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अगली होली मोहे, बस जिंदा रख दीजो
कसम से, होली का अपना एक अलग ही मजा है। नीली, पीले, लाल, गुलाबी तरह-तरह के रंग, पानी की बौछार, हुल्लड़ और उमंग, भाभियों संग ठिठोली साथ ही भांग की एक गोली सब कुछ तो है इस त्योहार में। सच में जीवन के कई रंग इस त्योहार में दिख जाते हैं। हम गांव-कुनबा के लोग तो होली का काफी पहले से इंतजार करते हैं। होली के त्योहार की बात की जाए और उसमें भांग न शामिल हो, यह तो हो ही नहीं सकता है। होली और भांग का चोली दामन का रिश्ता है। यह शंकर बूटी गले से उतरते ही अपना रंग दिखाने लगती है। धरती की तरह सिर भी अपनी धुरी पर घूमना शुरू करता है और हम कुछ ही पलों में कल्पना लोक की सैर करने लगते हैं। इसके सुरूर में हम जैसे पुराने लोग कभी धर्मेंदर बन जाते हैं तो कभी जितेंदर और नए चिंटुओं की क्या बात करें, कोई ससुरा अपने को सलमान तो कोई रितिक समझने लगता है। यह भांग भरपूर मजा तो कराती ही है लेकिन इसका एक कटु सत्य यह भी है कि इस बूटी का जादू सिर चढ़ते ही लोग अपने मन में छिपे दर्द को दूसरों के सामने उजागर करना शुरू कर देते हैं। मेरे गांव में इस बार होली महोत्सव के दौरान इस बार कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला। वहां बड़े क्या छोटे-छोटे बच्चे भी भांग के सुरूर में होली के हुड़दंग में चार चांद लगा रहे थे। लोग बारी-बारी से आते और अपने दिल का दुखड़ा सबको सुनाते।
हर काम में आगे रहने वाले पूर्व विधायक सुक्खी भला इस काम में पीछे कैसे रहते। ये कुछ दिनों पहले तक विधायक थे लेकिन इस बार वे चमत्कारिक ढग़ से हर गए हैं। वे मंच पर आए और शुरू हो गए ‘सत्ता का रंग भी क्या रंग होता है, ससुरा छूटता ही नहीं। एक बार जो चढ़ गया तो बड़ी से बड़ी कंपनी का साबुन-शैम्पू तो क्या अच्छे से अच्छा ड्राइक्लीनर तक धोना तो दूर इसे हल्का भी नहीं कर सकता है। जब सत्ता में था तो बाकी सब चीजों की तरह होली का मजा भी अलग ही था। गिफ्टों से पूरा घर भर जाता था। गिफ्ट देखकर बीबी तो खुश होती ही थी, सालियां भी फूले नहीं समाती थीं। कुछ दिन पहले शनि के बुरे प्रभाव से मेरी कुर्सी चली गई लेकिन कोई बात नहीं फिर सेटिंग हो गई है। एक बार फिर दल बदल रहा हूं। सत्ताधारी दल में शामिल होने जा रहा हूं। वैसे भी मैं हर रंग के झंडे तले अब तक फलता-फूलता रहा हूं। आज भी भगवान से यही मांग रहा हूं कि अगली होली तक मोहे सत्ता सुख फिर दे दीजो।
सुक्खी जैसे ही मंच से उतरे वैसे ही दिवाकर छलांग मारते हुए मंच पर जा पहुंचा। यह कुछ सालों पूर्व प्रदेशस्तर का हॉकी खिलाड़ी था। दिवाकर उर्फ पुत्तू झूमते हुए पूरे जोश के साथ शुरू अपनी बात कहने लगा …
‘देखो भईया, नशे में न समझना। पूरी तरह होश में हूं। बाहर से खुश हूं लेकिन अंदर से रो रहा हूं। होली हो या भांग की गोली दोनों ही मेरे लिए फीकी हैं। काश, मैंने अम्मा-बाबू की बात मान ली होती। हॉकी छोड़ बैट-बल्ला खेला होता तो किसी सरकारी विभाग में बाबू तो बन ही जाता। अब तो आईपीएल भी शुरू हो गया है 10-12 लाख सालाना तो इसी में चित हो जाते। अब रोने से क्या लाभ। अम्मा तो कहती ही थीं, पुत्तू सरऊ हॉकी छोड़ बल्ला पकड़ काहे लखिया की तरह जिंदगी बरबाद कर रहा है। इस खेल में पैसा नहीं है। सचिन, सेहवाग का तो सभी जानत हैं लेकिन तुम्हारे इस खेल के पांच खिलाडिय़ों का नाम पूछ देओ तो दाएं-बाएं झांकन लगते हैं। इस खेल के चक्कर में पड़ा रहेगा तो माल और नाम दोनों को तरसेगा। दिमाग खराब था, फंस गया इसके चक्कर में। काश क्रिकेट खेलता। अब तो बस भगवान से यही प्रार्थना करता रहता हूं कि अगली होली तक हॉकी को फिर से जिंदा कर दीजिए।
पुत्तू के जाने के बाद मंच पर आए विजय सिंह जो पास के जनपद में थानेदार हैं और होली की छुट्टïी पर घर आए हैं। विजय सिंह पुलिसिया अंदाज में माइक लेकर अपने दिल का गुबार गैस के गुब्बारों की तरह सबके सामने उड़ाने लगे …
‘अरे साहेब, पिछली होली भी क्या होली थी। गजब का रंग जमा था। तरह-तरह के मीठे-नमकीन देशी घी के पकवान, गीले-सूखे रंग, महंगी अंगरेजी फुल साइज बोतलें, वह भी सब फ्री में। दोस्तों लाटरी लग गई थी। पास पड़ोस के बच्चे तक पप्पू की अम्मा से रंग-गुलाल बार-बार मांग कर ले जा रहे थे। गुझिया भी तीन डलिया मिली थीं। घरभर ने जीभर कर कई दिनों तक खाईं, जब कुछ में फफूंदी लग गई तो उन्हें फेंकना पड़ा। अब इस होली को देखो। साला थाना बदलने के साथ किस्मत ही फूट गई। लाख कोशिश की। सबको बताया भी कि होली वाले दिन गांव जाना है फिर भी मिला क्या बस दो-तीन किलो गुझिया और चार पैकेट गुलाल। गलत जगह फंस गया हूं। हर गली में तो किसी मंत्री, विधायक या डिपार्टमेंट के बड़े अधिकारियों की रिश्तेदारी है। डराएं भी तो भला किसे। उल्टा लोग ही हमें तरह-तरह के नामों से डरा देते हैं। पता नहीं ये बुरे दिन कब बीतेंगे। भगवान ऐसी बेगिफ्ट होली दुश्मन को भी न दे। रो-रोकर भगवान से यही मांग रहा हूं कि अगली होली तक मोहे फिर कमाऊ थाना दे दीजो।
विजय सिंह के जाने के बाद जब थोड़ी देर तक कोई भी हालेदिल बयां करने नहीं आया तो डरते-डरते एक गरीब किसान बंसी ने माइक पर मोर्चा संभाला और कांपती आवाज में बोलने लगा …
‘हम गरीबों के लिए तो हर दिन आम है। मेरे यहां खास तो कुछ होता ही नहीं है। दो बार की रोटी ही मिल जाए तो बड़ी बात है। त्योहार का नाम सुनकर रूह कांप जाती है। एक-दो महीने पहले से जरूरी खर्चों में कटौती करो, तब जाकर किसी तरह त्योहार मन पाता है। इस बार तो जेब की ठंढक होलिका की आग से और भी बढ़ गई है। वो तो अपने सरपंच जी अच्छे हैं जो ठंढाई और भांग का पोगराम करा दिया। नहीं तो इस बार वह भी नसीब नहीं होती। थोड़ा नाचगाना होने से मन बहल गया। लेकिन एक चीज खराब लगी, सरपंच जी ने गुझिया का इंतजाम जो किया है उनमें खोया कम है, शायद महंगाई का असर उस पर भी रंग दिखा रहा है। मेरे पहले कई लोग आए और उन्होंने अपने लिए बहुत कुछ मांगा। मैं भी अपने लिए मांगता हूं लेकिन बस इतना कि प्रभु अगली होली तक आप मुझे बस जिंदा रख दीजो।
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