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दीवाली के बाद का अंधेरा

एहसासों की आवाज़
एहसासों की आवाज़
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कविता – दीवाली के बाद का अंधेरा
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ये बनारस का अस्सी घाट है
जो शरद की शांत रात को सुलाकर
अपने सामने युगों –युगों से बहती
मोक्षदायिनी गंगा में डुबकी लगा रहा है

ये ख़ामोशी के सुर से सुर
मिलाता हुआ इस वक़्त
रात्रि के अंतिम पहर से कुछ पहले
मिट्टी के हज़ारों दीयों को देख रहा है
जिसमें रूई की काली पड़ चुकी बाती
तेल की आखिरी बूँद को पी चुकी है .

कल दीवाली की रात थी जब
यहाँ हज़ारों लोगों ने मिलकर हज़ारों
रौशनी के पुंज रोशन किए थे
चारों दिशाओं में गूँजता हुआ
हर हर महादेव और जय श्री राम
का स्वर रात का सोलह श्रृंगार कर रहा था .

घंटे घड़ियाल ख़ामोशी को झकझोर कर
उसके कान में आरती गा रहे थे
महा आरती का प्रतिबिम्ब गंगाजल में
चमकदार सूरज पैदा कर रहा था

आकाश से बरस रहा था अमृत
जिसमें भगवाधारी साधु ,धूनी रमाए अघोरी
और सामान्य श्रद्धालु सराबोर होकर
अपनी जन्म जन्मान्तर की
तृष्णा से पा रहे थे मुक्ति .

आज यहाँ दूर दूर तक रात
काली कमली ओढे ठिठुर रही है
हर स्वर इस कोशिश में लगा है कि
बाबा विश्वनाथ का ध्यान निर्विघ्न चलता रहे
कहीं कोई परछाई नज़र नहीं आती
गंगा का अनवरत बहता जल
चाँद को छूने की कोशिश में लगा है
और सन्नाटा मुंह जोड़े देख रहा है कि
कैसे अथाह रौशनी के साम्राज्य के बाद
आ जाता है काजल नुमा अँधेरा .

यही तो नियम है जो चला आ रहा है
आदि अनादी काल से जिसमें
चाँद सूरज को पूरा करता है
मौत ज़िन्दगी को पूरा करती है
समन्दर नदी को पूरा करता है
और अँधेरा रौशनी की जगह नहीं लेता
अँधेरा रौशनी के गले लगकर
समय का चक्र पूरा करता है .

मनीष “आशिक़ “

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