मुस्लिम झगड़े के बाद यह सीट कांग्रेस के हाथों से फिसली और फिर पार्टी का प्रदर्शन आगे के वर्षों में पूरे देश में गिरता गया। मेरी मंशा है कि कांग्रेस इसी सीट से अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को फिर से प्राप्त कर अपने स्वर्णिम इतिहास को दुहराने की दिशा में बढ़े। इसलिए शीर्ष नेतृत्व इस सीट से चुनाव लडऩे पर गंभीरता से विचार करे।

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